संपादकीय: नवम्बर 2023

निठारी काण्ड पर फैसला : न्याय प्रणाली की हकीकत

उमा रमण ( संपादक ) 805

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 18 अक्टूबर के अपने फैसले में कुख्यात निठारी काण्ड के दो अपराधियों, मोनिन्दर सिंह पन्धेर और उसके नौकर सुरेंदर कोली की सजा माफ कर दी। गाजियाबाद की सीबीआई कोर्ट ने इन दोनों को 15 साल की एक लड़की और 18 बच्चों के अपहरण, बलात्कार और हत्या के मामले में फाँसी कि सजा दी थी।

निठारी काण्ड 2006 में सामने आया था जब निठारी गाँव से सटे नोयडा सेक्टर 31 की डी–5 कोठी के आसपास एक–एक करके कई नरकंकाल, खोपड़ी और मानव अंग के अवशेष मिले थे। यह कोठी एक बड़े व्यवसायी मोनिन्दर सिंह पन्धेर की थी जहाँ वह अपने नौकर सुरेंदर कोली के साथ रहता था। दिल दहला देनेवाली इन घटनाओं की जाँच के दौरान 18 बच्चों और एक कॉल गर्ल के अपहरण, बलात्कार और हत्या का मामला सामने आया था।

गाजियाबाद के सत्र न्यायालय द्वारा सुनाई गयी फाँसी की सजा को पलटते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि आरोपी के जिस कबूलनामे के आधार पर कंकाल, हड्डियाँ और हत्या में इस्तेमाल किये गये हथियारों को बरामद किया गया, उससे सम्बन्धित जरूरी कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी। पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी, बरामदगी और कबूलनामे के खास पहलुओं को जिस लापरवाही से निपटाया गया वह बेहद निराशाजनक है। जाँच एजेंसी ने जिस तरह छोटी से छोटी और बेहद बुनियादी गलतियों को दुहराया है, उसे देखते हुए लगता है कि आखिर देश में जाँच का स्तर क्या है?

अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष ने शुरुआत में सारे सबूतों की बरामदगी संयुक्त रूप से पन्धेर और कोली से दिखाया लेकिन बाद के चरण में दोष केवल कोली पर मढ़ने तक बारबार अपनी स्थिति बदलता रहा। अदालत ने पाया कि मानव कंकाल की सभी बरामदगी पन्धेर की कोठी डी–5 और एक डाक्टर की कोठी डी–6 की दीवार के पीछे एक नाले से की गयी। (याद रहे कि इस डाक्टर को उसी दौरान एक अन्य मामले में किडनी व्यापार के सिलसिले में गिरफ्तार भी किया गया था, लेकिन सीबीआई ने जाँच उस दिशा में नहीं बढ़ायी।) पन्धेर की कोठी से केवल दो चाकुओं और एक कुल्हाड़ी की बरामदगी की गयी थी जिस पर मानव अंग के किसी टुकड़े की फोरेंसिक जाँच से पुष्टि नहीं हुई। इस बात का कोई सबूत पेश नहीं किया गया कि कोई हत्या कोठी नंबर 5 में हुई हो।

पीठ ने कहा कि भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति की विशेष सिफारिशों के बावजूद मानव अंग के व्यापार की संभावित संलिप्तता की जाँच करने में अभियोजन पक्ष विफल रहा। सीबीआई जैसी जिम्मेदार एजेंसी का यह रवैया जन आस्था के साथ धोखे से कम नहीं है। अदालत ने कहा कि इस जाँच में अंग व्यापार के संगठित गिरोह की भूमिका की विस्तृत जाँच करने के बजाय उस मकान के एक गरीब नौकर को ‘दैत्य’ बनाकर उसे फँसाने का विकल्प अपनाया गया।

पीठ ने कहा कि जाँच के दौरान जिस तरह की गम्भीर खामियाँ सामने आयीं उनसे मिलीभगत सहित कई तरह के अनुमान लगाये जा सकते हैं। इस मामले में आरोपी अपीलकर्ता चतुराई से निष्पक्ष सुनवाई से बच गये।

अदालत का फैसला इस देश में न्याय और कानून व्यवस्था की हकीकत जानने वालों के लिए कोई अचरज की बात नहीं है। सभी जानते हैं कि यहाँ न्याय पैसे पर बिकता है। निर्दोष गरीब फर्जी मुकदमों में जेल में सड़ते हैं जबकि दुर्दान्त अपराधी खुले आम घूमते हैं, यहाँ तक कि संसद और विधान सभाओं की शोभा बढ़ाते हैं।

इस फैसले ने निठारी काण्ड पर देश–विदेश अंक–4 (मार्च 2007) और अंक 5 (सितम्बर 2007) में प्रकाशित लेखों में कही गयी बातों को सही ठहराया है। हमने लिखा था कि “एक महीना भी नहीं हुआ कि धीरे–धीरे सब कुछ शान्त हो गया। सारा मामला जाँच–पड़ताल, पुलिस–कचहरी, वकील–बैरिस्टर और सरकारी अमलों की फाइलों में बन्द हो जायेगा।––– इस देश में हर ऐसी घटना का यही हस्र होता है। कभी किसी अपराधी को सजा भी हो जाती है। अगर मामला माध्यम वर्ग का, खास तौर पर ऊपरी माध्यम वर्ग का हुआ तो शोरगुल ज्यादा मचता है। लेकिन अपराधी ताकतवर हो तो या तो वह बच जाता है या इतना समय लग जाता है कि न्याय और निर्णय अप्रासंगिक हो चुका होता है––– अभी से इस बात की कवायद शुरू हो गयी है कि मोनिन्दर सिंह पन्धेर को कैसे बचाया जाय और सब कुछ उसके नौकर सुरेंदर कोली पर कैसे डाल दिया जाए? वह (कोली) जानता है कि अगर मालिक बच गया तो उसके भी बचने की संभावना बढ़ जायेगी।” अदालत ने अपने फैसले में जो लिखा है, क्या उसका मूल आशय यही नहीं है?

निठारी काण्ड जैसी पैशाचिक घटनाएँ हमारे देश में आये दिन होती रहती हैं। निठारी काण्ड सामने आने के दौरान ही अखबारों में ऐसी तमाम खबरें आयी थीं, जिनमें बच्चों के गायब होने की कई भयावह घटनाओं का जिक्र था। उनके हवाले से हमने लिखा था कि “कानपुर में 132 बच्चे लापता हैं। लोगों को शक है कि उन्हें भी किसी पन्धेर ने ही खाया होगा। समाचार पत्रों के मुताबिक बंगलोर में 13 लोग रोज लापता हो जाते हैं। आज की खबर है कि एटा शहर के एक तालाब में 40 खोपड़ी और 100 नरकंकाल मिले हैं। हालही में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने बयान दिया है कि भारत के कई राज्यों को ले लिया जाये तो कुल 45,000 बच्चे लापता हैं।”

इन तथ्यों के आधार पर ऐसी पाशविक घटनाओं के प्रति इस व्यवस्था की आपराधिक उपेक्षा को रेखांकित करते हुए हमने लिखा था कि “किसी भी देश में ऐसे एक–दो अपराध भी हों तो शीर्ष पर बैठे लोग और उनके चिन्तक–विचारक इसकी अन्तर्धारा की तलाश में लग जाते हैं। यह जानने का प्रयास किया जाता है कि उस घटना की जमीन क्या है, उसकी जड़ें कितनी गहराई और विस्तार में गयी हैं, समाज की कौन–कौन सी ऐसी विचारधारा है जो इसका पोषण करती है और इस विषवृक्ष को पल्लवती–पुष्पित करती है तथा इसका पोषण करती है। लोकतंत्र में थोडा भी दमखम हो तो कोई भी सरकार ऐसी एक भी घटना होने पर हफ्तेभर कायम नहीं रह सकती। फिर यह महान लोकतंत्र हजारों ऐसी घटनाओं के बावजूद किस तरह कायम है?––– क्या किसी ऐसे लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है जिसमें इतनी हत्याओं के बाद भी पुलिस एफआईआर तक दर्ज न करे और पुलिस व सरकार का बाल भी बांका न हो। शायद यह कीर्तिस्तंभ भारत के महान लोकतंत्र के पास ही है।”

इलाहाबाद उच्च न्यायलय की पीठ ने अपने फैसले में निठारी काण्ड के अपराधियों को बाइज्जत बरी करते हुए इसका सारा दोष कार्यपालिका, यानी जाँच एजेंसी सीबीआई के मत्थे मढ़ दिया, जो जाँच और सबूत जुटाने में की गयी लापरवाही को देखते हुए बिलकुल सही है। लेकिन सच पूछा जाये तो इस फैसले के बाद हत्या एक बार फिर इस देश की न्याय व्यवस्था की ही हुई है। न्यायपालिका, कार्यपालिका, पुलिस, प्रशासन और जाँच एजेंसियाँ सब इस व्यवस्था के अंग हैं। ये सभी अंग एक दूसरे पर दोष मढ़कर इस पूरे मामले में अपराध का पता लगाने और पीड़ितों को न्याय दिलवाने में इस व्यवस्था की असफलता और अपने हिस्से की जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।

निठारी काण्ड के ठीक बाद सीबीआई के निदेशक विजय शंकर का यह कहना था कि दिल दहला देनेवाली इस घटना को सुन कर कोई ताज्जुब नहीं होता। “यह तो एक लक्षण मात्र है। निठारी इस समाज में व्याप्त विद्वेष और किसी मामले को नोटिश में लेने और कार्रवाई करने में व्यवस्था की असफलता को दर्शाता है। यह घटना इसलिए घटी क्योंकि सबसे पहले तो पुलिस ने लोगों की सुनवाई नहीं की, उसके बाद प्रशासन ने भी उनकी शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया और पूरा समाज इस मामले के प्रति उदासीन बना रहा।”

लेकिन जब जाँच की जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी गयी तो उसने क्या किया? यूपी पुलिस की जाँच के दायरे में किडनी व्यापार भी था क्योंकि पन्धेर की कोठी के ठीक बगल वाली कोठी में रहनेवाले एक डाक्टर को पुलिस ने इस घटना के प्रकाश में आने से पहले ही किडनी व्यापर के मामले में गिरफ्तार किया था। सीबीआई ने इस दिशा में अपनी जाँच को आगे बढाने की जहमत नहीं ली। पुलिस ने अपनी तहकीकात में पन्धेर और कोली दोनों को मुलजिम माना था जबकि सीबीआई ने पन्धेर को क्लीन चिट दे दी और सारा दोष सुरेंदर कोली के सर मढ़ दिया। पुलिस जाँच टीम के सामने पन्धेर के इकबाले जुर्म के बावजूद सीबीआई ने अपनी किसी भी चार्जशीट में उसे बलात्कार और हत्या का दोषी नहीं ठहराया। पायल हत्या काण्ड में अपना अपराध स्वीकार करते हुए पन्धेर ने बताया था कि उसने ही कोली को पायल की हत्या का निर्देश दिया था क्योंकि वह उसे ब्लैकमेल करने लगी थी। दोनों अभियुक्तों की निशानदेही पर पुलिस ने 15 खोपड़ियां, हड्डियाँ और हत्या में प्रयुक्त चाकू भी बरामद किये थे। लेकिन इसके बावजूद सीबीआई ने पायल मामले में चार्जशीट दायर करते समय पन्धेर के इकबालेजुर्म की कापी तक लगाना जरुरी नहीं समझा। उलटे सीबीआई का कहना था कि हत्या और बलात्कार के 19 मामलों में से कम से कम 16 मामलों में पन्धेर को अपने नौकर द्वारा किये गये अपराधों कि कोई जानकारी नहीं थी। सीबीआई ने पन्धेर पर केवल घर पर कालगर्ल बुलाने, आपराधिक षड़यंत्र और सबूत मिटाने के आरोप लगाये थे। और अदालत ने इन आरोपों से भी उसे बरी कर दिया क्योंकि सीबीआई ने उसके पक्ष में जो साक्ष्य प्रस्तुत किये थे वे सजा दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं थे।

देश का खुफिया तंत्र और जाँच एजेंसियाँ भी पुलिस–प्रशासन कि तरह इस व्यवस्था का हिस्सा है, जो इस देश के अमीर पूँजीपति वर्ग कि सेवा करती है। सीबीआई का मकसद लोगों को न्याय दिलवाना नहीं बल्कि जाँच के नाम पर मामले को लटकाना और उस पर लीपापोती करना होता है। यह उस षड़यंत्र का हिस्सा है जो लोगों द्वारा भोलेपन के साथ व्यवस्था पर किये जाने वाले विश्वास का फायदा उठाकर सरकारी तंत्र उनको ठगने के लिए करता है। जाहिर है जहाँ मामला आम लोगों को न्याय दिलवाने का हो और अपराधी शासक वर्ग के हों, तो यह व्यवस्था न्याय देने में असफल है। खुद सीबीआई के पूर्व निदेशक बी आर लाल ने अपनी किताब ‘हू ओन्स सीबीआई’ में यह स्वीकार किया था कि सीबीआई ताकतवर लोगों को सजा नहीं दिलवा सकती।

दरअसल, इस पूरे मामले में 17 सालों के दौरान इस मामले के आरोपियों को फाँसी की सजा पाने और बाइज्जत बरी होने के बीच जितने उतार–चढ़ाव और मोड़–घुमाव देखने को मिले, वह भी उच्च न्यायालय की पीठ के इस सन्देह के लिए मजबूत आधार हैं कि इस मामले में “मिलीभगत सहित कई तरह के अनुमान लगाये जा सकते हैं।” 29 दिसम्बर 2006 को पन्धेर और कोली की गिरफ़्तारी हुई। 11 जनवरी 2007 को सीबीआई को जाँच सौंपी गयी, जिसने 16 आरोप पात्र दायर किये। 13 फरवरी 2009 को पहले मामले में कोली और पन्धेर को मौत की सजा सुनाई गयी, बाद में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने पन्धेर को सभी मामलों में बरी कर दिया। 15 फरवरी 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने कोली की मौत की सजा बरकरार रखी। 7 जुलाई 2014 को राष्ट्रपति ने कोली की दया याचिका खारिज की। 4 सितम्बर 2014 को डासना जेल में फाँसी देने की सुविधा न होने के चलते कोली को मेरठ जेल भेजा गया। दो दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय में रिव्यू पिटिशन दायर हुआ जिसके दो दिन बाद रात 1 बजे उसने डेथ वारंट पर स्टे दे दिया। 28 अक्तूबर 2014 को सर्वोच्च न्यायालय ने कोली कि फाँसी पर रिव्यू पिटीशन खारिज की। 31 अक्टूबर 2014 को पेनाल्टी लेटिगेशन ग्रुप ने कोली की फाँसी के खिलाफ इलाहबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। 28 जनवरी 2015 को इलाहबाद उच्च न्यायालय ने फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। 16 अक्टूबर 2023 को इलाहबाद उच्च न्यायालय पन्धेर को सभी मामलों में बरी कर दिया। कोली को भी एक मामले को छोड़ कर बाकी सभी मामलों में बरी कर दिया। कानूनी कार्यवाहियों के इन पेंचीदे रास्तों और भूलभुलैय्या का निचोड़ यही है कि निठारी के डेढ़ दर्जन से ज्यादा मासूम बच्चों कि नृशंस हत्या के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है।

आज आम जनता इस बात को अपने अनुभव से समझ गयी है कि इस देश में गरीबों के लिए न्याय की उम्मीद करने से बढ़ कर कोई मुगालता नहीं हो सकता। यहाँ दौलतमन्द लोग न्याय और कानून को अपनी मुट्ठी में लिए बैठे हैं, लेकिन जब हालात से तंग आकर आम जनता सीधी कार्रवाई पर उतारू होती है, जो लाखों में एक बार ही होता होगा, तो ये भद्रजन चिल्लाने लगते हैं कि देखो, ये कानून को हाथ में ले रहे हैं। यह तब भी हुआ था जब पीड़ित परिजन और स्थानीय लोगों ने उस हैवानियत के सामने आने के बाद आरोपी पन्धेर की कोठी फूँकने का प्रयास किया था और अदालत में उसकी पिटाई की थी। पुलिस को बच्चों की जान कि परवाह भले ही न रही हो, लेकिन पन्धेर की जान और उसकी सम्पत्ति बचाने में उसने जान की बाजी लगा दी थी। जब रहनुमाओं से न्याय की उम्मीद खत्म हो जाती है तभी लोग निराशोन्माद में ऐसे अनुचित कदम उठाने को बाध्य होते हैं। इसका एक उदाहरण निठारी काण्ड के ठीक बाद ही सामने आया था, जब उस गाँव में एक बच्चे को टॉफी देकर फुसलाने के सन्देह में भीड़ ने एक शख्स को पीट–पीट कर मार डाला था।

बच्चों को खानेवाली इस डाइन व्यवस्था में न्याय मिलने की एक ही शर्त है–– गरीब मेहनतकश जनता खुद को संगठित करे और अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए एक ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में आगे बढे जिसमें न्याय और समता केवल पवित्र किताबों में नहीं, बल्कि जनजीवन में मूर्त रूप ग्रहण करे।


ये फ़स्ल उमीदों की हमदम

सब काट दो बिस्मिल पौदों को

बे–आब सिसकते मत छोड़ो

सब नोच लो बेकल फूलों को

शाख़ों पे बिलकते मत छोड़ो

ये फ़स्ल उमीदों की हमदम

इस बार भी ग़ारत जाएगी

सब मेहनत सुब्हों शामों की

अब के भी अकारत जाएगी

खेती के कोनों–खुदरों में

फिर अपने लहू की खाद भरो

फिर मिट्टी सींचो अश्कों से

फिर अगली रुत की फ़िक्र करो

फिर अगली रुत की फ़िक्र करो

जब फिर इक बार उजड़ना है

इक फ़स्ल पकी तो भरपाया

जब तक तो यही कुछ करना है

–– फ़ैज अहमद फ़ैज

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