संपादकीय: सितम्बर 2020

नयी शिक्षा नीति 2020 : आपदा में विपदा

उमा रमण ( संपादक ) 197

कोरोना महामारी के दौर में जनता की समाजिक दूरी और अपने–अपने घरों में बन्द होने का फायदा उठाकर केन्द्र की भाजपा सरकार ने कई जनविरोधी फैसले लिये। श्रम कानूनों में बदलाव, कृषि क्षेत्र को सटोरियों और कालाबाजारियों को सौंपने वाला अध्यादेश और सार्वजनिक क्षेत्र को कौड़ियों के मोल नीलामी सहित इन तमाम कारगुजारियों का मकसद देशी–विदेशी पूँजीपतियों के मुनाफे में बेशुमार इजाफा और मेहनतकश आबादी की बदहाली को और अधिक बढ़ाना है। भाजपा सरकार की नयी शिक्षा नीति 2020 भी इसी दिशा में उठाया गया अगला कदम है। सरकार और पूँजीपतियों के लिए यह आपदा में अवसर है, लेकिन आम जनता के लिए यह एक विपत्ति है, विनाशकारी फैसला है।

केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 29 जुलाई को नयी शिक्षा नीति 2020 का मसविदा मंजूर किया। सरकार के मुताबिक इसका लक्ष्य 2040 तक “भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति” बनाना है, हालाँकि यह कब लागू होगा इसके लिए कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है। इसमें 2035 तक सकल नामांकन अनुपात का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस स्थापित करने की अनुमति, प्राथमिक शिक्षा से ही छात्रों को परम्परागत जातिगत पेशों जैसे बढ़ई, माली, कुम्हार, लोहार, शिल्पकार इत्यादि का व्यावसायिक प्रशिक्षण, नियमित स्कूली शिक्षा की जगह ओपेन स्कूल, दूरस्थ शिक्षा और ऑनलाइन पढ़ाई का विकल्प, उच्च शिक्षा संस्थाओं को सरकारी अनुदान की जगह कर्ज देने, निजी शिक्षण संस्थाओं को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करने, 10+2 की मौजूदा स्कूली पाठ्यक्रम संरचना की जगह 5+3+3+4 वर्षीय शैक्षणिक ढाँचा बनाने जैसे कई बदलाव किये गये हैं।

इस नयी शिक्षा नीति को राजीव गाँधी की नयी शिक्षा नीति 1986 की जगह लाया गया है। निश्चय ही इसमें 1986 की शिक्षा नीति की निरन्तरता और परिवर्तन दोनों ही पहलू देखे जा सकते हैं जो पिछले 35 सालों में अर्थव्यवस्था में हुए भारी बदलावों के अनुरूप हैं। आजादी के बाद से ही भारत के शासकों ने अपनी विशिष्ट पूँजीवादी व्यवस्था को चलाने वाले कारिन्दे तैयार करने के लिए समय–समय पर शिक्षा नीति में बदलाव किये। इस पूरे इतिहास की चर्चा करना यहाँ सम्भव नहीं, लेकिन राजीव गाँधी के दौर की आर्थिक नीतियों के साथ मौजूदा शासकों की आर्थिक नीतियों की तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इस नयी शिक्षा नीति की जरूरत क्यों आ पड़ी और इसमें कौन–कौन से बदलाव किन कारणों से किये गये हैं। 

यह सर्वविवादित है कि 80 के दशक तक आजादी के बाद शुरू हुई नेहरू की आत्मनिर्भर आर्थिक विकास और आयात प्रतिस्थापन की नीति का दिवाला निकल गया था। विदेशी तकनीक और विदेशी पूँजी पर निर्भरता की ओर पहला कदम राजीव गाँधी ने ही बढ़ाया था, जब खुले दरवाजे की आर्थिक नीति के तहत बहुराष्ट्रीय निगमों से गठजोड़ करने और विश्व बैंक के कर्ज के भरोसे भारत को इक्कसवीं सदी में ले जाने का नारा दिया गया था। 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने शिक्षा मन्त्रियों के सम्मेलन में अपनी भावी नीतियों का स्पष्ट शब्दों में संकेत किया था–– “हम स्वयं को शेष दुनिया से अलग करके नहीं रह सकते––– हम पुरानी तकनीक पर निर्भर नहीं रह सकते, क्योंकि यह हमारे लिए अधिक खर्चीली है। और जब हम अपनी पुरानी तकनीक को देखते हैं, तो मामला यह नहीं रह जाता कि इससे कितने लोगों को रोजगार मिलता है और कितने लोग बेरोजगार रह जाते हैं, बल्कि मुद्दा यह है कि लागत के अनुपात में उत्पादकता कितनी है।”

देशी–विदेशी पूँजी के गठजोड़ की अपनी आर्थिक नीतियों के अनुरूप ही राजीव गाँधी की नयी शिक्षा नीति समान, सार्वभौमिक और राज्य सम्पोषित शिक्षा की वचनबद्धता से किनारा करने की नीति थी। हालाँकि विदेशी पूँजी और तकनीक पर निर्भरता का परिणाम पाँच वर्षों के भीतर ही सामने आ गया, जब देश कर्ज–जाल में बुरी तरह फँस गया और विदेशी मुद्रा भण्डार की जरूरतों को पूरा करने के लिए चन्द्रशेखर सरकार को विदेशी बैंक में सोना गिरवी रखना पड़ा। 1991 में राव–मनमोहन की सरकार ने विदेशी पूँजी और तकनीक पर निर्भरता वाली राजीव गाँधी की आधी–अधूरी आर्थिक नीतियों को अंजाम तक पहुँचा दिया, जब नयी आर्थिक नीति के नाम पर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की साम्राज्यवादपरस्त नीतियों को पूरी तरह अंगीकार कर लिया। तभी जाकर राजीव गाँधी की नयी शिक्षा नीति भी सही मायने में नयी अर्थव्यवस्था के साथ दाँते और पेंच की तरह सेट हो गयी और थोड़े बहुत फेरबदल के साथ मूलत: उसे ही आज तक लागू किया जाता रहा।

नवउदारवादी नीतियाँ भले ही कांग्रेस के शासनकाल में अपनायी गयी हों, लेकिन सच्चाई यह है कि इसे लागू करने के मामले में भाजपा उससे कहीं ज्यादा मुस्तैद रही है। बाजपेयी सरकार के दौरान निजीकरण की रफ्तार तेज करने के साथ–साथ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की नीलामी के लिए एक नये मंत्रालय ‘विनिवेश मंत्रालय’ का ही गठन कर दिया गया था। जिन नीतियों को मनमोहन सिंह जनान्दोलनों के दबाव में हिचकते सँकुचाते लागू करते आ रहे थे, उन्हे मोदी सरकार ने बुलेट ट्रेन की रफ्तार से लागू किया। यह तथ्य पिछले 6 साल की घटनाओं पर एक सरसरी निगाह डालने से ही स्पष्ट हो जाएगा। कांग्रेसी जिन क्षेत्रों में विदेशी पूँजी निवेश का अनुपात धीरे–धीरे बढ़ा रहे थे, उन्हें मोदी सरकार ने सत्ता में आने के तत्काल बाद सौ प्रतिशत तक पहुँचा दिया। सिंगल ब्राण्ड खुदरा व्यापार, ऑटोमोबाईल, एयरपोर्ट, रेलवे, एयरलाइन्स, नॉन बैंकिंग फाइनेन्स कम्पनी और यहाँ तक कि रक्षा क्षेत्र में भी सौ प्रतिशत तक विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत दे दी। दूरसंचार, खनिज, रेलवे, हवाई अड्डे, अस्पताल, लोकनिर्माण, कृषि विपणन, बीमा सहित अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में सार्वजनिक उद्यमों के विनाश की कीमत पर निजी पूँजीपतियों को भरपूर बढ़ावा दिया गया। इस दौरान शिक्षा का निजीकरण, उच्च शिक्षण संस्थानों में भारी फीस वृद्धि, शिक्षा बजट और अनुदान में कटौती, पाठ्यक्रमों से प्रगतिशील जनतान्त्रिक मूल्यों वाले पाठ्यक्रमों को हटाने, अकादमिक स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने जैसे कदम भी उठाये गये।

शिक्षा के व्यवसायीकरण की दिशा में एक निर्णायक मोड़ था विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के साथ शिक्षा के व्यापार पर भारत सरकार की सहमति। दिसम्बर 2015 में डब्ल्यूटीओ की नैरोबी में हुई मंत्रीस्तरीय बैठक में मोदी सरकार ने सेवाओं के व्यापार पर आम सहमति (गैट्स) के तहत उच्च शिक्षा, चिकित्सा, बीमा, भौतिक विज्ञान, मानविकी में शोध इत्यादि को विश्व व्यापार के अधीन लाने के प्रस्ताव पर आत्मसमर्पण कर दिया। 1994 में डब्ल्यूटीओ की स्थापना के बाद से ही इस मुद्दे पर लगातार वार्ताओं का दौर चलता रहा, लेकिन दो दशकों तक भारत सरकार ने इस पर सहमति नहीं दी थी। हर कीमत पर विदेशी पूँजी के लिए लालायित मोदी सरकार ने न केवल इस समझौते पर दस्तखत किया, बल्कि शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सेवाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए अपनी नीतियों में काफी बदलाव किये। देशी–विदेशी पूँजी के हित में डब्ल्यूटीओ से बँधने के बाद, अब इस नयी शिक्षा नीति में उन्हीं प्रावधानों को शब्दाडम्बर की आड़ लेकर ‘देश हित में उठाये गये कदम’ और ‘राष्ट्रीय नीति’ के आवरण में सजाकर पेश किया गया है।

नयी शिक्षा नीति के समर्थकों की तो बात ही क्या, इसके अधिकांश आलोचक और शिक्षा की दुर्दशा पर आँसू बहाने वाले लोग भी जाने–अनजाने इस बुनियादी सच्चाई को नजरंदाज करते हैं कि डब्ल्यूटीओ के सामने समर्पण करने के बाद से ही जिस तरह भारतीय शासक वर्ग ने आर्थिक नीतियों के निर्धारण में अपनी सम्प्रभुता और स्वतंत्रता गवाँ दी, वही स्थिति गैट्स समझौते से बँधने के बाद शिक्षा नीति की है। इस नयी शिक्षा नीति के कुछ सतही और हाशिये के मुद्दों को छोड़ दें, तो मूलत: इस नीति के निर्माण में देश के शिक्षाशास्त्रियों, अकादमिक विद्वानों या जन–प्रतिनिधियों की कोई खास भूमिका नहीं है। उनका सारा परिश्रम केवल गैट्स समझौते के दायरे में रहते हुए इसे लोकप्रिय जुमलों और लुभावने शब्दजाल में प्रस्तुत करने में ही लगा है। देश की भावी पीढ़ी का निर्माण करना और उसका सर्वांगीण विकास करना अब सिर्फ कहने की बातें हैं, जबकि इस शिक्षा नीति का असली उद्देश्य देशी–विदेशी पूँजीपतियों का हित साधना है। पूँजी के वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व बाजार की शक्तियाँ ही असली नीति निर्धारक, नियंता और नियामक हैं। गैट्स समझौते पर दस्तखत करने के बाद शिक्षा नीति बनाने में सरकार की भूमिका नाममात्र की ही रह गयी है। उसकी भूमिका शिक्षा के व्यवसायियों के लिए सुविधा मुहैया कराने वाले (फैसिलिटेटर) तक सीमित रह गयी है। मोदी की तुकबन्दी “मिनिमम गवर्मेन्ट, मैक्सिमम गवर्नेन्स” का अभिप्राय भी यही है। ‘लेवेल प्लेइंग फील्ड’ के नाम पर सरकार का काम अब शिक्षा क्षेत्र में पूँजी लगाने वालों को सभी तरह के नियन्त्रणों से मुक्त करना, मनमाने तरीके से उन्हें अपना व्यापार चलाने और अकूत मुनाफा बटोरने के लिए जरूरी सुविधाएँ प्रदान करना ही रह गया है।

गैट्स समझौते की शर्त के आधार पर बनायी गयी इस शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप अब सबके लिए शिक्षा के समान अवसर जैसी संवैधानिक जिम्मेदारी और सामाजिक न्याय जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया। राष्ट्र की सम्प्रभुता सिर्फ कहने की बात है, आत्मनिर्णय का वास्तविक अधिकार देशी–विदेशी थैलीशाहों के हाथों में चला गया है। निस्संदेह, शिक्षा को व्यापार बनाने और सबके लिए सस्ती और सर्वसुलभ शिक्षा मुहैया करने के बीच छत्तीस का सम्बन्ध है। शिक्षा के व्यवसायियों, खासकर विदेशी पूँजी निवेशकों के लिए ‘खेल का समतल मैदान’ तैयार करने का मतलब है शिक्षा के बाजारीकरण में आनेवाली बाधाओं को हटाना, जिसमें सरकारी अनुदान और सहायता बन्द करना, छात्रवृति और आरक्षण को समाप्त करना, सस्ती फीस वाले सरकारी संस्थानों में भारी फीस बढ़ोतरी या उन्हें निजी पूँजीपतियों के हवाले करना। शिक्षा के व्यापार में लगे देशी–विदेशी व्यापारियों के लिए महँगी फीस वसूलने, कम वेतन पर अस्थाई शिक्षकों की भर्ती करने और हर तरह के सरकारी नियन्त्रण और हस्तक्षेप से मुक्त होने की शर्त अनिवार्य है। यह भी गौरतलब है कि शिक्षा के व्यापार को लेकर पैदा होने वाले किसी भी विवाद की सुनवाई भारतीय न्यायालय में नहीं, बल्कि डब्ल्यूटीओ के विवाद सुलझाने वाले अधिकरण में होगी।

निजी विश्वविद्यालयों और सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों के बीच हर तरह के भेदभाव समाप्त करने की शर्त के रूप में सरकारी संस्थानों को ऑटोनोमस बनाने का प्रवधान है। यहाँ ऑटोनोमस बनाने का अर्थ पुराने दौर की स्वायत्तता नहीं, जहाँ सरकार पूरा खर्च खुद उठाती थी और संस्था के संचालन में सरकार का हस्तक्षेप नहीं होता था। नयी शिक्षा नीति में अनुदान देने वाली संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का तो विसर्जन ही कर दिया गया है। अब ऑटोनोमस संस्था होने का मतलब है कि सरकारी संस्थाएँ भी सरकारी अनुदान और बजट की उम्मीद करने के बजाय, भारी फीस वसूलकर, कम वेतन पर शिक्षकों और कर्चारियों की भर्ती करके तथा बैंक से कर्ज लेकर अपने खर्चें खुद जुटाएँगी।

हालाँकि गैट्स समझौते की तमाम शर्तों को उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर पहले ही टुकड़ों–टुकड़ों में लागू किया जा रहा था और इसके बुरे नतीजे भी सामने आ गये थै। उच्च शिक्षा में 100 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत पहले ही दे दी गयी थी। छात्र–छात्राओं द्वारा महँगी फीस चुकाने के लिए अपना भविष्य गिरवी रखकर शिक्षा ऋण लेना, पाठ्यक्रम में बदलाव तथा उसकी अवधि और सत्र में फेरबदल, नेट के अलावा अन्य सभी छात्रवृतियों में कटौती, विश्वविद्यालयों के अनुदान में कटौती, शिक्षक और कर्मचारियों की स्थायी नियुक्ति पर रोक और उनकी ठेके पर बहाली, छात्र–शिक्षक अनुपात को पहले से भी बुरी हालत में लाना, हर स्तर पर शिक्षकों की संख्या घटाना, फीस में मनमानी बढ़ोतरी, छात्रों को मिलने वाली हॉस्टल, पुस्तकालय, बस पास, सस्ते कैन्टीन जैसी सुविधाओं में कमी, शिक्षकों की नियुक्ति और छात्रों के प्रवेश में आरक्षण को सही तरीके से लागू न करना और इसी तरह के कई फैसले पिछले कुछ वर्षों से थोपे जा रहे थे। शिक्षा जगत से जुड़े लोगों ने इन फैसलों के खिलाफ कई कैम्पसों में संघर्ष भी किये और अक्सर उन्हें पलटवाने में वे कामयाब भी हुए। लेकिन डब्ल्यूटीओ के समझौते से बँधने और नयी शिक्षा नीति लागू हो जाने के बाद अब सरकार हर कीमत पर इन शर्तों को लागू करेगी। जिस तरह केन्द्र और राज्य सरकारें अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में विदेशी पूँजी निवेश की हिफाजत के लिए लाठी–गोली चलवाती हैं, उसी तरह शिक्षा के देशी–विदेशी व्यापारियों के स्वार्थ की रक्षा के लिए दमन–उत्पीड़न करने से भी वे पीछे नहीं हटंेगी।

पिछले कुछ वर्षों से केन्द्र और राज्य सरकारों ने जितनी तेजी से शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण किया, उसके चलते भारी संख्या में दलित–शोषित तबकों के शिक्षार्थी शिक्षा से वंचित हुए हैं जिनमें दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाएँ तथा गरीब सवर्ण भी शामिल हैं। डब्ल्यूटीओ के आगे समर्पण करके शिक्षा को अपने देश की जनता के हित में संचालित करने के बजाय देशी–विदेशी मुनाफाखोरों के हवाले करने का सीधा मतलब यही है कि समाज के वंचित तबकों के लिए, जिनमें से अधिकांश लोगों की पहली पीढ़ी भी उच्च शिक्षा की दहलीज पर आज तक कदम नहीं रख पायी है, उनके लिए शिक्षा के दरवाजे को हमेशा के लिए बन्द कर दिया गया है।

जहाँ तक मध्य वर्ग और खाते–पीते परिवारों की इस हसरत का सवाल है कि विदेशी शिक्षण संस्थाएँ उनको बेहतर शिक्षा प्रदान करेंगी, वह भी मनमोदक ही साबित होंगी, इसमें सन्देह है। पहले भी समय–समय पर निजी संस्थानों की धोखाधड़ी सामने आती रही है, जिनमें भारी फीस वसूलने के बावजूद न्यूनतम शैक्षणिक सुविधाएँ भी नदारद रहीं, और वह भी उस दौर में जब उनके ऊपर यूजीसी और एआईसीटीसी जैसी नियामक संस्थाओं का अंकुश था। इस नयी शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के देशी–विदेशी व्यापारियों को सभी तरह के सरकारी नियन्त्रण और विनियमन से मुक्त और बेलगाम रखा गया है। इसलिए निजी संस्थाएँ जो शिक्षा देंगी, उसकी गुणवत्ता की कोई गारण्टी नहीं होगी। जाहिर है कि उन सौदागरों का मकसद शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाना नहीं, बल्कि भरपूर मुनाफा बटोरना है।

यूँ तो हर युग मेंे शासक वर्ग ही अपने वर्गीय स्वार्थों के हिसाब से शिक्षा व्यवस्था को नियन्त्रित और संचालित करते रहे हैं। वे अपनी सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप समय–समय पर शिक्षा व्यवस्था को ढालते रहे हैं ताकि उनकी व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे। समाज में उत्पादन प्रणाली जिस अवस्था में होती है, उसी आधार पर उस समाज में शिक्षा, संस्कृति, राजनीति और अन्य सामाजिक संरचनाओं का निर्माण और निर्धारण होता है। पूँजी के वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में भी हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था साम्राज्यवादी समूह की प्राथमिकता और आवश्यकता के मुताबिक ढाली जा रही है। जिस तरह अंग्रेजों ने अपनी उपनिवेशिक व्यवस्था को चलाने के लिए एक अंग्रेजपरस्त शिक्षित वर्ग पैदा किया था, या आजादी के बाद देश के शासकों ने आत्मनिर्भर आर्थिक विकास की नीति के अनुरूप शिक्षा नीति बनायी थी, ठीक उसी तरह आज साम्राज्यवादी समूह और उनके भारतीय सहयोगी भी साम्राज्यवाद के गीत गाने वाला, उनकी संस्कृति से ओतप्रोत और उनकी ताल पर थिरकने वाला एक शिक्षित वर्ग पैदा कर रहे हैं, जिनको देश की नहीं बल्कि अपने मालिकों की चिन्ता हो।

लेकिन यहाँ आज के नवउदारवादी, निर्मंम और नृशंस पूँजीवादी दौर में शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन आया है, जिस पर ध्यान देना जरूरी है। पहले किसी भी दौर में सबके लिए समान और अनिवार्य शिक्षा भले ही न रही हो, लेकिन मूलत: यह मुनाफा कमाने का जरिया नहीं थी। यह शासक वर्ग की अपनी जरूरतों की पूर्ति का साधन थी और उस पर खर्च करना सरकार की जिम्मेदारी होती थी। लेकिन डब्ल्यूटीओ के अधीन नयी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की स्थापना के बाद से दुनिया भर में शिक्षा को व्यापार और मुनाफे का साधन बना दिया गया। यानी पूँजीवादी व्यवस्था के कलपुर्जे तैयार करने का खर्च भी जनता से ही वसूला जाने लगा। पहले महँगी शिक्षा पाने के लिए सरकार ने छात्रों–अभिभावकों को बैंक से कर्ज लेने के लिए मजबूर किया। अब नयी शिक्षा नीति के तहत न केवल छात्रों अभिभावकों को, बल्कि सरकारी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को भी अनुदान देने और बजट आवंटित करने की जगह अपना खर्च जुटाने के लिए बैंक से कर्ज लेने और भारी फीस लगाकर उसे चुकाने की नीति बनायी गयी है। कुल मिलाकर हमारे शासकों ने शिक्षा को खरीद–बिक्री करने और भरपूर मुनाफा कमाने का जरिया बना दिया तथा अपने पुरखों द्वारा निर्धारित शिक्षा के आदर्शों, उद्देश्यों और लक्ष्यों को कूड़े पर फेंक दिया।

शिक्षा नीति में किये गये सभी बदलावों पर विस्तार से चर्चा करना यहाँ स्थानाभाव के कारण सम्भव नहीं, लेकिन शिक्षा के सम्पूर्ण ढाँचे, उसकी संचालन प्रणाली, प्रशासनिक निकाय, विभिन्न स्तर की शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम और शैक्षणिक सत्र, परीक्षा और प्रमाण पत्र, फीस का निर्धारण, शैक्षिक संस्थानों का एकेडमिक बैंक क्रेडिट जैसी मान्यता, उच्च शिक्षा का निर्देशन और विनिमय करने वाले यूजीसी, एआईसीटीसी और अन्य सभी आयोगों की जगह सरकार के अधीन एकल निकाय बनाना, विशिष्ट शिक्षण संस्थानों, जैसे आईआईटी, आईआईएम, एम्स इत्यादि में कला, मानविकी सहित बहुविषयक शिक्षा को बढ़ावा, स्नातक पाठ्यक्रम में एक साल, दो साल या तीन साल पढ़ाई करके छोड़ने पर क्रमश: सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री देने की व्यवस्था जैसे तमाम प्रावधानों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये बदलाव खुद पूँजीवादी व्यवस्था के लिए कुशल संचालकों को तैयार करने के लिहाज से भी बेकार साबित होंगे। किसी ने सही कहा है कि अधिक मुनाफे की लिप्सा में पूँजीपति वर्ग आत्मघाती कदम उठाने से भी नहीं हिचकता और अधिकतम मुनाफे की हवस में अपनी ही व्यवस्था की जड़ खोदने पर आमादा हो जाता है।

नयी शिक्षा नीति में ऑनलाइन पढ़ाई को काफी तरजीह दिया गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि सरकार शिक्षा को लेकर कितनी गम्भीर है। लॉकडाउन और सामाजिक दूरी की विकट परिस्थिति में शिक्षा को जैसे–तैसे जारी रखने के लिए ऑनलाइन पढ़ाई का तात्कालिक विकल्प प्रस्तुत किया गया। यह कितना व्यवहारिक और सफल रहा है, इस पर कोई शोध अध्ययन अभी तक सामने नहीं आया, लेकिन अपने प्रत्यक्ष अनुभव से हम समझ सकते हैं कि यह कितना कारगर है। अधिकांश अभिभावक जिनमें कोरोना लॉकडाउन के चलते करोड़ों की संख्या में रोजी–रोजगार गवाँ चुके लोग भी शामिल हैं, जिनके बच्चों की पढ़ाई ही छूट गयी है, उनकी हैसियत अपने बच्चों को लैपटॉप या स्मार्ट फोन दिलाने की नहीं है। जिन थोड़े लोगों के पास ये साधन हैं भी, वहाँ नेटवर्क की समस्या है। छात्रों की तो बात ही क्या, दूर–दराज के इलाकों में शिक्षकों को भी खराब नेटवर्क की समस्या से जूझना पड़ रहा है। अगर सबकुछ चाक–चैबन्द हो, तो भी क्लास रूम में शिक्षक और छात्रों के बीच जो जीवन्त संवाद और प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है, ऑनलाइन पढ़ाई उसकी जगह नहीं ले सकती। कुल मिलाकर यह मजबूरी में अपनाया गया तात्कालिक उपाय “कुछ नहीं की जगह कुछ ही सही” से ज्यादा नहीं, उसे ही सरकार ने इस शिक्षा नीति में एक स्थायी वैकल्पिक प्रणाली के रूप में पेश किया है। नयी शिक्षा नीति के दस्तावेज में ऐप, ऑनलाइन मोड्यूल, सेटेलाइट टीवी चैनल, ऑनलाइन किताबें और टेक्नोलॉजी के जरिये पढ़ाई की बढ़–चढ़कर वकालत की गयी है। इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की पढ़ाई के लिए ओपन स्कूल का विकल्प रखा गया है। राजीव गाँधी की शिक्षा नीति में दूरस्थ शिक्षा या पत्राचार पाठ्यक्रम स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर विद्यार्थियों की भीड़ रोकने का एक जरिया था, जिसे इस नयी नीति में और नीचे की कक्षाओं तक में लागू कर दिया गया है। इसका सीधा अर्थ है, बहुसंख्य गरीब जनता की सन्तानों को औपचारिक स्कूली शिक्षा से बाहर धकेलना और उनको शिक्षित करने के नाम पर कागजी खानापूर्ति करना।

नयी शिक्षा नीति के इस मसौदे में बिड़ला–अम्बानी टास्क फोर्स द्वारा 2002 में प्रस्तुत रिपोर्ट “शिक्षा में पूँजी निवेश के लिए नीतिगत फ्रेमवर्क” की सिफारिशों को भी पूरी तरह समाहित किया गया है। गैट्स समझौता 2015 से तेरह साल पहले तैयार किये गये इस नीतिगत फ्रेमवर्क पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि शिक्षा को सेवाओं के व्यापार में शामिल करने पर साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपति ही नहीं, बल्कि उनके साथ साँठ–गाँठ करने वाले भारतीय शासक पूँजीपति भी कितने लालायित रहे हैं। इस रिपोर्ट में अम्बानी और बिड़ला ने बताया था कि शिक्षा एक लाभदायक बाजार है जिसपर निजी पूँजीपतियों का पूरी तरह नियन्त्रण होना चाहिए। उनका सुझाव था कि हम अपनी पुरानी सोच और इस “मानसिकता में बुनियादी बदलाव लाएँ” जिसके चलते हम “शिक्षा को सामाजिक विकास का अंग मानते रहे हैं।” वे इस बात से नाराज थे कि “भारत में शिक्षा के क्षेत्र पर सम्भवत: अन्य सभी क्षेत्रों से ज्यादा नियन्त्रण है। हर चीज कायदे–कानून से तय होती है, चाहे जगह का चुनाव हो या छात्रों की संख्या, पाठ्यक्रम की विषयवस्तु हो या फीस का ढाँचा, नियुक्तियाँ हो या शिक्षकों को मिलने वाले मुआवजे।” उनके मुताबिक यह नियन्त्रण “निजी पूँजी लगाने वालों के मार्ग में बाधा” उत्पन्न करेगा, इसलिए उन्होंने शिक्षण संस्थानों के “संचालन की स्वतंत्रता और नये–नये बदलाव लाने में लचीलापन” लाने की माँग की थी। इस रिपोर्ट में “विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण करने” और “सरकार की भूमिका केवल सुविधा प्रदान करने वाले सहायक” तक सीमित करने की सिफारिश की गयी थी। निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए निजी विश्वविद्यालय कानून बनाने की सलाह दी गयी थी। यह भी कहा गया था कि जिन पाठ्यक्रमों से भारी मुनाफा कमाने की सम्भावना हो, उन्हें निजी क्षेत्र को सौंपा जाये तथा जो विषय बाजार और मुनाफे के लिए बेकार हैं उनकी जिम्मेदारी सरकार खुद उठाये। इस रिपोर्ट को औपचारिक रूप से लागू किये बगैर ही सरकार इन सुझावों को मुस्तैदी से लागू करती रही। नयी शिक्षा नीति के दस्तावेज पर इस रिपोर्ट की स्पष्ट छाप है।

आजादी के बाद 1948 में गठित डॉ– एस राधाकृष्णन आयोग, 1952 में डॉ– अय्यर स्वामी मुदालियर आयोग, 1964 में डॉ– डी एस कोठारी आयोग और 1969 में गजेन्द्र गडकर आयोग देश के जानेमाने शिक्षाशास्त्रियों की अध्यक्षता में गठित की गयी थी। उसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में सीधे पूँजीपतियों की अगुआई में शिक्षा नीति से सम्बन्धित टास्क फोर्स का गठन इस देश की पूँजीवादी व्यवस्था के चरम संकट और उससे उत्पन्न चरम पतनशीलता का प्रमाण है। यह सही है कि आजादी के बाद गठित शिक्षा आयोगों की सिफारिशों के आधार पर तथा भारत की विराट और विविधतापूर्ण आबादी की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा व्यवस्था का पुनर्गठन नहीं किया गया, बल्कि शासक पूँजीपति वर्ग अपने क्षुद्र और तात्कालिक लाभ के हिसाब से ही शिक्षा नीतियों का निर्धारण करता रहा। यह भी सही है कि शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के बजाय धनी–गरीब के विभिन्न स्तरों के हिसाब से अच्छी–बुरी कई तरह की शिक्षा का संचालन किया जाता रहा। लेकिन इससे पहले किसी भी आयोग ने इतनी निर्ल्लजतापूर्वक आम जनता को शिक्षा से वंचित करके उसे निजी पूँजीपतियों के हवाले करने की सिफारिश नहीं की थी। यह नवउदारवादी दौर की विशिष्टता है जहाँ देशी–विदेशी पूँजीपति हर चीज को बिकाऊ माल में बदल कर उसे मुनाफे का साधन बना रहे हैं। यही उनकी आत्मा है, यही उनका दर्शन है।

पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रवर्तक और बाजारवाद के प्रबल समर्थक एडम स्मिथ अर्थव्यवस्था को पूरी तरह “बाजार के अदृश्य हाथों” में सौपने और अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में राज्य की न्यूनतम दखलअन्दाजी के हिमायती थे। लेकिन वे भी शिक्षा को “पब्लिक गुड” मानते हुए इसे राज्य की जिम्मेदारी के तहत मुक्त और सर्वसुलभ बनाने की वकालत करते थे। 1990 के बाद चलने वाली नवउदारवाद की आँधी में, जब समाज के रोम–रोम में पूँजी और मुनाफाखोरी का प्रवेश हो गया, तब इस नये धर्म के अनुयायियों ने शिक्षा को सार्वजनिक सेवा और राज्य की जिम्मेदारी मानने से इनकार कर दिया। हालाँकि आज भी गरीबों के बच्चों को पढ़ाने के काम में या घाटे वाले पाठ्यक्रम चलाने में राज्य की भूमिका से उन्हें कोई परहेज नहीं। जैसा कि बिड़ला–अम्बानी रिपोर्ट में सुझाया गया था–– जिस पाठ्यक्रम में मुनाफा हो, वे निजी पूँजीपति के हिस्से और जिनमें मुनाफे की गुंजाइश न हो वे सरकार के जिम्मे। नयी शिक्षा नीति का वैचारिक आधार नवउदारवाद यानी लुटेरे पूँजीवाद का यही नया आर्थिक दर्शन है।

पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा के अधिकार पर होने वाले हमलों के खिलाफ हैदराबाद विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू, एएमयू, जामिया विश्वविद्यालय सहित देश के तमाम शिक्षण संस्थाओं के छात्रों, शिक्षकों ने जुझारु संघर्ष चलाये। जाहिर है कि नयी शिक्षा नीति के जरिये शिक्षा से वंचित किये जाने की साजिशों के खिलाफ भी लोग चुप नहीं रहेंगे। शिक्षा का सवाल हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ियों की जिन्दगी से जुड़ा हुआ है। लेकिन शिक्षा के अधिकार पर होने वाले हर हमले और हर जनविरोधी नीति को, आम जनता को एक नयी गुलामी में जकड़ने वाली नीतियों से जोड़कर, उसकी गहराई में जाकर समझना जरूरी है। अलग–अलग मुद्दों पर स्थानीय और बिखरे–बिखरे आन्दोलनों को समन्वित करके, उन्हें एक देशव्यापी और निर्णायक आन्दोलन में बदल कर ही इन जनविरोधी और देशविरोधी नीतियों को पलटना सम्भव होगा।

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