संपादकीय: अक्टूबर 2019

पूँजी के हिमायती हैं नवउदारवादी दौर के मौजूदा शासक

उमा रमण ( संपादक ) 201

भाजपा महासचिव और आरएसएस के प्रचारक राम माधव ने ‘भारत कैसे हुआ मोदीमय’ पुस्तक के विमोचन के मौके पर कहा कि वैश्विक राजनीति में बदलाव का दौर चल रहा है क्योंकि यह “निर्णय लेने वाले नेतृत्व” का युग है, जिसमें लोगों की भलाई के लिए काम शुरू हो सका है और भारत में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यही हो रहा है। माधव ने कहा कि “भाजपा अब तक इतना निपुण हो चुकी है कि ‘वह बिना चुनाव लड़े ही सरकार बना सकती है।”

हालिया लोकसभा चुनावों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पूरा चुनाव मोदीजी के इर्द–गिर्द केन्द्रित था और वह देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। बिना किसी देश का नाम लिए माधव ने कहा कि ऐसे मामले भी देखने को मिले हैं, जहाँ कमजोर नेतृत्व के कारण कुछ महीने में सरकार गिर गयी।

उन्होंने कहा, “एक मजबूत नेतृत्व–– निर्णय लेने वाले नेतृत्व, जो किसी देश के लोग महसूस करते हैं कि वे उनके लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं, इस तरह के नेतृत्व के दौर की शुरुआत हो गयी है और लोकतांत्रिक देश बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। भारत में भी ऐसे बदलाव हो रहे हैं। मोदीजी आज इसी तरह के एक नेता के तौर पर उभरे हैं।”

विपक्ष पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि जब “वे अब बखूबी कल्पना कर सकते हैं कि वे कब सत्ता में आएँगे।”

उन्होंने कहा कि भाजपा का यह सौभाग्य है कि उसके पास ऐसा नेतृत्व है, जिसकी प्रवृत्ति वैश्विक राजनीति में शुरू हो चुकी है। साथ ही, पार्टी का नेतृत्व अमित शाह कर रहे हैं, जो हमेशा पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए तैयार रखते हैं।

राम माधव के इस वक्तव्य को अगर भाजपा नेताओं द्वारा समय–समय पर दिये जाने वाले अर्थपूर्ण बयानों, जैसे–– ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’, ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’, ‘एक राष्ट्र, एक टैक्स’। ‘एक राष्ट्र, एक कानून’, ‘बहुदलीय प्रणाली गलत है’ तथा बात–बात पर नेहरू की भर्त्सना और भाजपा सरकार द्वारा धड़ाधड़ कानूनों में बदलाव और कश्मीर को दो टुकड़े करके, उसे एक भारतीय राज्य के रूप में भारत के नक्शे से गायब करके केन्द्र शासित राज्य में तब्दील करने जैसे अलोकतांत्रिक और अधिनायकवादी फैसलों से जोड़ कर पढ़ा जाये तो इस बयान का असली मंतव्य प्रकट हो जायेगा।

दरअसल राम माधव ने जो बातें भाजपा की प्रशंसा में कही हैं और जिनमें सच्चाई भी है, उनमें यह निहित है कि भाजपा भारत के शासक वर्ग की सभी पार्टियों में नवउदारवाद की माँग–पूर्ति नियम के सबसे ज्यादा अनुरूप है और कॉर्पोरेट जगत के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा का जो त्वरित उत्थान हुआ है उसके पीछे मौजूदा दौर की साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी द्वारा उसे भरपूर स्वीकृति और समर्थन मिलना एक बहुत बड़ा कारक है।

लेकिन भाजपा को फर्श से अर्श तक पहुँचानेवाला यह विश्वव्यापी नवउदारवाद आखिर है क्या?

आज लगभग पूरी दुनिया पर अमरीकी चैधराहट वाले विश्व पूँजीवाद का वर्चस्व कायम है और दुनिया के अधिकांश देशों की राजसत्ताएँ खुलेआम विश्व पूँजीवाद के लूट–खसोट को आसान बना रही हैं। साम्राज्यवादी पूँजी लोकतंत्र नहीं वर्चस्व चाहती है। आज जब उसने पूरी दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है, तो उसके हित में काम करनेवाली राजसत्ताएँ भी लगातार अपने आप को अधिनायकवादी रंग में रंगती जा रही हैं। मजबूत नेतृत्व और जनविरोधी, अधिनायकवादी सत्ताधारी ही इस दौर में पूँजीवादी लूटतंत्र को निर्बाध रूप से जारी रख सकते हैं।

वैसे तो नवउदारवाद की परिघटना अमरीका ओर ब्रिटेन में अस्सी के दशक से ही रीगन और थ्रेचर की नीतियों के रूप में शुरू हो चुकी थी, जब सामाजिक कल्याण पर सरकारी खर्च में कटौती की गयी और उनको निजी मुनाफाखोरों के हवाले कर दिया गया, लेकिन 1990 के आसपास दुनिया भर में एक ध्रुवीय विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की स्थापना के बाद इसे दुनिया के तमाम देशों में तेजी से आगे बढ़ाया गया। विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और आगे चलकर विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं ने इस काम को योजनाबद्ध तरीके से सम्पन्न किया। भारत जैसे नवस्वाधीन देशों ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कि अनुकूल परिस्थितियों में अपनी अर्थव्यवस्थाओं को साम्राज्यवादी पूँजी के हमले से बचाने के लिए संरक्षणवादी नीतियाँ लागू की थीं और आत्मनिर्भर विकास का रास्ता अपनाया था। लेकिन इन शासक वर्गों को नयी विश्व परिस्थितियों में साम्राज्यवादी पूँजी के साथ नत्थी होने में ही अपना लाभ दिखायी दिया। उन्होंने ‘वाशिंगटन आम सहमति’ के तहत नवउदारवादी नीतियों को स्वीकार किया। जिन देशों के शासकों ने इन नीतियों को अपनाने में आनाकानी की, उनके साथ अमरीकी चैधराहट में साम्राज्यवादी शक्तियों ने धौंस–पट्टी, प्रतिबन्ध और सामरिक हमले तक का निशाना बनाया। कल्याणकारी योजनाओं, विदेशी पूँजी पर लगाये गये प्रतिबन्धों और सार्वजानिक क्षेत्र के उद्यमों को एक–एक कर ध्वस्त किया गया और इसे एक सुन्दर–सलोना नाम दिया गया–– ढाँचागत समायोजन।

अर्थव्यवस्था का यह पुनर्गठन राजसत्ता को पूँजी और बाजार के अधीन किये बिना सम्भव नहीं था। राजसत्ता की भूमिका पहले पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की हिफाजत के साथ–साथ सामाजिक संरचना की हिफाजत और उसका संचालन करना भी था। लेकिन नवउदारवादी दौर में यह पूरी तरह पूँजी, मुनाफे की हिफाजत में लग गयी। सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी भी इसने बाजार और मुनाफे के हवाले कर दिया। पूँजीवादी प्रणाली पर नियंत्रण करने के बजाय अब राजसत्ता खुद ही पूँजी के अधीन और पूँजी द्वारा नियंत्रित–संचालित है और उसी के स्वार्थों के अनुरूप पूरे आर्थिक सामाजिक ढाँचे को ढालने का काम कर रही है।

हमारे यहाँ शासक वर्ग की प्रमुख पार्टियाँ खास तौर पर भाजपा इस बात को खुलकर स्वीकार करती है कि गवर्मेन्ट का काम सिर्फ गवर्नेंस है, शासन करना बाजार व्यवस्था यानी पूँजीपति घरानों या कॉर्पोरेट का काम है। इसके तहत सरकार दो तरह की जिम्मेदारी निभा रही है, पहला , पूँजी के फैसिलिटेटर की भूमिका में अधिकाधिक अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार करना, जैसे–– पुराने श्रम कानूनों में बदलाव करके उसे कमजोर करना, पर्यावरण सम्बन्धी बाधाओं को हटाना, जंगलों की कटाई, खनन क्षेत्र का अन्धाधुन्ध पट्टे देना, टैक्स में भारी छूट, आसान शर्तों पर कर्ज, इत्यादि,  और दूसरा, अब तक जिन सामाजिक सेवाओं को सरकार की जिम्मेदारी माना जाता था, जैसे–– स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, सिंचाई, बिजली, जलापूर्ति, इत्यादि, उनसे पिण्ड छुड़ाकर उनका निजीकरण करना और उन्हें पूँजीपतियों के मुनाफे का जरिया बनाना। मोदी के “मिनिमम गवर्मेन्ट, मैक्सिमम गवर्नेन्स” नारे का यही अभिप्राय है।

मजबूत नेतृत्व और अपार बहुमत की सरकार फैसिलिटेटर की भूमिका में है और जहाँ से भी मुनाफा मिल सकता है, वहाँ पूँजी की पैठ बढ़ा रही है। रेलवे के एकमुश्त खरीदार नहीं, तो टुकड़े–टुकड़े में, अलग–अलग स्टेशन, अलग–अलग ट्रेन बेचे जा रहे हैं। सरकार ने अवरचनागत ढाँचा खड़ा किया और उनको निजी पूँजीपतियों को सौंप दिया, जैसे–– दूरसंचार, सेटेलाइट, एरोड्रम, टोल प्लाजा, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, शोध संस्थान, तेल के कुएँ, नदी, जंगल, खदान, जमीन, सार्वजनिक उपक्रम, सरकारी बैंक–बीमा सब कौड़ियों के मोल देशी–विदेशी पूँजी के हवाले किया जा रहा है। आन्तरिक सुरक्षा तंत्र का बहुत बड़ा हिस्सा निजी सेक्युरिटी कम्पनियों के हाथ में है। अब तो अमरीका की तरह सिर्फ जेलों का निजीकरण ही बाकी है।  

चुनाव में पार्टियों को मिलनेवाले कॉर्पोरेट चन्दे से लेकर खरीद–फरोख्त के जरिये सरकार बनाने तक, आज पूँजी का जितना खुला हस्तक्षेप देखने को मिल रहा है, अब से तीस साल पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा। मोदी सरकार ने चुनाव में पार्टियों को मिलनेवाले कॉर्पोरेट चन्दे को कानूनी जामा पहना दिया, साथ ही अब चन्दे का स्रोत बताना भी पार्टियों के लिए अनिवार्य नहीं रह गया है। चन्दा देना आसान बनाने के लिए इलेक्टोरल बॉण्ड भी जारी किया गया जिसके तहत चन्दा देनेवालों की जानकारी गुप्त रखी जाती है। एडीआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2016–17 और 2017–18 में 6 राष्ट्रीय पार्टियों को कुल 1059–25 करोड़ का चन्दा मिला जिसमें से 93 प्रतिशत सिर्फ कॉर्पोरेट या बिजनेस घरानों से मिला। इसमें सबसे अधिक भाजपा को 915–59 करोड़ मिला, जबकि कांग्रेस पार्टी को मात्र 55–36 करोड़ मिला। भाजपा को मिले चन्दे में से 98 प्रतिशत बेनामी है। इलेक्टोरल बॉण्ड के कुल चन्दे का 75 प्रतिशत अकेले भाजपा को मिला और उसकी आमदनी में 81 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

कॉर्पोरेट या बिजनेस घरानों से मिलनेवाला यह भारी–भरकम चन्दा ही मजबूत नेतृव गढ़ने और भारत को मोदीमय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रहा है, इसी विपुल धन वर्षा के दम पर ही राम माधव के शब्दों में ‘भाजपा अब तक इतना निपुण हो चुकी है’ कि ‘वह बिना चुनाव लड़े ही सरकार बना सकती है।’ इसी के साथ–साथ संसद और विधान सभाओं में करोड़पतियों की प्रत्यक्ष भागीदारी भी पिछले सभी रिकार्ड तोड़ चुकी है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक नयी लोकसभा के 542 सांसदों में से 475 सदस्य करोड़पति हैं, यानी देश के कुल 2–64 लाख करोड़पति जो कुल आबादी के 0–02 प्रतिशत हैं उनका संसद में 88 प्रतिशत सीटों पर कब्जा है। और वे ही देश की शेष 99–08 प्रतिशत आबादी के भाग्यविधाता हैं। सवाल यहीं तक सीमित नहीं रह गया है कि जिसका खायेंगे, उसका गायेंगे। अब तो नेताओं को खिला–पिलाकर गवाने वाले मुट्ठीभर धनाढ्य लोग खुद ही उनकी गायन मंडली में शामिल हैं। ऐसे में नवउदारवादी नीतियों का विरोध भला कौन करेगा।

राजनीति में धनबल और बहुबल के चरम घुसपैठ ने लोकतंत्र को एक तमाशा बना दिया है। चुनाव को एक तमाशा बना दिया गया, जिसमें पैसे के दम पर शोर–शराबा, रोड शो, भीड़ जुटाकर रैली–सभा, वोट बटोरने के लिए हर तरह का तिकड़म किया जाना आम बात है। संविधान में दर्ज धर्मनिरपेक्षता को ताक पर रख कर जाति–धर्म–क्षेत्र–भाषा के बटवारे का खुलेआम इस्तेमाल होता है। जनभागीदारी सिर्फ किसी एक निशान का बटन दबाने तक सीमित है। संसदीय लोकतंत्र को बरकरार रखना और एन–केन–प्रकारेण बहुमत की सरकार बनाना नवउदारवाद के लिए फायदेमन्द है, क्योंकि इससे जनता के बीच सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों को स्वीकार्य बनाने में सहायता मिलती है। लोकप्रिय नेता और मजबूत सरकार ही जनता को भरमाने और गरल को अमृत कहकर पिलाने का काम बखूबी कर सकती है। प्रत्यक्ष तानाशाही के अधीन पूँजी की निर्मम लूट को जनता बर्दाश्त नहीं कर सकती। इस काम को देशहित, जनहित और विकास के नाम पर उनके ऊपर थोपने में शासक वर्ग की जो पार्टी सबसे शातिर, प्रपंची और तिकड़मबाज होती है, उसे ही पूँजी का वरदहस्त प्राप्त होता है।

राजसत्ता जनता के बीच पूँजीपरस्त नीतियों को किस तरह छल–प्रपंच करके स्वीकार्य बनाती है उसका एक उदहारण नोटबन्दी है। इसे लागू करते हुए मोदी ने कहा था कि इससे आतंकवाद और काला धन दूर होगा, जबकि विश्व बैंक की इस योजना का असली मकसद बड़ी पूँजी के हित में कैशलेस लेनदेन, ई–कॉमर्स, इन्टरनेट बैंकिंग और पेटीएम को बढ़ावा देना था। काला धन और आतंकवाद का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन इसने छोटे व मध्यम उद्योगों और कारोबारियों की कमर तोड़ दी। लाखों की संख्या में उद्योग–धन्धे चैपट हुए और उनमें काम करनेवाले असंख्य मजदूरों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। विपक्ष में होते भाजपा ने जिस जीएसटी को टैक्स टेररिज्म कहा था उसे “एक राष्ट्र, एक टैक्स” के नाम पर लागू किया, जिसकी असलियत सबको पता है। प्रधानमंत्री के नाम पर बीमा योजना और पेंसन योजना चलाया जाना और बीमा कम्पनियों के कारोबार को बढ़ाना भी इस बात की मिसाल है कि राजसत्ता किस तरह पूँजीपरस्त नीतियों को जनता के गले उतारती है।

नवउदारवाद असाध्य और चिरन्तन संकट से ग्रस्त विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के मौजूदा दौर की विश्वव्यापी रणनीति है। यह पुराने उदारवाद का पुनरुत्थान नहीं, बल्कि उसका सबसे बीभत्स और भयावह रूप है। उदारवाद पूँजीवादी क्रान्तियों और आधुनिकता की विचारधारा के रूप में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के नारे के साथ प्रकट हुआ था। हालाँकि व्यवहार में यह नारा कहीं भी फलीभूत नहीं हुआ, लेकिन सिद्धान्त रूप में राजसत्ता इन मूल्यों से इनकार नहीं करती थी। नवउदारवादी दौर में स्वतन्त्रता सिर्फ पूँजी और बाजार की स्वतन्त्रता तक सीमित है। समानता की जगह विकराल असमानता ने ले ली, जिसका नतीजा है विभिन्न देशों के बीच और एक ही देश के भीतर विभिन्न वर्गों–तबकों की आय के बीच दिनोंदिन चैड़ी होती खाई। जहाँ तक भाईचारे का सवाल है, यह विभिन्न देशों के पूँजीपतियों और उनके पिछलग्गुओं के बीच सिमट कर रह गया है, जबकि मेहनतकश मजदूरों, किसानों के साथ शासक वर्गों का शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध अपने चरम पर है। नवउदारवादी शासक विदेशी पूँजी के लिए कटोरा लेकर विश्व भ्रमण करते हैं, उनके लिए तोरण द्वार सजाते हैं, देशी–विदेशी पूँजीपतियों के गँठजोड़ के लिए मुनाफे की गारन्टी करते हैं, लेकिन अपने देश की बहुसंख्य मेहनतकश जनता को सिर्फ उस मुनाफे का जरिया मानते हैं, उनके खिलाफ नये–नये काले कानून बनाते हैं और उनका निर्मम शोषण और दमन–उत्पीड़न करते हैं। राजसत्ता जनता से छीन कर पूँजीपतियों की तिजोरी भरती है। जनता के लिए सब्सिडी लेना हरामखोरी है, जबकि पूँजीपति को हर तरह की रियायत और छूट देना उसका हक है। मोदी के शब्दों में वे सम्पत्ति के सृजक हैं, उनका सम्मान होना चाहिए।

नवउदारवाद शासन करने की क्रूरतम प्रणाली है। इसने मुट्ठीभर लोगों के लिए स्वर्ग का निर्माण किया है, जबकि बहुसंख्य आबादी को एक ऐसे नरक में धकेल दिया है जहाँ उसे जिन्दगी की बुनियादी जरूरतें भी मयस्सर नहीं। इसने खुद पूँजी के असमाधेय और चिरन्तन संकट को गहराया है, पर्यावरण और धरती को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। मुक्तिबोध के शब्दों में “तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ, तेरा ध्वंश केवल एक तेरा अर्थ।”

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