संपादकीय: फरवरी 2017

महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति के सौ वर्ष : एक नये युग की शुरुआत

उमा रमण ( संपादक ) 202

वर्ष 2017 महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति का शताब्दी वर्ष है। दुनियाभर में मेहनतकश वर्गों के संगठन तथा न्याय और समता पर आधारित समाज का सपना देखने और उसे जमीन पर उतारने के लिए प्रयासरत लोग इस सौवीं वर्षगाँठ को अपने–अपने तरीके से याद कर रहे हैं।

1917 की बोल्शेविक क्रान्ति ने पूरी दुनिया में क्रान्तिकारी बदलाव के एक नये दौर का उद्घोष किया। इसने एक ऐसी दुनिया के सपने को साकार किया था जिसमें शहीद भगत सिंह के शब्दों में “एक वर्ग दूसरे वर्ग का और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का शोषण–उत्पीड़न न कर सके।” जहाँ न्याय और समता केवल सुहावने शब्द भर नहीं बल्कि जमीनी हकीकत हो।

1917 की रूसी क्रान्ति कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह मजबूत वैचारिक आधार पर संगठित एक योजनाबद्ध कार्रवाई थी। यह एक लम्बे वैचारिक तैयारी की परिणति थी जिसकी शुरुआत रूसी क्रान्ति के 70 साल पहले 1848 में मार्क्स–एंगेल्स द्वारा ‘‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणपत्र’’ के प्रकाशन के साथ हुई थी, इसके बाद से ही वैज्ञानिक समाजवाद की वैचारिक बुनियाद वाद–विवाद–संवाद के जरिये लगातार मजबूत होती गयी। मार्क्स–एंगेल्स ने जीवन भर मजदूर वर्ग के भीतर उठने वाले नाना प्रकार के अवसरवाद और वैचारिक भटकाव से संघर्ष किया और मार्क्सवाद के आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक, सांस्कृतिक और सौन्दर्यात्मक पहलू को पूर्णता तक पहुँचाया। साथ ही यूरोप के विभिन्न देशों में चल रहे मजदूर आन्दोलनों को वैचारिक–राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया और उनका समाहार करते हुए सर्वहारा विचारधारा को समृद्ध किया। 1871 के पेरिस कम्यून की स्थापना करने वाले कम्युनार्डों के शौर्यपूर्ण संघर्ष का वैचारिक आधार वैज्ञानिक समाजवाद ही था जिन्होंने 72 दिनों तक पेरिस में मजदूर वर्ग की सत्ता कायम की। यूरोप की प्रतिक्रियावादी ताकतों के सामूहिक हमले ने पेरिस कम्यून को खून में डुबो दिया लेकिन उस वीरगाथा के बलिदानी अनुभवों का निचोड़ निकाल कर मार्क्स ने वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्हीं सिद्धान्तों को उच्चतर धरातल पर अमल में लाते हुए अक्टूबर क्रान्ति सम्पन्न हुई और उसके बाद उन विचारों को ठोस रूप दिया गया। पेरिस कम्यून का अनुभव यही था कि सर्वहारा वर्ग राज्य की पुरानी मशीनरी को बनाये रखते हुए समाजवाद का निर्माण नहीं कर सकता। इसी सन्दर्भ में, दूसरे इन्टरनेशनल के नेता काउत्सकी ने प्रथम विश्व युद्ध के ठीक पहले साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादी युद्ध के बारे में जो विभ्रम फैलाया था, उसे भी रेखाकिंत करना जरूरी है। काउत्सकी ने लूट–खसोट के लिए साम्राज्यवादी देशों द्वारा की जा रही युद्ध की तैयारियों को सर्वहारा के हित में बताते हुए मजदूर वर्ग से अपने–अपने देशों के पूँजीपति वर्ग का साथ देने की सिफारिश की। लेनिन ने सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद को अंधराष्ट्रवाद में बदलने के इस कुत्सित प्रयास का पर्दाफाश किया और दूसरे इन्टरनेशनल के गद्दार नेताओं को अलग–थलग कर विश्व सर्वहारा का वैचारिक नेतृत्व किया। निश्चय ही, 1917 की फरवरी क्रान्ति और अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की सफलता के पीछे दूसरे इन्टरनेशनल के पथभ्रष्ट नेताओं के खिलाफ लेनिन के नेतृत्व में चलाये गये वैचारिक संघर्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

1917 की दो क्रान्तियों में हुआ क्या था? पहली क्रान्ति जो फरवरी में सम्पन्न हुई, उसमें व्यापक मेहनतकश जनता ने जार की तानाशाही को उखाड़ फेंका। चूँकि रूस में सामन्ती शासन था, इसलिए इस क्रान्ति का स्वरूप जनवादी क्रान्ति था। क्रान्ति के बाद मजदूर वर्ग ने सत्ता पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों और अभिजात्य वर्ग को सौंप दी। लेकिन पूँजीपति वर्ग ने जनवादी क्रान्ति के किसी भी कार्यभार को पूरा नहीं किया। आमूल भूमि सुधार नहीं किया गया, जारशाही द्वारा शुरू किये गये विश्व युद्ध का परित्याग नहीं किया गया, आठ घंटे का कार्यदिवस लागू नहीं हुआ और मजदूरों के जनवादी अधिकारों की गारंटी नहीं की गयी। इतना ही फर्क पड़ा कि एक सम्पत्तिशाली वर्ग (सामन्त) की जगह दूसरे सम्पत्तिशाली वर्ग (पूँजीपति) का सत्ता पर कब्जा हो गया। मजदूर, किसान और सैनिक उन नये जारों के क्रान्ति विरोधी छल–प्रपंचों को समझने लगे और उन्होंने उसके खिलाफ राजनीतिक संघर्ष तेज कर दिया। उन्होंने माँग की कि फरवरी क्रान्ति के दौरान चुने गये मजदूरों–सैनिकों की सोवियतों को सत्ता सौंप दी जाये। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने दूसरी क्रान्ति, समाजवादी क्रान्ति का नारा दिया, जो काफी जद्दोजहद के बाद अक्टूबर में सफल हुआ।

समाजवादी क्रान्ति जितनी आसानी से सम्पन्न हुई, उसे टिकाये रखने में उतनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। देश के भीतर मजदूर वर्ग ने सम्पत्ति का हरण करने वाले जिन वर्गों को सम्पत्ति से बेदखल किया था, वे अपना खोया हुआ स्वर्ग दुबारा हासिल करने के लिए लगातार हाथ–पाँव मारते रहे। इसलिए नयी सोवियत सत्ता को चार वर्षों तक रक्तरंजित गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा। अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस की सेनाएँ रूसी प्रतिक्रियावादियों को दो वर्षों तक सैनिक साजो– सामान मुहय्या करती रही। इसके आलावा, इक्कीस साम्राज्यवादी देशों की घेराबन्दी और प्रतिबन्ध का सामना करना भी आसान नहीं था, क्योंकि रूस की उत्पादक शक्तियाँ यूरोप के दूसरे देशों की तुलना में पिछड़ी हुई थीं। इन दबावों के चलते सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधियों का आर्थिक आधार और अधिरचना दोनों ही स्तर पर कई समझौते करने पड़े। नयी आर्थिक नीति के तहत निजी पूँजी को ढेर सारी रिआयतें देनी पड़ी और प्रतिक्रान्तिकारियों को नियंत्रित करने के लिए नागरिक अधिकारों में कटौती और राजनीतिक दमन का सहारा लेना पड़ा। यह कोई आदर्श स्थिति नहीं थी, बल्कि क्रान्ति के भीतरी और बाहरी दुश्मनों को परास्त करने के लिए यह सब अपरिहार्य था।

तमाम कठिनाइयों के बावजूद सोवियत सत्ता कायम रही। इसने यह साबित कर दिया कि सामन्ती जमींदारों, पूँजीपतियों और सूदखोरों के बिना भी समाज का संचालन कहीं बेहतर ढंग से किया जा सकता है। मजदूरों–किसानों की सोवियत राजसत्ता का चरित्र कैसा था, इसके बारे में लेनिन ने कहा था–

‘‘–––रूस में नौकरशाहाना मशीनरी को चकनाचूर कर दिया गया, उसे मिट्टी में मिला दिया गया, पुराने मुंसिफों को बोरिया–बिस्तरा बाँधकर चलता कर दिया गया, पूँजीवादी संसद को भंग कर दिया गया और मजदूरों–किसानों को कहीं ज्यादा सुलभ नुमाइन्दगी मुहैय्या की गयी, उनकी सोवियतों (पंचायतों) ने नौकरशाही की जगह ले ली या नौकरशाही को काबू में रखने के लिए सोवियतों को तैनात कर दिया गया और उनकी सोवियतों को मुंसिफ चुनने का अख्तियार दे दिया गया। अकेली यही हकीकत सभी मजलूम तबकों के लिए यह मानने की वजह है कि सोवियत सत्ता, यानी सर्वहारा की तानाशाही का मौजूदा रूप बढ़िया से बढ़िया लोकतांत्रिक पूँजीवादी गणतंत्र से लाख गुना ज्यादा लोकतांत्रिक है।’’ (सर्वहारा की तानाशाही और गद्दार काउत्सकी)

क्रान्ति के बाद अर्थव्यवस्था को नये आधारों पर ढाला गया, बाजार की अन्धी ताकतों और मुनाफाखोरी की जगह योजनाबद्ध विकास की शुरुआत हुई, जिसमें उत्पादन का मकसद मुट्ठीभर लोगों का मुनाफा नहीं, बल्कि जन–जन की जरूरतें पूरी करना हो। सदियों से ठहरावग्रस्त रूसी अर्थव्यवस्था पहले लेनिन और उनकी मृत्यु के बाद स्तालिन की अगुआई में छलांग लगाकर आगे बढ़ी। जिस समय पूरी दुनिया मन्दी में गोते लगा रही थी उसी समय रूस की आर्थिक विकास दर 35 फीसदी तक पहुँच गयी थी। अशिक्षा, बीमारी, नशाखोरी, वैश्यावृत्ति और अपराध का खात्मा हो गया। आर्थिक जीवन में ही नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक जीवन में भी सर्वोच्च मानव मूल्यों का बीजारोपण हुआ। यूरोप का सबसे अभागा और पिछड़ा देश रूस कुछ ही वर्षों में अगली कतारों में आ खड़ा हुआ। सोवियत रूस के कारनामों को रविन्द्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरु सहित दुनिया की जानीमानी हस्तियों ने प्रशंसा की थी।

अक्टूबर क्रान्ति की मशाल ने सिर्फ रूस को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को मुक्ति का संदेश दिया। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय शोषण–उत्पीड़न से मुक्ति का सन्देश दुनिया के कोने–कोने तक पहुँच गया। रूसी मजदूरों–किसानों का सपना दुनिया की कोटि–कोटि जनता की आँखों में समा गया। अगले कुछ ही वर्षों में दुनिया के हर देश में, यहाँ तक कि उपनिवेशिक गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत जैसे देशों में भी मजदूर वर्ग की पार्टी की बुनियाद रखी जाने लगी।

जिस समय सोवियत रूस जीवन के हर क्षेत्र में नये–नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा था और पूरी दुनिया की मुक्तिकामी जनता को नैतिक–भौतिक प्रोत्साहन दे रहा था, उसी समय साम्राज्यवादी देशों के बीच दुनिया के बाजारों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे और पुनर्बंटवारे के लिए दूसरा महायुद्ध छिड़ गया। हिटलर के फासीवादी मनसूबों का असली निशाना सोवियत संघ ही था। युद्ध के चलते समाजवादी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान उठाना पड़ा, फिर भी सोवियत प्रणाली कायम रही। लाल सेना ने हिटलर की 254 डिविजनों में से 200 डिविजनों का मुकाबला किया, फासीवाद को धूल चटायी, हिटलर को आत्महत्या करने पर मजबूर किया और पूर्वी यूरोप के देशों को मुक्त कराया। इस लड़ाई में रूस की 2 करोड़ जनता ने बलिदान दिया, लेकिन युद्ध की समाप्ति तक समाजवाद केवल रूस तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि आधी धरती लाल हो गयी।

इन उपलब्धियों और कीर्तिमानों के बीच एक ऐसी दुखद घटना हुई जिसने दुनिया के पहले समाजवादी देश की दिशा बदल दी। जिस समय रूस अन्तरिक्ष में स्पूतनिक भेजने की स्थिति में पहुँच गया, उसी समय खु्रश्चेव ने समाजवाद का झण्डा धूल में फेंक दिया। 1956 में स्तालिन की मृत्यु के बाद सत्ता में आते ही खु्रश्चेव ने तीन वर्षों तक अपनी संशोधनवादी नीतियों को लागू किया और पूँजीवादी पुनर्स्थापना का प्रयास किया, फिर 1956 की 20वीं पार्टी कांग्रेस में उसने स्तालिन के खिलाफ कुत्सित इल्जाम लगाये, समाजवाद की उपलब्धियों पर कीचड़ उछाला तथा तीन शान्ति का सिद्धान्त– शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का भ्रामक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उसने समाजवादी अर्थव्यवस्था की जगह पर राजकीय इजारेदार पूँजीवाद की नींव रखी तथा सभी वर्गों की पार्टी और सभी वर्गों की राजसत्ता की आड़ में सोवियत व्यवस्था की जगह निरंकुश नौकरशाही राजसत्ता को मजबूत बनाया। देर से ही सही, माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1963 में इन पूँजीवादी पथगामियों का भंडाफोड़ किया। महान बहस के दौरान खु्रश्चेवी संशोधनवाद का खण्डन किया और 1966 में ‘‘सौ फूलों को खिलने दो, हजार विचारों को आगे आने दो’’ के नारे के साथ महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शुरुआत की। उन्होंने सोवियत समाज की भूलों–गलतियों का सार–संकलन किया और सोवियत समाज में विशेष रूप से अधिरचना के क्षेत्र में निरन्तर क्रान्तिकारी रूपान्तरण और वर्ग संघर्ष के संचालन का सिद्धान्त विकसित किया। निश्चय ही खु्रश्चेवी संशोधनवाद और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के पीछे वस्तुगत सीमाओं के साथ–साथ मनोगत गलतियों और नेतृत्व की भूलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इनमें से अधिकांश भूलों–गलतियों को माओ के नेतृत्व में चीन की तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी ने चिन्हित किया और उनसे बचने के उपाय भी निकाले। यहाँ इस छोटे से लेख में इस बारे में विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं, लेकिन यह एक जरूरी विषय है जिसको समझकर ही भावी क्रान्तियों का मार्ग प्रशस्त होगा। यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि रूस में वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के आधार पर, मार्क्स और लेनिन के विचारों के आधार पर किये गये समाजवादी प्रयोग का असफल होना विचारधारा की असफलता नहीं थी। वैज्ञानिक प्रयोगों की निरन्तर असफलता के जरिये ही विज्ञान समृद्ध और परिपूर्ण होता है। यही मार्क्सवाद के साथ भी हुआ।

1990 के आसपास सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप का विघटन सही मायने में समाजवाद का नहीं, बल्कि खु्रश्चेव काल से चले आ रहे राजकीय इजारेदार पूँजीवाद और समाजवाद के खोल में छिपी पूँजीवादी तानाशाही का पतन था। दुनियाभर के पूँजीवादी बुद्धिजीवी और उनके सिद्धान्तकार इस बात से भलीभाँति परिचित थे। लेकिन उन्होंने समाजवाद पर कीचड़ उछालने के लिए उस नकली समाजवाद की मौत का जश्न मनाया, ‘‘इतिहास का अन्त’’ और ‘‘पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं’’ जैसे नारे उछाले, लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी उन्हें समाजवादी क्रान्ति का भूत सता रहा है। 1990 के बाद अमरीकी चैधराहट में विश्व पूँजीवाद के गलियारे से जिस ‘‘अमरीकी शताब्दी’’, ‘‘एक धु्रवीय विश्व’’, ‘‘नयी विश्व व्यवस्था’’ और ढाँचागत समायोजन तथा वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण का शंख फूँका गया था उसकी आवाज जल्दी ही गायब हो गयी। हाँ, इतना जरूर हुआ कि साम्राज्यवादी खेमा बेलगाम हो गया। दुनिया भर में प्राकृतिक संसाधनों की लूट, विश्व व्यवस्था के विरोधी देशों की घेराबन्दी, उन देशों पर एक तरफा हमला और बमबारी लाखों लोगों का कत्लेआम, दुनिया भर में अमीरी–गरीबी के बीच बढ़ती खाई, लोकतांत्रित मूल्यों, संस्थाओं का तेजी से क्षरण दुनिया भर में आर्थिक संकटों का अटूट सिलसिला, भुखमरी, बेरोजगारी, कलग–विग्रह। जो दुर्दशा पहले पूँजीवादी देशों तक सीमित थी आज वह पूरी धरती पर पसर चुकी है। सांस्कृतिक पतन और पर्यावरण का विनाश अपने चरम पर है।

साम्राज्यवाद की इन तबाहियों के मद्देनजर पूँजीवादी विद्वानों का सुर भी बदलने लगा। दुनिया भर में पूँजीवाद के विकल्प की तलाश और उसके लिए जुझारु संघर्ष शुरू हो गये। ‘‘इतिहास का अन्त’’ के उद्घोेषक फ्रांसिक फूकोयामा ने हाल ही में अमरीका को ‘‘असफल राज्य’’ बताया है।

इकोनोमिस्ट पत्रिका के टीकाकार एड्रियन बुल्डिज फुकोयामा से चार कदम आगे जाकर चेतावनी देते हैं– “बोल्शेविक लौट आये हैं। जिस दुनिया ने रूसी क्रान्ति को जन्म दिया था, उससे मिलता–जुलता समय इतना करीब है कि हम चैन से नहीं रह सकते। यह दुखदायी शताब्दियों का दौर है। पहला 1914, जब पहले महायुद्ध की शुरुआत हुई थी, जिसने उदारवादी व्यवस्था को नष्ट कर दिया था। फिर, 1916 जर्मनों के खिलाफ ब्रिटेन और फ्रांस का सोम्मे की लड़ाई, जो सैनिक इतिहास का सबसे रक्तरंजित युद्ध था। 2017 में लेनिन द्वारा रूसी सत्ता पर कब्जा किये जाने की सौंवी सालगिरह होगी।’’

आज जब हम 1917 की अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति को याद कर रहे हैं, तब पूरी दुनिया में क्रान्ति की वस्तुगत परिस्थितियाँ पूरी तरह तैयार हैं। पूँजीवाद–साम्राज्यवाद का आवर्र्ती संकट आज अन्तहीन, चिरन्तन मरणान्तक संकट का रूप धारण कर चुका है। विश्व जनगण को देने के लिए उसकी झोली में कुछ भी सकारात्मक नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि क्रान्ति की मनोगत शक्तियाँ उतनी ही बिखरी हुई, विभ्रमग्रस्त और कमजोर हैं। आज विश्व सर्वहारा की कोई जीती हुई चैकी नहीं, समाजवाद का कोई मॉडल नहीं, कोई सर्वमान्य नेतृत्व या अन्तरराष्ट्रीय केन्द्र नहीं। लेकिन यदि 1917 के पहले की स्थितियों से तुलना करें तो आज पूरी दुनिया में उत्पादक शक्तियों का विकास उस मुकाम तक पहुँच गया है कि वस्तुगत रूप से समाजवादी क्रान्ति को टिकाये रखना आज पहले के मुकाबले बेहद आसान होगा। जहाँ तक विचारधारा का प्रश्न है, रूसी क्रान्तिकारियों को पेरिस कम्यून की रोशनी में सब कुछ नये सिरे से रचना था। आज हमारे सामने 20वीं सदी की क्रान्तियों की जय–पराजय के अनमोल अनुभव और उनके द्वारा सृजित सामाजिक सांस्कृतिक रचनाओं की समृद्ध धरोहर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस सदी का सबसे प्यारा रंग लाल ही होगा।

पैरों से रौंदे हुए आजादी के फूल

आज नष्ट हो गये हैं

अन्धेरे के स्वामी

रोशनी की दुनिया का खौफ देख खुश हैं

मगर उस फूल के फल ने

पनाह ली है जन्म देने वाली मिट्टी में,

माँ के गर्भ में,

आँखों से ओझल उस गहरे रहस्य में

विचित्र उस कण ने अपने को जिला रखा है

मिट्टी उसे ताकत देगी, मिट्टी उसे गर्र्मी देगी

उगेगा वह एक नया जन्म लेकर

एक नयी आजादी का बीज वह लायेगा।

फाड़ डालेगा बर्फ की चादर वह विशाल वृक्ष

लाल पत्रों को फैलाकर वह उठेगा

दुनिया को रौशन करेगा

सारी दुनिया को, जनता को

अपनी छाँह में इकठ्ठा करेगा।

                         ––लेनिन

रूसी क्रान्ति की कुछ घटनाएँ

पिछले महायुद्ध के दरम्यान 1917 में जब संसार ने सुना कि रूस में क्रान्ति हो गयी तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। रूस में क्रान्ति हो गयी! पन्द्रह करोड़ आबादी वाले इस महादेश पर मजदूर–किसानों का राज्य कायम हो गया! उफ, किमाश्चर्यमतोऽपरम्।–––

सड़कों पर जगह–जगह जल रही आग मद्धम पड़ने लगी थी। सुदूर क्षितिज पर उजाला दिखायी दे रहा था। धीरे–धीरे क्षितिज सुर्ख हो गया। सुबह लगभग 6 बजे सभा खत्म हो गयी। शहर में लोग खबर जानने के लिए समाचार–पत्रों पर टूट पड़े। बुर्जुआ अखबारों ने भ्रामक खबरें फैलायी थीं। उनका शहर में फैली अफवाहों से अधिक सम्बन्ध नहीं था। शरद महल के पतन की खबर अखबारों में नहीं थी। जो भी हो मन्त्री कैद में थे। केरेन्स्की का अता–पता नहीं था। अधिकारी गुस्से में सिर धुन रहे थे। पत्रकार और वकील एक–दूसरे से नोक–झोंक में व्यस्त थे। सम्पादक अपने विचारों को ही इकट्ठा करने की जी–तोड़ कोशिश में लगे हुए थे। दुकानदार असमंजस में थे कि धन्धा शुरू करें या नहीं। नये शासन ने आदेश दिया कि सभी काम–धन्धा जारी रखे जायें। रेस्टोरेण्ट खुल गये। ट्राम कारें घूमने लगीं। बैंक अपशकुन की आशंका में बेहाल हो गये। शेयर बाजार लड़खड़ा गया। अफवाहों का बाजार गर्म था। बोल्शेविक अधिक दिनों तक सत्ता सम्हाल नहीं सकेंगे। वे धड़ाम से गिरने के पहले ही अपना विनाश कर लेंगे।–––

हजारों कुर्बानियाँ देकर इन्कलाब सम्पन्न हुआ था। लाखों लोग युद्ध में मारे गये थे। बिना प्रसव पीड़ा के नये शिशु का जन्म नहीं होता। नया राष्ट्र जन्म ले रहा था। लोगों ने गमगीन आँखों से ‘श्रद्धांजलि’ गीत गाया।–––

किसान और उनके सैनिक बेटों ने जब देखा कि गाँव की सत्ता कमजोर पड़ रही है, तो उन्होंने जमींदारियों को जब्त करना शुरू किया। मोर्चे से भागे सैनिक गाँवों में आ गये। इससे उनका आन्दोलन नयी उँ़चाई पर पहुँच गया। रूस के गाँवों में कृषि क्रान्ति का तूफान उठ खड़ा हुआ। –––

क्रान्ति टेढ़े–मेढ़े रास्ते से अक्टूबर बगावत की ओर बढ़ गयी। इसने मोर्चे, गाँवों और प्रान्तों में अपना विस्तार किया। अक्टूबर बगावत से पहले की सभी घटनायें इसके लिए पूर्वाभ्यास साबित हुर्इं। दुहरी सत्ता में बुर्जुआ का पलड़ा कमजोर पड़ गया था और सर्वहारा का पलड़ा भारी।–––

 
 

 

 

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