संपादकीय: मई 2015

किसान और किसानी की तबाही : जिम्मेदार कौन?

उमा रमण ( संपादक ) 245

खेती किसानी का संकट आज अचानक मीडिया और राजनीति के गलियारे में गर्मागर्म चर्चा का विषया बन गया है। लेकिन यह सब गलत मुद्दे के इर्द–गिर्द और गलत मंशा से किया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में दिल्ली के जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी की किसान रेली में गजेन्द्र सिंह की पेड़ से लटककर मौत की दु:खद घटना के बाद राजनीतिक पार्टियों के बीच आरोप–प्रत्यारोप, तू–तू–मैं–मैं और खोखली बयानबाजी का जो सिलसिला चल पड़ा उसने भारतीय राजनीति की विदू्रपता और घिनौनेपन को सतह पर ला दिया। इसने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि इन राजनीतिक पार्टियों के लिए किसी का मरना–जीना राजनीतिक हानि–लाभ से अधिक कोई मायने नहीं रखता। लोकसभा में इस मुद्दे पर शोर सराबे के बीच अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने ठीक ही कहा कि किसानों के सरोकारों से किसी को कोई मतलब नहीं, सब अपनी–अपनी राजनीति कर रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम पर यह एकदम सही टिप्पणी है।

गजेन्द्र सिंह की मौत की घटना से ठीक पहले लगभग एक महीने तक बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि के चलते रबी की फसल को भारी नुकसान हुआ था। इससे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश और राजस्थान सहित ग्यारह राज्यों के किसान प्रभावित हुए। गेहँू के अलावा तिलहन, दलहन और आलू की फसल को भी भारी नुकसान हुआ था। इस प्र्राकृतिक आपदा ने पहले से ही संकटग्रस्त किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा। इस विपत्ति के कारण पूरे महीने विभिन्न राज्यों से किसानों की आत्महत्या या सदमें से हुई मौत की खबरें आती रहीं। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारें यह मानने को तैयार नहीं कि किसानों की अकाल मौत का कारण खेती की तबाही है, उलटे वे किसान आत्महत्याओं पर लीपापोती करने और उनकी संख्या कम से कम दिखाने का लगातार प्रयास कर रही हैं। मुआवजे को लेकर भी तरह–तरह से हीला–हवाली और एक–दूसरे पर जिम्मेदारी लादने का प्रयास चलता रहा। फसल के नुकसान का आकलन करने और मुआवजे की रकम तय करने में भी काफी दाँव–पेेंच होता रहा। केन्द्र और राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए चोर दरवाजे तलाशती रहीं जबकि किसान चरम हताशा में मौत को गले लगाते रहे।

फसल की तबाही और किसानों की मौत का सिलसिला अभी थमा भी नहीं था और उधर केन्द्र की भाजपा सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को हर कीमत पर लागू करने के लिए हाथ–पाँव मार रही थी। देशव्यापी विरोध और सरकार के प्रति उबलते गुस्से को शान्त करने के लिए प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ रेडियो प्रसारण में भूमि अधिग्रहण के तमाम फायदे गिनवाये और इसके लिए तथ्यों में तोड़मरोड़ और कुतर्कों का भरपूर सहारा लिया। अपने विधेयक के पक्ष में लोगों का समर्थन जुटाने में वे इतने लीन थे कि उसी समय हो रही फसल की तबाही, किसानों की आत्महत्या और मुआवजे की माँग पर वे पूरी तरह चुप लगाये रहे। इसके कुछ ही दिनों बाद भाजपा कि विशेष बैठक बुलाकर भूमि अधिग्रहण के पक्ष में माहौल बनाने की रणनीति भी तैयार की गयी।

भूमि अधिग्रहण के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि खेती के अनुत्पादक और कम आमदनीवाले पेशे में भारी संख्या में लोग लगे हैं। किसानों की गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए जरूरी है कि उनकी सहमति के बिना भी उनसे जमीन ले ली जाय। फिर उस जमीन पर उद्योग, सड़क और आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न शहर विकसित किये जायें। इससे खेती पर निर्भर लोग वहाँ से मुक्त होंगे और उद्योगों में रोजगार पायेंगे। अरुण जेटली ने पूँजीपतियों की एक बैठक में भाषण देते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण से जो विकास होगा उससे 30 करोड़ रोजगार पैदा होंगे, हालाँकि उन्होंने यह नहीं बताया कि कैसे और किस तरह के रोजगार पैदा होंगे। प्रधानमंत्री बार–बार सफाई देते हैं कि भूमि अधिग्रहण पूँजीपतियों के हित में नहीं बल्कि गरीब जनता के हित में है। किसानों की मर्जी के खिलाफ उनकी जमीन छीनने का अध्यादेश भला गरीबों के हित में कैसे हो सकता है।

पिछले दिनों इस विषय पर कई रिपोर्टें भी आयी हैं, जिनमें यह बताया गया है कि भारी संख्या में किसान खेती से तंग आ चुके हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार 44 प्रतिशत और सीएसडीएस के अनुसार 67 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि लगभग 80 प्रतिशत छोटी जोतवाले किसानों के लिए खेती आज गले की हड्डी बन गयी है। पिछले 10 वर्षों में दो लाख किसानों की आत्महत्या इस कृषि संकट की विकरालता का सबसे बड़ा प्रमाण है। लेकिन इतने दबावों के बावजूद किसान खेती से क्यों बँधे हुए हैं? यही नहीं, काम करने की उम्रवाली कुल आबादी में खेती में लगे श्रमिकों की संख्या 2001 में 26.5 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 30 प्रतिशत हो गयी, जबकि इसी अवधि में 86 लाख किसानों ने खेती छोड़ दी, साथ ही भूमि अधिग्रहण के जरिये इसी बीच लाखों हेक्टेयर जमीन कृषि क्षेत्र से बाहर हो गयी। फिर भी कोई तो कारण है कि कृषि पर आश्रित लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ ही रही है।

जाहिर है कि खेती से चिपके रहना किसानों के लिए शौक, जज्बात या रवायत का सवाल नहीं है। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे खेती छोड़ दें तो जीविका का क्या साधन अपनायें। इसका कारण बहुत स्पष्ट है। देश की अर्थव्यवस्था के दो अन्य क्षेत्रों–– उद्योग और सेवा क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में तो हिस्सा बढ़ रहा है लेकिन उसी अनुपात में रोजगार नहीं बढ़ रहा है। आर्थिक सर्वे 2013–14 के मुताबिक पिछले 15 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में खेती का योगदान 23.2 प्रतिशत घटकर 13.9 प्रतिशत रह गया, जबकि गैर कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़कर 85 प्रतिशत हो गया। फिर भी 2011–12 में कृषि क्षेत में 51.2 प्रतिशत लोगांे को रोजगार मिला हुआ था जबकि सकल घरेलू उत्पाद में 59.9 प्रतिशत हिस्सेदारीवाले सेवा क्षेत्र में सिर्फ 26.9 प्रतिशत लोगों को काम मिला था।

ऐसी स्थिति मेें खेती छोड़नेवाले किसानों के लिए उद्योग और सेवा क्षेत्र में रोजगार मिलने की कोई गुंजाइश नहीं है। खेती छोड़ने के विकल्प के रूप में उनके लिए केवल असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में हाड़तोड़ मेहनत, कम मजदूरीवाले काम ही हैं और वह भी पूरी तरह से अनिश्चित और असुरक्षित। गाँव से उजड़ने का सीधा मतलब है, शहर की गन्दी बस्तियों में जिन्दगी गुजारना, जहाँ जीवन की जरूरी सुविधाएँ–– पीने का पानी, सफाई, बच्चों की पढ़ाई, इलाज और सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं। इस हकीकत को किसान अपनी आँखों के आगे देख रहे हैं कि जमीन से उजड़नेवाले लोगों का भविष्य कैसा है।

क्या संकटग्रस्त खेती और खेतीहर आबादी की मुक्ति का केवल एक ही उपाय है कि उनको जमीन से बेदखल कर दिया जाय, जो सरकार उनके गले उतारना चाहती है? दरअसल इस संकट के लिए सरकार की नवउदारवादी नीतियाँ जिम्मेदार हैं, जिस पर सरकार और उसके पिछलग्गू हमेशा पर्दा डालने का काम करते हैं। आत्महत्या और कर्ज जाल जैसी समस्याएँ खुद इस समस्या का कारण नहीं हैं, बल्कि इन नीतियों द्वारा उत्पन्न संकट के परिणाम हैं। इसका समाधान यह नहीं कि उन्हें अपनी जगह जमीन से उजाड़कर दर–दर की ठोकर खाने के लिए छोड़ दिया जाय।

खेती का संकट तो पहले भी था लेकिन 1991 में राव–मनमोहन की सरकार द्वारा नयी आर्थिक नीतियाँ लागू की जाने के साथ यह संकट पहले से अधिक विकट हुआ है। इन्हीं नीतियों के परिणामस्वरूप पहले किसानों को बाजार के दानवों से एक हद तक बचाने के लिए सरकार ने लागत सामग्री पर सबसीडी देने और उपज को लाभकारी मूल्य पर सरकारी खरीद की जो नीति बनायी थी उसे एक–एककर वापस लिया जाने लगा। इसने किसानों की तबाही का रास्ता साफ कर दिया।

1990 के दशक में डंकल प्रस्ताव के तहत विश्व व्यापार संगठन बना और भारत सरकार भी उसमें शामिल हुई। इसका मकसद खेती से जुड़े व्यवसायों में विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों का वर्चश्व कायम करना था। देश की हर छोटी–बड़ी राजनीतिक पार्टी विश्व व्यापार संगठन और अमरीकी चैधराहटवाले साम्राज्यवादी गिरोह की नीतियों की समर्थक है। हर सरकार बढ़–चढ़कर उन्हीं किसान विरोधी नीतियों को लागू कर रही है।

विकास का झाँसा देकर सत्ता में आयी मौजूदा केन्द्र सरकार ने भी सत्ता में आते ही एक से बढ़कर एक किसान विरोधी फैसले लिये। दो साल पहले भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के लिए जो नामचारे की राहत दी गयी थी उसे उद्योगपतियों और बिल्डरों के हित में पलटने के लिए मोदी सरकार ने अध्यादेश जारी किया और अब किसी भी कीमत पर उसे संसद में पास करवाने पर आमादा है। खाद, बीज, पानी, बिजली पर सरकारी सबसीडी में कटौती के लिए सरकार नये–नये पैंतरेबाजी कर रही है, जिसमें बैंक खाते में पैसा डालने का छलावा भी शामिल है। बीज, खाद की बनावटी किल्लत और कालाबाजारी भी इस बार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। फसलों की सरकारी खरीद को कम करके या खत्म करके उसे पूरी तरह देशी–विदेशी अनाज व्यापारी कम्पनियों के हवाले किया जा रहा है। केन्द्र सरकार ने फसल खरीद के समय समर्थन मूल्य पर तो कोई बोनस देने से खुद तो मना कर ही दिया, राज्य सरकारों को भी चेतावनी दी कि अगर वे बोनस देंगे तो केन्द्र सरकार उनसे अनाज नहीं खरीदेगी। फसलों के भण्डारण के काम से भी सराकर ने हाथ खींच लिया है, ताकि रिलायन्स, आईटीसी और अडानी जैसे निजी मुनाफाखोरों को लूट की छूट मिल जाये। पिछली सरकार ने निरवंशी बीटी बीज पर जो रोक लगायी थी, उसे इस सरकार ने हटा दिया। इसके चलते हर बार विदेशी बीज कम्पनियों से महँगे बीज खरीदना किसानों की मजबूरी होगी। आज विकास एक डरावना शब्द बन गया है जिसका सीधा मतलब किसानों और मेहनतकशों के खून–पसीने को सिक्कों में ढालकर सरमायादारों की तिजोरी भरना है।

दुनिया–भर के सरमायादार सैकड़ों सालों से खेती को मुनाफे का धंधा बनाने का मंसूबा बाँध रहे थे। लेकिन खेती से जुड़ी समस्याओं और जोखिम को देखते हुए उसे सीधे अपने हाथ में लेकर उत्पादन करवाने में उनकी कोई रुचि नहीं। इसकी जगह खेती को पूँजी के प्रभाव में लेकर भरपूर मुनाफा कमाना कहीं आसान है। खाद, बीज, सिंचाई के साधन, कीटनाशक मशीनरी इत्यादि की मनमानी कीमतों के जरिये बैंकों से कर्ज देकर ब्याज वसूलने के जरिये, फसल की खरीद–बिक्री, भण्डारण, ढुलाई, प्रसंस्करण, व्यापार और यहाँ तक कि फसलों की कीमत पर सट्टेबाजी के जरिये भरपूर मुनाफे की गुंजाइश है। एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया–भर खेती में से होनेवाली फसल की कुल कमाई (मूल्य योगदान) में 25 फीसदी हिस्सा लागत सामान बनानेवाली कम्पनियों के हिस्से, 65 फीसदी हिस्सा फसल खरीद, भण्डारण, ढुलाई, प्रसंस्कारण, पैकिंग और बाजार में खुदरा बिक्री में लगे व्यवसायियों की तिजोरी में जाता है। केवल 10 फीसदी हिस्सा ही किसान को हासिल होता है। भारत में यह अनुपात कुछ कम–ज्यादा हो सकता है, लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि किसानों का उपज में हिस्सा लगातार गिरता जा रहा है। यह असमान और अन्यायपूर्ण बटवारा पिछले 20 वर्षों के नीतिगत बदलावों का नतीजा है, जिसमें डंकल प्रस्ताव और विश्व व्यापार संगठन की नीतियों पर आधारित देशी–विदेशी पूँजी के गठजोड़ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। सरकार की भूमिका इसी काम को करनेवाली नीतियाँ बनाने तक सीमित है।

खेती के चैतरफा संकट से निजात पाना आज बहुत कठिन हो गया है। इस जटिल समस्या का कोई सरल समाधान सम्भव नहीं। यह समस्या तभी से विकट हो गयी जब इनसानी समाज और कुदरत के बीच का तालमेल टूट गया और खेती पूँजी की गिरफ्त में होती चली गयी। इसके चलते पर्यावरण का जो विनाश हुआ, वह भी हमारे भविष्य और भावी पीढ़ियों के लिए बहुत ही खतरनाक है। आज भी इसकी झलक भूजल स्तर गिरने, जमीन का पानी जहरीला होने, कैंसर की महामारी फैलने और जमीन की उर्वरता घटने के रूप में देख सकते हैं। धरती हमारी माँ है, तो उसकी हिफाजत करना और उससे अपनी जरूरत–भर माँगना, प्रकृति और समाज के बीच सही सन्तुलन कायम करके ही सम्भव है। लेकिन यह लक्ष्य खेती को सामुदायिक क्रियाकलाप बनाकर ही हासिल किया जा सकता है। आज की समस्या अलग–अलग किसानों ने नहीं पैदा की है। इसका स्थायी समाधान भी अलग–अलग सोच के साथ मुमकिन नहीं। यह एक उन्नत समाज का सपना है, जो न्याय और समानता पर आधारित होगा, सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधेव कुटुम्बकम के आदर्श पर आधारित होगा।

जहाँ तक फौरी समाधान का सवाल है, यह खेती के कुल मूल्य योगदान में किसानों का हिस्सा बढ़ाकर ही हासिल हो सकता है, तभी किसान सम्मान से जी सकेगा और अपनी जरूरतें पूरी कर सकेगा। इसके लिए लागत की कीमतें कम करना और उसके व्यापार में लगे सरमायादारों के हिस्से में कटौती करनी होगी। दूसरा, फसल तैयार होने से लेकर अन्तिम उपभोगकर्ता तक पहुँचने के बीच जिन कार्रवाइयों में लगे सरमायादार जो मूल्य बटोरते हैं, उसमें भी किसानों की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी। सीधी भाषा में कहें तो यह तभी सम्भव होगा जब खेती का लागत खर्च घटाया जाय तथा फसल की उचित कीमत और पूरी खरीद की गारण्टी की जाय। लेकिन इसके लिए नवउदारवादी नीतियों को पलटना होगा। क्या देश की किसी भी पार्टी में ऐसा करने का दम है?

भाजपा ने चुनाव घोषणा पत्र में स्वामीनाथन कमेटी के सुझावों को लागू करने का वादा किया था। क्या किसी भी पार्टी में इन्हें लागू कराने की हिम्मत है?

सच पूछें तो विश्व व्यापार संगठन के साथ समझौता करके सरकार ने इस पर फैसला लेने का अधिकार पूरी तरह सरमायादारों को सौंप दिया और सरकार का काम केवल उनके ही स्वार्थों की पूर्ति करनेवाली नीतियाँ बनवाना रह गया है। वे अपने माल की मनमानी कीमत किसानों से वसूलते हैं और किसानों की उपज की मनमानी कीमत भी वे ही तय करते हैं। इस फन्दे को कोई किसान अकेले नहीं काट सकता। चेतना, संगठन और संघर्ष के दम पर ही इन किसान विरोधी नीतियों को पलटना सम्भव है।

 
 

 

 

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