अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

आर्थिक संकट के भंवर में भारत

गरीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं

समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता

                      – वसीम बरेलवी

वसीम बरेलवी का यह शेर इशारा करता है कि देश में जारी आर्थिक संकट से किसे सजा मिल रही है और कौन मौज कर रहा है?

आर्थिक संकट कितना भयावह रूप लेता जा रहा है, इसे कुछ आँकड़ों से देख सकते हैं। अप्रैल–जून 2018 की तिमाही में निर्यात 14.21 फीसदी बढ़कर 82.47 अरब डॉलर हो गया। जबकि आयात 13.49 फीसदी बढ़कर 127.41 अरब डॉलर पर पहुँच गया। इस दौरान कुल व्यापार घाटा 44.94 अरब डॉलर रहा। इस साल की पहली तिमाही में ही व्यापार घाटा 43 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया। आयात–निर्यात में अन्तर जितना ही बढ़ेगा हमारा व्यापार घाटा उतना ही अधिक होगा। इस घाटे की पूर्ति के लिए ज्यादा विदेशी मुद्रा चाहिए लेकिन हमारे यहाँ विदेशी मुद्रा का सीमित भण्डार है, जो अब लगातार घट रहा है। जुलाई के प्रथम सप्ताह में विदेशी मुद्रा भंडार 24.82 करोड़ डॉलर कम होकर 127.41 अरब डॉलर रह गया है। इसका मुख्य कारण आयात–निर्यात में बढ़ते अन्तर के अलावा रुपये की गिरती कीमत और विदेशी निवेशकों का डॉलर वापस ले जाना और नये निवेश न आना है। विदेशी मुद्रा के देश में आने के दो प्रमुख साधन हैं–– निर्यात और विदेशी पूँजी निवेश। उत्पादन की वृद्धि नोटबन्दी और जीएसटी के बाद न के बराबर है तो उत्पाद के निर्यात में वृद्धि की गुंजाइश नहीं है। भारत बड़ी मात्रा में कच्चे माल का निर्यात करता है। इसके बावजूद अकेले कच्चे माल के निर्यात से हम कितना कमा लेंगे?

डूबती अर्थव्यवस्था, साम्प्रदायिक दंगे और गैर लोकतांत्रिक माहौल के चलते विदेशी कारोबारी यहाँ निवेश करने से कतरा रहे हैं। 2017 में प्रत्यक्ष विदेश निवेश घटकर 40 अरब डॉलर पर आ गया, जो 2016 में 44 अरब डॉलर था।  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वृद्धि दर पिछले पाँच साल के न्यूनतम स्तर पर है। जबकि विदेशी निवेश निकासी दर दो गुने से ज्यादा बढ़कर 11 अरब डॉलर हो गयी है। जिन विदेशी निवेशकों के जरिये सरकार ने विकास के सब्जबाग दिखाये थे, वे अब भाग रहे हैं। जनवरी 2018 के बाद से विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) में 48,000 करोड़ रुपये की निकासी हुई है। यह में पिछले 10 साल में सबसे बुरी स्थिति है। डिपोजिटरीज के आँकड़े के अनुसार जनवरी से जून की अवधि तक विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) ने ऋण बाजार से 41,433 और शेयर बाजार से 6,430 करोड रुपये शुद्ध निकासी की है। 2008 की मन्दी के बाद, जब दुनिया में आर्थिक संकट के घने बादल छाये थे, तब से यह सबसे बड़ी निकासी है।

सरकारी आँकड़ों की बाजीगरी देखें तो पता चलता हैं कि इन सालों में अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बढ़ी है जबकि निवेश प्रस्ताव एक तिहाई हो गये हैं। जो निवेश हो भी रहे हैं वे उत्पादन के क्षेत्र में न होकर, हथियारों, जहाजों और कारों की खरीद–फरोख्त में लग रहे हैं। 2018 की दूसरी तिमाही में नया निवेश 2.1 लाख करोड़ रुपये का रहा है जो 14 सालों में सबसे कम है और इसका भी दो तिहाई हिस्सा सिर्फ हवाई जहाज खरीदने में खर्च होगा। जब कोई उद्योग नहीं लगाया जाएगा, ऐसे में भला रोजगार सृजन कहाँ सम्भव है? प्रस्तावित निवेश से वस्तुओं का आयात किया जा रहा है, जिनमें से ज्यादातर युद्ध सामग्री हैं। अगर उत्पादन के क्षेत्र में निवेश होता तो उत्पादक श्रमिकों की आवश्यकता होती और इससे रोजगार बढ़ता। इसके साथ अर्थव्यवस्था के दूसरे पहियों में भी थोड़ी हरकत होती। लेकिन आज की अर्थव्यवस्था में ऐसा कुछ भी नहीं है।

जीएसटी को लागू हुए एक साल से अधिक हो चुका है। बताया गया था कि जीएसटी के बाद चीजें सस्ती होंगी, कर चोरी घटेगी, व्यापार आसान होगा, रोजगार बढ़ेगा और विकास होगा। लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हुआ। इजारेदार पूँजी के इस दौर में जीएसटी केवल बड़े कारोबारियों के लिए वरदान साबित हुई। इस नयी कर व्यवस्था से उद्योग में लगने वाले माल की लागत बढ़ गयी। जिससे बड़ी संख्या में लघु, कुटीर और मध्यम स्तर के उद्योग तबाह हो गये। नतीजतन, इनसे जुड़े मजदूर, छोटे स्तर के कारोबारी और कच्चा माल सप्लाई करने वालों के रोजगार खत्म हो गये। जीएसटी ने बाजार में इजारेदार पूँजी के वर्चस्व को बढ़ाया है। सरकार पूरी बेहयाई से उनके साथ खड़ी है। इसके साथ ही महँगाई आसमान छूने लगी। जून 2017 में महँगाई दर 1.46 फीसदी थी जो लगातार बढ़ते हुए दिसम्बर में 5.21 फीसदी तक पहुँच गयी और आज भी इसी के आस–पास बनी हुई है।

नोटबन्दी और जीएसटी की मार से भारतीय अर्थव्यवस्था किस तरह चरमरा गयी है? इसका ज्वलन्त उदाहरण सूरत के कपड़ा उद्योग में देखने को मिला, जहाँ नोटों की कमी और व्यापार घाटा के चलते लघु और मझोले उद्योग बड़ी संख्या में बन्द हो गये।  इसने देश में संगठित क्षेत्र के 15 लाख और असंगठित क्षेत्र के 3.72 करोड़ लोगों की नौकरियों को निगल लिया। सूरत का कपड़ा उद्योग जीएसटी लागू होने के बाद तबाह हो गया। यहाँ के 75 हजार कारोबारियों में 90 फीसदी छोटे और मझोले कारोबारी हैं। इनका कारोबार लगभग 40 फीसदी तक कम हो गया है। जीएसटी से पहले इस उद्योग में 18 लाख लोग काम करते थे, अब इसमें 4.5 लाख लोग ही बचे हैं। जहाँ तक बात रही रोजगार सृजन की तो जीएसटी लागू होने के बाद इसकी गुंजाइश बिलकुल ही खत्म हो गयी है। बड़ी कारोबारी कम्पनियाँ उत्पादन के लिए अत्याधुनिक स्वचालित मशीनें और कम श्रमिक प्रयोग करती हैं। इसके विपरीत छोटी कम्पनियाँ कम मशीन और अधिक श्रम का इस्तेमाल करती हैं। लघु, कुटीर और मध्यम कारोबारी कम्पनियाँ बड़ी कम्पनियों के मुकाबले कहीं ज्यादा रोजगार का सृजन करती हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने एक और नयी समस्या मँुह बाये खड़ी है, वह है रुपये की लगातार गिरती कीमत। डॉलर के मुकाबले रुपये का अवमूल्यन तेजी से हो रहा है और अब लगभग 70 रुपया 1 डॉलर के बराबर हो गया है। वास्तव में रुपये की क्रय शक्ति समता (परचेजिंग पॉवर पैरिटी) 2016 में 17.42 थी। इसका अर्थ यह हुआ कि 1 डॉलर में जितना सामान आ सकता है उतना सामान खरीदने के लिए हमें 17.42 रुपये खर्च करना पड़ता है। फिर 1 डॉलर 70 रुपये (विनिमय दर) के बराबर क्यों है? इसका मतलब है कि हम अमरीका के साथ व्यापार में सरासर घाटे में हैं। हर अमरीकी सामान की कीमत के लिए हमें चार गुना अधिक खर्च करना पड़ता है। यह बात हमारी सरकार नहीं बताती, जो अमरीका के आगे नतमस्तक रहती है। यह खुली लूट जारी है। सरकार निवेश के लिए बर्बर अमरीकियों को बुलावा देती रही है। लेकिन हम यह बात भूल जाते हैं कि विदेशी डॉलर हमें भीख या मदद में नहीं मिलता है। विदेशी निवेशक ब्याज और मुनाफे समेत हमसे अपना डॉलर वसूलकर रफूचक्कर हो जाते हैं। इसी से रुपया गिरता जा रहा है।

आईडीबीआई बैंक में फँसे कर्ज का अनुपात 28 फीसदी है जो बैंकिंग सेक्टर के इतिहास में एक रिकार्ड है। इसके साथ ही आईडीबीआई बैंक को पिछले वित्तीय वर्ष में 8200 करोड़ का शुद्ध घाटा हुआ है। देशवासियों का जो पैसा एलआईसी जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के पास अपनी सामाजिक सुरक्षा गारन्टी के तौर पर जमा है अब उसे आईडीबीआई बैंक को उबारने में लगाया गया है। आईडीबीआई की पूँजी पूरी तरह डूब चुकी है, सरकार अब उसका 51 फीसदी हिस्सा एलआईसी को बेच रही है। जबकि असलियत यह है कि एलआईसी के पास अपनी पूँजी नहीं है, इसके पास सारी पूँजी बीमा धारकों की प्रीमियम से इकट्ठा पूँजी है। बीमा धारकों की थोड़ी–थोड़ी रकम से इकट्ठा इसी पँूजी से एलआईसी अब आईडीबीआई बैंक का मालिकाना हिस्सा खरीद रही है। जाहिर है कि सरकार अपने घाटों की भरपाई मेहनतकश और निम्न मध्यम वर्ग की कमाई से कर रही है और कठिन समय के लिए बचा के रखी गयी उनकी रकम पर डाका डाल रही है। डूबते हुए बैंक में एलआईसी का पैसा लगाने से सरकार का एक फायदा यह भी होगा कि एलआईसी को भी घाटे का शिकार बनाकर इसके निजीकरण का बहाना ढूँढ लेगी।

विनिवेश के नाम पर सरकार लगातार सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के शेयर को बेच रही है। सरकार घाटे और विकास के नाम पर इन्हें निजी हाथांे में बेचने को आमदा है जो कभी जनता की गाढ़ी कमाई से बनाये गये थे। सरकार ने हाल ही में 5 सरकारी उपक्रमो को बेचने की तैयारी कर ली है। सरकार ने यह कदम ऐसे समय में उठाया है जब वह एअर इंडिया के लिए एक भी खरीददार जुटाने में असफल हो गयी, जिससे चालू वित्तीय वर्ष में विनिवेश से 800 अरब रुपये इकट्ठा करने की सरकार की योजना विफल होती नजर आ रही है। हाल में आयी खबर के मुताबिक कपड़ा कम्पनी ‘आलोक इंडस्ट्रीज’ को 50.5 अरब रुपये में बेच दिया गया। जिसमें बैंक को 40 अरब रुपये ही मिलेंगे। जबकि आलोक इंडस्ट्रीज पर कर्ज दाताओं का कुल 295 अरब रुपया बकाया है। यानी इस सौदे से बैंकों को 86 फीसदी से ज्यादा का नुकसान है।

2018 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.7 फीसदी रही। अर्थव्यवस्था में सुधार का मतलब देश में रह रहे लोगों के जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार होना चाहिए। लेकिन ऐसा कहीं दिखायी नहीं देता, बेरोजगारी चरम पर है, कृषि, स्वास्थ्य, मैनुफैक्चरिंग, जैसे क्षेत्र अपने निचले स्तर पर हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि फिर यह आर्थिक वृद्धि किस अर्थव्यवस्था की है? जबकि अमीरी–गरीबी की खाई बढ़ी है। जनता पर टैक्स का बोझ बढ़ा है। ऐसे में ऐसा कौन–सा क्षेत्र है जिसके दम पर अर्थव्यवस्था का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है? यह है शेयर बाजार की जुआरी पूँजी या सटोरिया पूँजी, जो परजीवी पूँजी है। इस पूँजी का उत्पादन से दूर–दूर तक नाता नहीं है। बाजार में बैठे लोग इस बात पर सट्टा खेलते हैं कि बाजार में कौन चमकेगा, कौन जमीन पर गिरेगा, इस बार राजनीति में कौन अव्वल रहेगा, कितनी मौतें होंगी, करोड़पति बनने का अच्छा तरीका कौन–सा है आदि।

सवाल यह कि अर्थव्यवस्था संकट में है तो सेंसेक्स और निफ्टी रिकार्ड कैसे बना रहे हैं? आर्थिक संकट के इस दौर में उत्पादक पूँजी निवेश तो सम्भव नहीं है। इसलिए शोषण और लूट से एकत्रित पूँजी को सट्टेबाजी में लगाया जा रहा है। सट्टेबाजी ही अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा हो गया है। सट्टेबाजी के क्षेत्र में एक से बढ़कर एक रिकॉर्ड बन रहे हैं और टूट रहे हैं। यही क्षेत्र दुनिया भर में पूँजी से पूँजी कमाने का सबसे आसान जरिया बन गया है। इस साल फुटबाल विश्वकप के दौरान सट्टेबाजी का एक सनसनीखेज मामला सामने आया है। कम्प्यूटर प्रोग्राम की मदद से विश्व के सबसे बड़े बैंको में से एक यूबीएस एजी ने जर्मनी और बहुराष्ट्रीय बैंक गोल्डमैन सैक्स ने ब्राजील के विजेता होने की भविष्यवाणी की थी। इन दावों पर खूब सट्टे लगे और इनमें से दोनों ही टीमें सेमीफाइनल में भी नहीं पहुँच पायी। भारत में भी विधि आयोग ने क्रिकेट समेत अन्य खेलों में सट्टेबाजी को कानूनी जामा पहनाने की सलाह दी है।

कुछ लाख सट्टेबाजों की कमाई देश के 60 करोड़ से अधिक किसान–मजदूरों की आय से अधिक है। हर साल लाखों सीमान्त किसान व्यवस्था जन्य संकटों से पार न पाने के चलते खेती से उजड़कर मजदूर बनने को विवश हैं। या कुछ उपाय न सूझने पर आत्महत्या कर लेते हैं। जीएसटी और नोटबन्दी के बाद कारोबार ठप पड़ने और कर्ज का बोझ बढ़ने के साथ–साथ सामाजिक दबाव भी बढ़ गया है, जिसके चलते व्यापारी वर्ग से भी आत्महत्या की खबरें मिलने लगी हैं। हाल ही में झारखंड के हजारीबाग शहर में एक कारोबारी नरेश ने पूरे परिवार के सभी 6 लोगों के साथ आत्महत्या कर ली। अपने सुसाइड नोट में लिखा है, बीमारी, दुकानबन्द, देनदारी, बदनामी और कर्ज से उपजे तनाव के चलते वे आत्महत्या करनेे को मजबूर हुए हैं। ये कारण आर्थिक तंगी और लूट के चलते उपजे हैं। कमोबेश यही हालत देश के ज्यादातर छोटे–मझोले कारोबारियों की है। आर्थिक तंगी एक नयी संस्कृति को जन्म दे रही है जो बहुत ही भयावह है।   

दूसरी ओर, बड़े कारोबारी, पूँजीपति, सट्टेबाज और नेता गहरे आर्थिक संकट में भी खूब फल–फूल रहे हैं। इनके अबाध पूँजी संचय में सरकार कोई बाधा नहीं आने देती। सरकार इन्हंे सभी संकटों से उबार लेती है। इसी संकट के दौरान अडानी, अम्बानी, रामदेव, मेहुल चोकसी, नीरव मोदी जैसों ने अपनी सम्पत्ति में अकूत वृद्धि कर ली।

2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के समय भारत की अर्थव्यवस्था के बहुत से क्षेत्र दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था से नत्थी नहीं थे। दूसरे, यहाँ के अधिकतर बैंकों का निजीकरण नहीं हुआ था और सरकारी बैंकोें की हालत भी बेहतर थी, जिसके चलते 2008 की मन्दी का भारत पर बहुत व्यापक असर नहीं पड़ा था। 2008 के बाद उदारीकरण के दूसरे चरण की नीतियों को तेजी से लागू किया गया। आज अर्थव्यवस्था के अधिकतर अंग वैश्विक पूँजी से नत्थी हैं। 2014 में भाजपा के सत्ता में आते ही बीमा, बैंक, खुदरा व्यापार और यहाँ तक कि सुरक्षा क्षेत्र में भी विदेशी पूँजी निवेश की सारी सीमाएँ खत्म कर दी गयीं। विदेशी पूँजी पर निर्भरता बढ़ी। इसी के चलते आज वैश्विक मन्दी भारत में भी भारी तबाही मचा रही है। इसके समाधान के रूप में सरकार जनता पर करों का बोझ बढ़ा रही है, अलग–अलग बहानों से उसे लूट रही है। सार्वजनिक उपक्रमों को देशी–विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर रही है। अर्थव्यवस्था के संकट से उबरने के लिए न तो देश के अर्थशास्त्रियों के पास कोई आर्थिक नीति है न ही यहाँ के राजनेताओं में उसे दूर करने का आत्मविश्वास है।

आर्थिक संकट के बारे में सरकार अपनी विफलता को छिपा रही है। जनता का विद्रोह न भड़के इसके लिए हिन्दू–मुस्लिम, गोरक्षा, राष्ट्रवाद और मॉब लिंचिंग को बढ़ावा दे रही है। मीडिया में सरकार अपनी छवि को साफ–सुथरी बनाकर पेश कर रही है। आर्थिक संकट के कारण असंतोष और गुस्सा जनता के हर हिस्से में दिखायी दे रहा है। लेकिन मीडिया ‘फील गुड’ और ‘इण्डिया शाइनिंग’ राग अलाप रहा है। खबरों पर गौर करें तो आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संकट जैसी कोई समस्या दूर–दूर तक नजर नहीं आती है। अखबार दिन–रात विकास की रट लगा रहे हैं। सरकार वृद्धि दर को बढ़ा–चढ़ाकर पेश कर रही है। वित्तमंत्री हर तरह के आर्थिक संकट से इनकार कर रहे हैं। सरकार के महकमे से कहीं भी आर्थिक संकट जैसे शब्द सुनने को नहीं मिलता।

कुछ संकट परिस्थितियों की देन होते हैं तो कुछ संकटों को हम न्यौता देकर बुलाते है। प्रधानमंत्री मोदी ने नवम्बर 2016 में नोटबन्दी लागू की और उसके कुछ ही महीने बाद अप्रैल 2017 में एक नयी कर व्यवस्था, जीएसटी लागू की। इनके  बुरे नतीजों से आज सभी परिचित हैं। इन दोनों नीतियों ने भारत के आर्थिक संकट में कोढ़ में खाज का काम किया है। इन दोनों नीतियों ने अधिकतर उद्योगों को तबाह कर दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था आज भी इससे उबर नहीं पायी है। ऐसे में सरकारें अर्थव्यवस्था का सारा बोझ मेहनतकश वर्ग पर ही डालती हैं। मेहनतकशों पर शोषण क्रूर तरीके से बढ़ा दिया जाता है। आर्थिक संकट की घड़ी में किसान, मजदूर , निम्न मध्यम वर्ग पर सारा आर्थिक बोझ लाद दिया जाता है। पूँजीपति अपना मुनाफा बढ़ाने और घाटा पूरा करने के लिए शोषण को और तेज कर देता है। कुल मिलाकर मेहनतकश जनता की स्थिति नारकीय बना दी गयी है। विश्व भूख सूचकांक में भारत का सर्वाेच शिखर पर पहुँचना इसकी बदहाली का उदाहरण है। यह संकट सर्वग्रासी है, चिरंतन है, असमाधेय है। इस व्यवस्था के ढाँचे में ऊपरी सुधारों से इसका समाधान सम्भव नहीं है और वर्तमान शासक वर्ग इससे आगे सोच भी नहीं सकता। यह उसकी वर्गीय सीमा है।

 
 

 

 

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