नवम्बर 2021, अंक 39 में प्रकाशित

अफगानिस्तान : साम्राज्यवादी तबाही की मिसाल

अमरीका और उसका पालतू असरफ गनी अफगानिस्तान से खदेड़ दिये गये। अफगानिस्तान की सत्ता फिर से क्रूर और धर्मान्ध तालिबान के हाथ में है जो अमरीका की परित्यक्त सन्तान है। अमरीका की ही तरह उसके पास भी अफगानिस्तान की जनता के लिए तबाही के अलावा और कुछ नहीं है। 1979 से 2021 तक के 42 वर्षों में अमरीकी साम्राज्यवाद ने अफगानिस्तान को इस हद तक तबाह किया है कि आज इसे एक राष्ट्र भी कहना मुश्किल है। तालिबान अफगानिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में पुर्नगठित कर लेगा इसकी भी सम्भावना कम ही है।

2001 में अमरीका दूसरी बार अफगानिस्तान में घुसा था, इस बार उसे लगभग 2500 अरब डॉलर और 2500 सैनिक गँवाकर तथा सत्ता वापस तालिबान के हाथ में सौंपकर भागना पड़ा है। अफगानिस्तान की तबाही के सामने अमरीका का यह नुकसान कुछ भी नहीं है। अफगानिस्तान की मात्र 4.5 कारोड़ की आबादी से लाखों नागरिक और बच्चे अमरीकी कब्जे के दौरान मारे गये, 10 लाख से ज्यादा अफगान केवल ईरान और पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों में हैं। 45 लाख अफगान या तो देश छोड़ चुके हैं या छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं। देश की 70 फीसदी आबादी किसी ना किसी रूप में नशे के कारोबार से जुड़ी है। हर तीसरा अफगान नागरिक भुखमरी का शिकार है। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल समेत तमाम बुनियादी ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। पूरा देश कबीलों में बँटा है। अफगानिस्तान को जितना गँवाना पड़ा है और इस तबाही की भविष्य में जो कीमत चुकानी पड़ेगी उसकी कल्पना करना भी कठिन है।

अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा है कि “हम अफगानिस्तान में पुननिर्माण के लिए नहीं गये थे।” फिर अमरीका अफगानिस्तान में क्यों घुसा था? ट्विंन टॉवर के हमले के मामले में खुद अमरीका ने स्वीकार किया था कि इसमें तालिबान का कोई हाथ नहीं था। अलकायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन अन्तत: पाकिस्तान में पाया गया। निश्चिय ही ये अफगानिस्तान पर हमले के असली कारण नहीं थे। अमरीकी शासकों ने केवल अपने साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए अफगानिस्तान को तबाह किया, जिस तबाही की आँच अमरीकी जनता को भी भोगनी पड़ी।

अफगानिस्तान जो एक राष्ट्र था

अफगानिस्तान में सेना उतारने के सन्दर्भ में अक्सर सोवियत रूस और अमरीका को एक जैसा दिखाने की कोशिश की जाती है। वास्तव में रूसी सेना के अफगानिस्तान में जाने और अमरीकी कब्जे में जमीन–आसमान का अन्तर है। किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना इन दोनों घटनाओं को तथ्यों की रोशनी में देखना चाहिए।

यह सही है कि 1970 के दशक तक, सोवियत संघ में समाजवाद के रहे–सहे अवशेष का भी अन्त हो गया था, वह सामाजिक साम्राज्यवादी देश में बदल गया था, लेकिन फिर भी उस दौर में दुनिया के बड़े हिस्से में सोवियत साम्राज्यवाद के प्रभाव में प्रगतिशील ताकतें आगे बढ़ रही थीं और साम्राज्यवाद तथा तमाम प्रतिगामी ताकतों का मुकाबला कर रही थीं। इसी वैश्विक परिस्थति में 1973 में अफगानिस्तान से राजशाही का खात्मा हुआ। बादशाह जहीरशाह के प्रधानमंत्री रहे मोहम्मद दाउद खान ने 1973 में तख्तापलट करके सत्ता अपने हाथ में ले ली और अफगानिस्तान के गणराज्य होने की घोषणा की। अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने दाउद खान मूलत: अफगानिस्तान को भारत पाकिस्तान की तरह ही एक पूँजीवादी लोकतंत्र बनाना चाहते थे। उन्होंने राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप पर रोक लगायी, आधुनिक शिक्षा, बुनियादी ढाँचा और कुछ उद्योग विकसित करने की कोशिश की। वह सोवियत संघ के करीबी थे। उन्होंने एक धर्मनिपेक्ष अफगानिस्तान की नींव रखी। धर्मान्ध ताकतों के खिलाफ उनकी टकराहट लगातार बनी रही लेकिन इन प्रतिगामी ताकतों को काबू करने में वह कामयाब रहे। उनके दौर में अफगानिस्तान एक पूँजीवादी लोकतान्त्रिक राष्ट्र बनने के रास्ते पर कुछ कदम आगे बढ़ा।

1978 में वामपंथी पार्टी, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ आफगानिस्तान (पीडीपीए) ने दाउद खान का तख्तापलट करके अपनी सरकार बना ली। पड़ोसी देश सोवियत संघ के समाजवादी विचारों का, भले ही वह संशोधनवाद और राजकीय पूँजीवाद के रास्ते पर चल पड़ा था, पढ़े–लिखे शहरी अफगानी समाज पर गहरा प्रभाव था। कबिलाई समाज की तुलना में रूसी समाज काफी आगे था और संशोधनवादी पार्टी पीडीपीए भी सोवियत संघ से करीबी रिश्ता रखती थी। पीडीपीए के दौर के अफगानिस्तान की तस्वीर आज से बिलकुल अलग थी। लड़कियों का कालेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ना, नौकरी करना, स्कर्ट पहनकर सड़कों पर बेखौफ घूमना आम बात थी। अफगानिस्तान के शहरों में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान से ज्यादा खुला माहौल था। अफगानिस्तान में 40 फीसदी डॉक्टर और 70 फीसदी अध्यापक महिलाएँ थी। प्रशासनिक नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से ज्यादा थी।

गाँव की तस्वीर शहरों से बिल्कुल अलग थी। अफगानिस्तान की 86 प्रतिशत आबादी गाँव में निवास करती थी। वहाँ पिछड़ी कबिलाई संस्कृति का बोलबाला था। सक्षरता दर बामुश्किल 5 प्रतिशत थी। भूमि सम्बन्धों में पिछडे़ सामन्ती सम्बन्ध कायम थे, लगभग आधी खेती योग्य भूमि पर केवल 5 प्रतिशत लोगों का कब्जा था। किसान कर्ज में दबे थे और उनकी स्थिति भूस्वामियों और महाजनों के भूदास जैसी थी। कर्ज के बदले किसान की बेटी उठा लेना आम बात थी। लड़कियों की खरीद–बिक्री, बचपन में शादी जैसी चीजें परम्परा का हिस्सा थी। भूस्वामियों, महाजनों के अलावा किसानों की पीठ पर तीसरा बोझ कट्ठमुल्लाओं का था। देहाती जनता के दिमाग धार्मिक जकड़बन्दी में कैद थे। धर्मान्धता, भूस्वामियों और कबीलाई सरदारों की सत्ता का आधार थी। कुलमिलाकर ग्रामिण आर्थिक–सामाजिक सम्बन्धों ने अफगानिस्तान की तरक्की के पैर में बेड़ियाँ डाल रखी थी।

पीडीपीए की सरकार ने सत्ता सम्भालते ही देहात की मुक्ति का अभियान छेड़ दिया। एक क्रान्तिकारी भूमि–सुधार की घोषणा की गयी जिसमें भूमि का किसानों के बीच बराबर बँटवारा होना था। किसानों के तमाम तरह के कर्ज बेबाक कर दिये गये और जमीन उनकी मिल्कियत बना देने की शुरुआत हुई। महिलाओं की खरीद–फरोक्त और जबरन शादी पर कठोर पाबन्दी लगा दी गयी। महिलाओं और पुरुषों के लिए समान अधिकार की घोषणा की गयी और शादी की न्यूनतम उम्र निर्धारित की गयी। सभी के लिए, खास तौर पर लड़कियों के लिए अनिवार्य शिक्षा का कानून बना। देहात में धार्मिक मदरसों और मस्जिदों के निर्माण पर रोक लगाकर आधुनिक स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण शुरू हुआ। बुर्के और सर ढकने की परम्पराओं को गैर–कानूनी घोषित कर दिया गया। सोवियत रूस के सहयोग से रेलों, सड़कों, उद्योगों का निर्माण और खनन कार्य शुरू हुआ।

इस तरह के तीव्र आर्थिक–सामाजिक बदलाव को अमली जामा पहनाने लायक राजनीतिक ताकत पीडीपीए में नहीं थी। शहरों में पीडीपीए की पकड़ बेशक मजबूत थी लेकिन देहात में आन्तरिक रूप से सत्ता कबीलाई सरदारों, भूस्वामियों और मुल्ला–मौलवियों के हाथ में थी। पीडीपीए द्वारा किये जा रहे सुधार इनके लिए जीवन–मरण का सवाल बन गये। दाउद खान द्वारा किये गये सुधारों के खिलाफ कबीलाई सरदार खास तौर पर पख्तून और धर्मान्ध संस्थाएँ पहले ही सर उठा रही थीं। पख्तून अफगानिस्तान की कुल आबादी का 40 प्रतिशत हैं। अमरीका की सरपरस्ती में पाकिस्तान और सउ़दी अरब पहले ही उन्हें काबुल की सरकार के खिलाफ भड़का रहे थे। पीडीपीए द्वारा शुरू किये गये सुधारों ने उन्हें नया मौका दे दिया।

1978 में ही अमरीकी कठपुतली शाह ईरान की सत्ता को जनता ने उखाड़ फेंका था और गणराज्य की स्थापना की थी। अफगानिस्तान और ईरान की नयी सत्ता के बीच करीबी रिश्ते कायम हो रहे थे। पाकिस्तान और सउ़दी अरब इस गठजोड़ को अपने खिलाफ देखते थे। इसी तरह अमरीका को भी मध्य और दक्षिणी एशिया में संकट साफ दिखने लगा था, तीनों के लिए पीडीपीए की सत्ता का विनाश जरूरी हो गया। अफगानिस्तान में निर्मित हो रहे एक जनकल्याणकारी राष्ट्र की हत्या के लिए अमरीका ने कमर कस ली क्योंकि उसकी नजर में शीतयुद्ध के उस दौर में किसी भी देश का रूसपरस्त होना खतरनाक था।

1978 में ही अमरीका की सरपरस्ती में पाकिस्तान और सउ़दी अरब ने सीमान्त पख्तून इलाकों में पीडीपीए की सरकार के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ दिया। पख्तूनों की एक अच्छी–खासी संख्या को वे यह समझाने में कामयाब रहे कि पीडीपीए की सरकार उनकी तहजीब और मजहब का नाश कर देगी। सीआईए के नेतृत्व में इस्लामिक कट्टरपंथ की जहरीली वैचारिक खुराक पूरे अफगानिस्तान में फैलायी जाने लगी। अफगानिस्तान की धरती पर जितने भी जाहिल, लम्पट, अहमक मौजूद थे वे सब रातों रात इस्लाम के रक्षक ‘मुजाहिदीन’ बना दिये गये। अमरीका ने दिल खोलकर इनकी आर्थिक और सैन्य मदद की। इन तथाकथित ‘मुजाहिदीनों’ की हौसला अफजाई के लिए अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज्वीग्नियेव व्रजेन्स्की खुद ‘खैबर पख्तुनवा’ आया। उसने एक हाथ में कुरान और एक में एके–47 लेकर तथाकथित मुजाहिदीनों के सामने उन्मादी भाषण दिया और आह्वाहन किया कि अफगानिस्तान को काफिरों से आजाद करा दो।

साम्राज्यवादी अमरीकी शासकों के पतन की एक मिशाल यह थी कि अफगानिस्तान के बर्बर जाहिल अमरीका के मुक्तिदाता घोषित किये गये। राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने मुजाहिदीनों को व्हाइट हॉउस में खास दावत दी और उन्हें अमरीका के मुक्तिदाता, वाशिंगटन और जैफरसन जैसा बताकर उन्हें विशेष सम्मान दिया। उसी समय लॉन्च होने वाले अमरीकी अन्तरिक्ष यान कोलम्बिया को इनके नाम समर्पित किया गया। अमरीकी साम्राज्यवादियों की नैतिकता यही है।

अमरीका ने ‘मुजाहिदीनों’ के लिए डॉलर और बन्दूकों की नदी बहा दी। पीडीपीए की नवगठित सरकार देहात में शुरू हो चुके छद्म युद्ध में अमरीका, सउ़दी अरब, पाकिस्तान और मुजाहिदीनों की साझा ताकत का मुकाबला नहीं कर सकती थी। जिस वक्त अमरीका तेजी से मुजाहिदीनों को हथियारबन्द कर रहा था उस वक्त प्रति उत्तर में पीडीपीए किसानों के उस विशाल जन समूह को हथियारबन्द नहीं कर पाया जो उस पर जान न्योछावर करने को तैयार बैठे थे। पीडीपीए ने जनता पर भरोसा करने के बजाय राजशाही के दौर से चली आ रही भाड़े की सेना पर भरोसा किया। दूसरी और ज्यादा बड़ी गलती पीडीपीए ने सोवियत संघ को आमंत्रित करके की। शुरू में वह अफगानिस्तान में अपनी सेना नहीं उतारना चाहता था। अन्तत: जब यह पुष्ट हो गया कि सीआईए के नेतृत्व में अमरीकी लड़ाकों के दस्ते मार्च (1979) में ही अफगान सीमा में घुस चुके हैं तो सोवियत संघ ने अफगान सरकार के ग्यारहवें निमत्रंण–पत्र को स्वीकार कर सितम्बर 1979 में अफगानिस्तान में सेना उतार दी।

अपने एक साक्षात्कार में व्रजेन्सकी ने स्वीकार किया था कि सीआईए के दस्ते सोवियत सेना से 6 महीने पहले ही अफगानिस्तान में पहुँच गये थे। अमरीका का मकसद सोवियत संघ को उकसाकर वहाँ घुसाना था ताकि अफगानिस्तान सोवियत संघ का वियतनाम बन जाये और पूर्वी यूरोप पर से उसका ध्यान हट जाये। हालाँकि अफगानिस्तान सोवियत संघ का वियतनाम नहीं बना, सोवियत संघ उस मकसद और तरीके से अफगानिस्तान में नहीं घुसा था जिनसे अमरीका वियतनाम में। 1989 में सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान से बाहर आ गयी और 1992 में सत्ता पर मुजाहिदीनों का कब्जा हो गया।

अफगानिस्तान की तबाही के बारे में व्रजेन्सकी का कहना था कि यह खास मायने नहीं रखता, अमरीका का हित पूरा होना लाजमी था। 1992 में मुजाहिदीनों के सत्ता पर कब्जे के बाद एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में अफगानिस्तान का अन्त हो गया। यह आज भी एक खण्ड–खण्ड राष्ट्र है। 1996 में मुजाहिदीनों की सत्ता का भी अन्त हो गया और अफगानिस्तान धर्मान्ध तालिबान के कब्जे में आ गया जिसे खड़ा करने में अमरीका, सउ़दी अरब और पाकिस्तान ने मुख्य भूमिका निभायी थी। तालिबान में इतना दम नहीं था कि वह पीडीपीए की तरह एक एकीकृत अफगान राष्ट्र खड़ा कर सके। कुल मिलाकर अमरीकी शासकों की साम्राज्यवादी प्रभुत्व की सनक ने अफगान राष्ट्र का अन्त कर दिया और अफगान जनता को खून में डूबो दिया।

अमरीका की अफगानिस्तान में वापसी

सन 2000 तक वैश्विक परिस्थितियों में महत्वपूर्ण बदलाव आ चुके थे। 1997 में अमरीका ने “नयी अमरीकी शताब्दी” परियोजना पर काम शुरू कर दिया था। अधिकतर नव स्वाधीन राष्ट्र नवउदारवादी वैश्वीकरण के रूप में अमरीकी साम्राज्यवाद को स्वीकार कर चुके थे। मध्य एशिया, मध्यपूर्व और चीन जैसे जो कुछ राष्ट्र अमरीकी साम्राज्यवाद के आगे पूरी तरह घुटने टेकने को तैयार नहीं थे, उन्हें इस योजना से सबक सिखाना था। इस परियोजना के तहत अमरीका ने विरोधियों पर सैन्य हमले की नीति अपनायी।

अफगानिस्तान अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते फिर से अमरीका के लिए महत्वपूर्ण हो गया था। यह मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के सन्धि बिन्दु पर था। इसकी सीमाएँ चीन और ईरान से भी लगती थीं। अफगानिस्तान में अपनी सत्ता कायम कर अमरीका दोनों पर और साथ ही पूरे मध्य एशिया में अपना दबाव बढ़ा सकता था। इसके अलावा कैस्यिपन सागर के आस–पास तेल और गैस के विशाल भण्डारों की खोज हो चुकी थी। इस भण्डार का बड़ा हिस्सा तुर्कमेनिस्तान के ‘गल्काईनस’ में होने की पुष्टि हुई थी, जो अफगानिस्तान की सीमा से लगता था। चीन भारत और पाकिस्तान के रूप में तीन बड़े खरीदार बेहद करीब मौजूद थे। एक “ट्रान्स अफगानिस्तान पाइपलाइन” की कल्पना को साकार करने का काम शुरू करने का वक्त आ गया था। इस परियोजना के लिए एशियाई विकास बैंक कर्ज देने को तैयार था।

 तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता में रहते ये सभी उद्देश्य हासिल नहीं किये जा सकते थे। आखिरकार 2001 में ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के बहाने से अमरीका ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। अमरीकी प्रतिरक्षा विश्लेषक एरिस मारगोलिस ने 2009 में कहा था “अफगानिस्तान में मौजूदा युद्ध लोकतंत्र, महिला अधिकार, शिक्षा या राष्ट्र निर्माण के लिए नहीं है। इसके दूसरे बहाने, अलकायदा का तो शायद ही कोई अस्तित्व हो। इसके मुट्ठीभर सदस्य बहुत पहले ही पाकिस्तान भाग चुके हैं। वास्तव में, यह युद्ध तेल पाइपलाइन और उ़र्जा के संसाधनों से भरे कैस्पियन बेसिन पर पश्चिम के प्रभुत्व के लिए है।”

2001 में अमरीका ने अफगानिस्तान पर कब्जा तो कर लिया लेकिन वह अपनी सत्ता कभी जमीन पर नहीं उतार पाया। इस समय तक रूस और चीन भी मजबूत हो चुके थे। अमरीका मध्य एशिया की राजनीति में कोई खास बदलाव नहीं कर पाया। ईरान को झुकाने में भी वह नाकामयाब रहा।

‘टीएपीआई पाइपलाइन’ परियोजना पर कुछ काम नहीं हो पाया। 2015 के बाद ही इस पर कुछ जमीनी काम सम्भव हो सका, 2018 के बाद से वह भी ठप पड़ा है। इस परियोजना के लिए वित्त का इन्तजाम एशियन डेवलमेण्ट बैंक को करना था। उसकी तैयारी भी धरी की धरी रह गयी।

अमरीका ने अफगानिस्तान के साथ युद्ध में 2500 अरब डॉलर खर्च किये हैं। मीडिया में इसे ऐसे अन्दाज में पेश किया जाता है मानो यह रकम अफगानिस्तान के नागरिकों पर खर्च हुई हो। अफगानिस्तान के नाम पर खर्च हुई विशाल रकम अमरीकी सैन्य अधिकारियों, पूँजीपतियों और अफगान ठेकेदारों की जेब में गयी है। 9 दिसम्बर 2019 को न्यूयार्क टाइम्स के एक लेख में रॉड नोरलैण्ड ने दावा किया था कि 30 जून 2018 तक सेना पर खर्च हुए 1500 अरब डॉलर का कोई स्पष्ट हिसाब नहीं है।

2018 में ही अफगानिस्तान के लिए नियुक्त ‘स्पेशल इन्सपेक्टर जनरल फॉर अफगानिस्तान रीकंस्ट्रक्शन’ की रिपार्ट कहती है कि अमरीकी करदाताओं का अरबों डॉलर उन अस्पतालों पर खर्च हुआ जिनमें कभी किसी रोगी का इलाज नहीं हुआ, उन स्कूलों पर जिनमें कभी कोई बच्चा नहीं पढ़ा। 300 अरब डॉलर बाढ़, भूस्खलन जैसी आपदाओं के नाम पर लिये गये थे। इसमें से एक डॉलर भी सार्थक कार्यों पर खर्च नहीं हुआ। 10 अरब डॉलर अफीम की खेती पर नियंत्रण के लिए दिये गये थे। इसके बावजूद अफगानिस्तान दुनिया की 80 प्रतिशत अफीम पैदा करता है। अमरीका इस पर रोक लगाने में पूरी तरह नाकाम रहा है। अमरीकी कब्जे के दौरान अफीम की खेती में 400 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसके सबसे बड़े खरीदार खुद अमरीका और यूरोप हैं। अर्थव्यवस्था की हालत यह है कि नशे का कारोबार अफगान नगरिकों के रोजगार और आय का सबसे बड़ा स्रोत बन गया है। अफगानिस्तान के आर्थिक विकास के लिए अमरीका ने केवल 24 अरब डॉलर खर्च किये हैं। इस रकम से बने ढाँचे का भी जमीन पर कोई अस्तित्व नहीं है। यहाँ की 30 प्रतिशत आबादी बेरोजगार है। ट्रान्सपेरेन्सी इण्टरनेशनल के अनुसार अफगानिस्तान दुनिया का सबसे भ्रष्ट देश है।

अमरीकी साम्राज्यवादी किसी के सगे नहीं हैं

अमरीकियों के भी नहीं। राष्ट्रपति बाइडेन ने बिल्कुल सही कहा है इस युद्ध में अमरीका को “अभूतपूर्व सफलता” मिली है लेकिन यह सफलता केवल अमरीकी शासक वर्गों की हैं। आम अमरीकियों के हिस्से में 2500 अरब डॉलर का कर्ज आया है। पूरा अफगान युद्ध कर्ज के डॉलरों से लड़ा गया है जिसके लिए 500 अरब डॉलर से ज्यादा का ब्याज का भुगतान कर्जदाताओं को किया जा चुका है और आगे भी किया जायेगा। अमरीकी जनता के हिस्से में अपने 2500 नौजवानों की लाशें और 26 हजार घायल भी आये हैं।

आज इसके सारे तथ्य समाने हैं कि अमरीका और तालिबान के बीच वर्षों से समझौता–वार्ता चल रही थी, जिससे अब्दुल गनी की सरकार को दूर रखा गया था। गनी सरकार पर 5000 तालिबानी कैदियों को रिहा करने के लिए 2020 से ही दबाव दिया जा रहा था। इस साल मार्च के शुरू से ही अमरीकी गृहमंत्री एण्टनी ब्लीकेन अफगान सरकार को तालिबान के साथ सत्ता समझौता करने के लिए मजबूर कर रहे थे। कई महीनों से अफगान सेना को तनख्वाहें नहीं दी जा रही थीं। अशरफ गनी 1980 के दशक से लगातार अमरीका की मदद कर रहा है, अमरीका ने उसे इस लायक भी नहीं समझा कि तालिबान से हुए समझौते और अमरीकी सैनिकों की रुखस्ती की तारीख के बारे मे बता दें। कमाल यह है कि भागते–भागते अमरीका अशरफ गनी की सरकार को तालिबान का प्रतिरोध न करने का दोषी भी ठहरा गया।

जिन अफगान नागरिकों ने अमरीका का सहयोग किया था उनसे अमरीका ने वहाँ आकर बसने का वायदा किया था। उन्हें ग्रीनकार्ड, अमरीकी पासपोर्ट दिये थे। ऐसे लाखों लोगों को अमरीका तालिबान के रहमोंकरम पर छोड़कर भाग गया है।

इस युद्ध से अफगानिस्तान के बाद सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वाला देश शायद भारत है। अमरीका 2015 से ही तालिबान के साथ समझौता करके वहाँ से भागने की राह निकाल रहा था। एक ओर अमरीका ने भारत सरकार पर अफगानिस्तान में निवेश के लिए लगातार दबाव बनाया। दूसरी ओर, तालिबान के साथ बातचीत में उसे कहीं शामिल नहीं किया। भारत ने वहाँ 500 से ज्यादा परियोजनाओं में हजारों करोड़ का निवेश किया था। इसके अलावा अफगानिस्तान को फारस की खाड़ी से जोड़ने के लिए ईरान के चाबाहार बन्दरगाह को विकसित करने और वहाँ से अफगानिस्तान तक रेललाइन बिछाने के लिए भी पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के आदेश पर भारत ने हजारों करोड़ रुपये खर्च किये थे।

अफगानिस्तान मामले में भारत सरकार ने अमरीकापरस्ती की मिशाल कायम की है। अमरीका जैसा–जैसा आदेश देता गया भारत सर झुकाकर स्वीकार करता गया। आजाद भारत के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ कि उसने इतने भारी निवेश के वाबजूद तालिबान के साथ स्वतंत्र रिश्ते कायम नहीं किये। जबकि तालिबान की तरफ से सभी देशों के साथ वार्ताकार की भूमिका निभा रहा और दोहा में तालिबान के दफ्तर का प्रमुख स्तेनजाई 1980 के दशक में भारत से सैन्य शिक्षा हासिल कर चुका है। इसके अलावा तालिबान की ही पहल पर कतर ने भारत को बार–बार सम्पर्क सूत्र और निमंत्रण भिजावाये लेकिन भारत सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। अलजजीरा की रिपोर्ट बताती है कि तालिबान ने काबुल में भारतीय दूतावास की सुरक्षा की गांरटी ली थी और तालिबानी सैनिकों के सुरक्षा घेरे में ही दूतावास के कर्मचारी हवाई अड्डे तक आये। इसके बावजूद भारत ने अपना दूतावास बन्द कर दिया जबकि अमरीका का उपदूतावास अभी भी काबुल में मौजूद है।

भारत के अपमान की हद यह थी कि हवाई अड्डे पर जब उसने अपने कार्यालय के लिए थोड़ी सी जगह माँगी तो अमरीका ने उसे यह कहकर भगा दिया कि यहाँ केवल नाटो के देशों को ही जगह मिल सकती है। हर जगह से अपमानित होकर भारत को अन्तत: घुटनों के बल चलकर तालिबान के साथ वार्ता की ओर जाना पड़ा।

अब तालिबान एक सरकार निर्मित करने की कोशिश कर रहा है। हामिद करजई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला जैसे लोग भी सरकार में शामिल होने की जुगत भिड़ा रहे हैं। अमरीका की सरपरस्ती में ऐसे तमाम लोग लोकतंत्र का गीत गाते थे, अब शरिया कानूनों का गुणगान कर रहे हैं। तालिबान ने मात्र इतना संकेत दिया है कि उसका इस बार का शासन पिछले शासन से कम कठोर होगा।

1980 के दशक में अमरीका की अगुवाई में जिस अफगानिस्तान को खून में डूबो दिया था तालिबान उसके आस–पास भी नहीं पहुँच सकता। इसके बहुत से नेता उस अफगानिस्तान की हत्या में शामिल थे। समाज और खेती की जमीन की मुक्ति के बिना न तो अफगानिस्तान में शान्ति सम्भव है और न ही किसी तरह का विकास और यह कदम पीडीपीए ही उठा सकती थी तालिबान नहीं।

चीन और रूस तालिबान के रूख में और अफगानिस्तान के भविष्य में कोई सकारात्मक बदलाव ला देंगे, इसकी भी कोई सम्भावना नहीं है। चीन 9 ट्रिलियन डॉलर की खनिज सम्पदा की लूट के मकसद से वहाँ है और रूस चीन, ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान को मिलाकर एक मजबूत खेमा बनाने के मकसद से।

अफगानिस्तान की एकमात्र उम्मीद वे छात्राएँ और छात्र है जो तालिबानी सैनिकों की भरी बन्दूकों के सामने बेखौफ होकर हर रोज प्रदर्शन करते हैं। देर–सवेर एक नये अफगानिस्तान का निर्माण उन्हीं के हाथों से होगा।

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