दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

राफेल घोटाला : आखिर सच क्या है?

राफेल को लेकर पक्ष–विपक्ष में बयान–बाजी जारी है। मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी पहुँच गया है। इस पूरे मामले में विपक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सीधे शामिल होने की आशंका जता रहा है। दो मुख्य आरोप हैं, पहला 126 विमानों की जगह 36 विमान ही क्यों खरीदे जा रहे हैं? दूसरा, तकनीकी रूप से दक्ष हिन्दोस्तान ऐरोनौटिक्स लिमिटेड (एचएएल) जो एक सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी है, उसकी जगह तीन साल पहले अस्तित्व में आयी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को सौदे में शामिल क्यों किया गया? उल्लेखनीय है कि  एचएएल कम्पनी सालों से विमान बनाने और रखरखाव करने का काम करती आ रही है जबकि रिलायन्स का इस क्षेत्र में कुछ भी अनुभव नहीं है।

फ्रांसिसी भाषा में राफेल का अर्थ होता है– तूफान। यह दुश्मन के हवाई क्षेत्र में जाकर तूफान मचाये, इससे पहले इसने भारतीय राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया है। इसकी वजह से भारतीय मीडिया के सबसे चहेते प्रधानमंत्री की कार्यशैली पर सवाल खड़े हुए हैं। विपक्ष आक्रामक मुद्रा में है। वह सरकार को घेरकर अपना मतबैंक बढ़ाने का कोई भी अवसर हाथ से निकालना नहीं चाहता। सरकार की तरफ से जिस व्यक्ति ने राफेल डील पर हस्ताक्षर किया है वह मैदान में नहीं आ रहा है। दूसरे मंत्री अन्तर्विरोधी बयान देकर मामले पर लीपापोती करने की कोशिश कर रहे हैं। वे आपस की तू–तू मैं–मैं से जनता का ध्यान मुख्य मुददे से ही भटकाना चाहते हैं, देश को अँधेरे में रखना चाहते हैं और अपनी काली करतूतों को पर्दे के पीछे छुपाना चाहते हैं।

इस समय राफेल को लेकर उठे सवाल और जवाब दोनों की ही भरमार है। इसलिए सही विश्लेषण के लिए तथ्यों की कमी नहीं है। पूरे मामले को समझने के लिए कम से कम 2012 से शुरुआत करनी पड़ेगी क्योंकि भारत के रक्षा मंत्रालय ने 31 जनवरी 2012 को ही यह घोषणा की थी कि “भारतीय वायु सेना के लिए 126 विमान आपूर्ति करने के लिए फ्रांस की दसौल्ट कम्पनी को चुन लिया गया है”। समझौते के अनुसार 18 विमान पूरी तरह से तैयार होकर आने थे, बचे हुए 108 एचएएल के साथ तकनीकी साझा करते हुए बनाये जाने थे। रक्षा मंत्रालय ने इन विमानों की खरीद के लिए 55 हजार करोड़ रुपये आवंटित किये थे। इस तरह यह भारत का सबसे बड़ा रक्षा सौदा था।

पहले वायुसेना द्वारा गहन विश्लेषण के बाद यूरोफाइटर टाइफून और दसौल्ट कम्पनी को चुना गया था। बाद में 31 जनवरी 2012 को विमान के बनाने से लेकर रिटायर होने तक के खर्चे को ध्यान में रखकर दसौल्ट को ठेका दिया गया था। भारत और फ्रांस की सरकारों ने 126 विमानों के लिए शुरुआती अनुबंध पर हस्ताक्षर किये थे। इसके बाद भारत सरकार ने विमान के रखरखाव की गारंटी को लेकर कीमत को कम कराना चाहा, साथ ही तकनीकी शेयर होने पर एचएएल द्वारा बनाये गये विमानों की गारंटी भी चाही। जब दसौल्ट इसके लिए राजी नहीं हुआ और रखरखाव पर खर्च में कटौती भी नहीं की, तो भारत सरकार ने बजट की कमी को देखते हुए सौदे को अगले वित्तीय वर्ष के लिए आगे बढ़ा दिया। मोदी सरकार के आने से पहले ही 13 मार्च 2014 को राफेल बनाने वाली दसौल्ट और एचएएल के बीच कामों में भागीदारी को लेकर भी एक समझौता हो गया था।

25 मार्च 2015 को दसौल्ट कम्पनी के एक प्रमुख ने कहा कि “हमने अनुबंध को अन्तिम रूप दे दिया है बस हस्ताक्षर बाकी हैं।” 8 अप्रैल को विदेश सचिव ने कहा कि “फ्रांस दौरे में प्रधानमंत्री राफेल पर बात नहीं करेंगे।” 10 अप्रैल को प्रधानमंत्री फ्रांस गये लेकिन विदेश सचिव ने जो कहा था कि प्रधानमंत्री राफेल पर बात नहीं करेंगे इससे ठीक उलट हुआ। 10 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि भारत सरकार 36 राफेल विमान खरीदेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ओलान्द के बीच बातचीत के बाद एक संयुक्त बयान आया कि 36 राफेल जेट की आपूर्ति के लिए सहमति बन गयी है। 23 सितंबर 2016 को 7.87 अरब यूरो, यानी लगभग 59 हजार करोड़ रुपये के सौदे पर हस्ताक्षर हुए। राफेल की आपूर्ति 2019 से शुरू होनी थी।

भारत में राफेल के रखरखाव, मरम्मत जैसे दूसरे कामों के लिए नयी–नवेली कम्पनी ‘रिलायंस डिफेंस लिमिटेड’ को ऑफसेट पार्टनर चुना गया। प्रधानमंत्री की फ्रांस यात्रा के बाद एचएएल अचानक सौदे से गायब कर दिया गया जबकि एचएएल और वायुसेना के विशेषज्ञों ने ही दसौल्ट को राफेल की आपूर्ति के लिए चुना था। भारत में साझीदारी मिली रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को, जिसकी वेबसाइट के अनुसार अभी आधिकारिक पूँजी है 5 लाख रुपये जिससे एक बढ़िया कार भी नहीं खरीदी जा सकती है। अभी तक इस कम्पनी को बच्चों के खिलौने वाले जहाज बनाने का भी अनुभव नहीं है जबकि एचएएल के प्रमुख राजू का कहना है कि “जब एचएएल 25 टन का सुखोई, चैथी पीढ़ी का लड़ाकू विमान जिसे वायु सेना मुख्य रूप से इस्तेमाल करती है; बना सकती है तो हम क्या बात कर रहे हैं? हम जरूर ऐसा राफेल विमान बना लेते।” उन्होंने यह भी कहा कि एचएएल पिछले 20 साल से मिराज–200 की देखभाल कर रही है, जिसे राफेल बनाने वाली कम्पनी दसौल्ट ने ही बनाया है। राजू ने कहा कि “हम राफेल भी बना लेते। मैं पाँच साल तक तकनीकी विभाग का प्रमुख था और सबकुछ ठीक था। आपको विमान की उम्र पर खर्च देखना है, न कि हर पीस पर होने वाला खर्च। लम्बे समय में भारतीय राफेल सस्ता ही पड़ता और यह स्वावलम्बी होने की बात है। अगर फ्रांसीसी 100 घण्टे में 100 विमान बना रहे हैं तो मैं पहली बार बनाने के लिए 200 घण्टे लूँगा। मैं 80 घण्टे में ऐसा नहीं कर सकता। यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।”

पक्षविपक्ष की बयानबाजी

विपक्ष ने सरकार पर राफेल सौदे में अनियमितता बरतने और एचएएल को किनारे करके रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को दसौल्ट कम्पनी का ऑफसेट पार्टनर बनाने का आरोप लगाया।

राहुल गाँधी ने कहा कि “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक ‘भ्रष्ट व्यक्ति’ हैं जिन्होंने लड़ाकू विमानों की खरीद में अनिल अम्बानी को 30,000 करोड़ रुपये का फायदा पहुँचाया।”

कांग्रेस की तरफ से आधिकारिक बयान आया कि “सरकार औसतन 1,670 करोड़ रुपये में एक विमान खरीद रही है जबकि यूपीए सरकार ने एक विमान की कीमत 526 करोड़ रुपये तय की थी। कांग्रेस ने सरकार से जवाब माँगा है कि सरकारी एयरोस्पेस कम्पनी एचएएल को क्यों इस सौदे में शामिल नहीं किया गया? एक विमान की कीमत 526 करोड़ रुपये से बढ़कर 1,670 करोड़ रुपये कैसे हो गयी?”

राफेल को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशान्त भूषण ने याचिका दायर की है। उनका कहना है कि “यह न केवल भारत में सबसे बड़ा रक्षा घोटाला है बल्कि इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा से भी समझौता किया गया है। वायुसेना को 126 विमानों की जरूरत थी लेकिन इसे घटाकर 36 कर दिया गया।”

 सरकार ने भारत और फ्रांस के बीच 2008 के समझौते के एक प्रावधान का हवाला देते हुए इससे जुड़े विवरण साझा करने से इनकार कर दिया है।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सोशल मीडिया में लिखकर कांग्रेस और उसके नेता राहुल गाँधी पर सौदे के बारे में झूठ बोलने और दुष्प्रचार करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने जो सौदा किया है, वह यूपीए सरकार के तहत 2007 में होने वाले सौदे से बेहतर है। कैसे बेहतर है? क्यों बेहतर है? इसका उन्होंने जवाब नहीं दिया।

रक्षामंत्री सीतारमण ने सरकार का बचाव करते हुए कहा कि “एचएएल के बारे में हम पर जो आरोप मढ़े जा रहे हैं, इसके बारे में हमें नहीं, सप्रंग को जवाब देना है कि क्योंकि उसके कार्यकाल में दसौल्ट और एचएएल के बीच समझौता नहीं हुआ।”

वैसे तो विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह का बयान कोई मायने नहीं रखता, फिर भी सरकार के बचाव के लिए छटपटाहट बयान में झलकती है। उन्होंने राफेल पर सवाल करने वालों को शोर न मचाने की सलाह भी दे डाली और कहा कि “अगर फ्रांसीसी कम्पनी दसौल्ट एविएशन ने सरकारी कम्पनी एचएएल को काम का नहीं समझा, तो इस पर शोर नहीं मचाना चाहिए। उन्होंने कहा कि “कम्पनी उपकरण बना रही है और वही तय करती है कि किसे जिम्मेदारी देनी है। दसॉल्ट ने जिन कम्पनियों को चुना, अनिल अंबानी की कम्पनी उनमें से एक है।”

फ्रांस के राष्ट्रपति ओलान्द हालाँकि अपने बयान से मुकर गये हैं, वैसे उन्होंने कहा था कि “भारत सरकार ने ही रिलायंस डिफेंस का नाम सुझाया था।”

सर्वोच्च न्यायालय में बयान

सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं की सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से इन तमाम घटानाओं तथा विमान की खरीद प्रक्रिया और कीमत को लेकर बन्द लिफाफे में जानकारी माँगी। सरकार ने रिपोर्ट भेज दी है जिसमें सरकार का मानना है कि दसौल्ट कम्पनी को अपना ऑफसेट सहयोगी चुनने की पूर्ण आजादी है।

सरकार की ओर से आये अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने रक्षा सौदे की सुनवाई पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि न्यायालय यह तय नहीं कर सकता कि कितने विमान खरीदे जायें? उन्होंने कहा कि अगर दाम की पूरी जानकारी सामने आयी तो इससे विरोधी फायदा उठा सकते हैं।

याचिका दायर करने वाले प्रशान्त भूषण ने कहा कि “रिलायंस डिफेंस के पास ऐसी क्षमता नहीं है। उसे फायदा पहुँचाने के लिए भारत सरकार के कहने पर ऐसा हुआ है। यह भ्रष्टाचार का मामला है। प्रक्रिया बताती है कि बिना रक्षा मंत्री की अनुमति के ऑफसेट पार्टनर तय नहीं हो सकता, तो सरकार कैसे कह सकती है कि उसे इसकी जानकारी नहीं है? रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट पार्टनर बनाने के लिए नियम बदले गये हैं।”

इस पर चीफ जस्टिस ने पूछा कि 2015 में ऑफसेट गाइडलाइंस क्यों बदली गयी? जस्टिस के एम जोसेफ ने सवाल उठाया कि अगर ऑफसेट पार्टनर भाग जाये या प्रोडक्शन नहीं करता है, तो क्या करेंगे, देरी का कौन जिम्मेदार होगा?

वहीं, न्यायालय के बुलावे पर एयर मार्शल और एयर वाइस मार्शल भी पेश हुए। चीफ जस्टिस ने उनसे पूछा कि राफेल कितने देश उड़ाते हैं? आखिरी बार वायुसेना में विमान कब शामिल हुए? इस पर एयर वाइस मार्शल ने बताया कि भारत में बने हालिया विमान सुखोई और एलसीए हैं। लेकिन ये 3.5 जेनरेशन के ही हैं। हमें फोर्थ या फिफ्थ जेनरेशन के विमानों की जरूरत है। विदेश से आयी आखिरी खेप 1985 में मिराज विमानों की है। हालांकि वह भी 3.5 जेनरेशन की है।

ऊपर के बयानों से स्पष्ट है कि भारत सरकार ने विमानों को देश की सुरक्षा के लिए जल्द से जल्द खरीदने की जरूरत महसूस की। इसलिए उसने बनवाने की जगह बने–बनाये विमान खरीदने को मंजूरी दी। इतना ही नहीं, दोहरे मोर्चे एक साथ खुलने की तैयारी भी भारत सरकार कर रही है। इसके लिए लगभग एक लाख करोड़ के फाइटर प्लेन खरीदने का टेंडर अप्रैल 2018 में निकल चुका है। फ्रांस, अमरीका, रूस और स्वीडन की कम्पनियाँ ठेका पाने को लालायित हैं और पूरा जोर लगा रही हैं। अगर यह सौदा हुआ तो दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा सौदा होगा।

एयर मार्शल और एयर वाइस मार्शल के बयान ने कि ‘विदेश से विमान की आखिरी खेप 1985 में आयी थी’ विमान खरीदने की सख्त जरूरत को और साफ किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बयान पर हैरानी जतायी थी। वैसे सच्चाई यह है कि एयरफोर्स के पास अभी 44 लड़ाकू दस्ते हैं, लेकिन पुराने विमान बाहर कर दिये जाने से 34 दस्ते ही बचे हैं। लड़ाकू विमान की जरूरत तो है। आखिरी बार वायुसेना को विमान मिलने वाली बात भी झूठ है क्योंकि 1996 में रूस से सुखोई 30 एमकेआई मिले थे। पुराने हो चुके मिग–21 और मिग–27 विमान बेड़े से हटाये जा रहे हैं। अब एक नया सवाल यह खड़ा हुआ कि वायु सेना अधिकारियों ने झूठ क्यों बोला?

एक बात और, भारत में राफेल बनवाने के बजाय फ्रांस से बने–बनाये विमान खरीदना प्रधानमंत्री की खुद की योजना ‘मेक इन इंडिया’ का गला घोटना भी है। जैसा कि फ्रांस की एक पत्रिका ने भी लिखा है कि अगर राफेल भारत में बनाते तो यह परियोजना ‘मेक इन इंडिया’ की माँ होती।

सरकार का कहना है कि राफेल के बारे में जानकारी को सार्वजनिक करना विरोधियों की मदद करेगा। किन विरोधियों की? पाकिस्तान या चीन की? या विपक्षी राजनीतिक पार्टियों की? जबकि राफेल की तकनीकी विशेषताएँ सारी दुनिया को पता है। राफेल के बारे में सुनकर तो दुशमनों को डरना चाहिए था, बल्कि हो उल्टा रहा है, सरकार ही डर रही है। राफेल पहले भी इस्तेमाल किया जा चुका है। नाटो राफेल को अफगानिस्तान लीबिया, माली और इराक में इस्तेमाल कर चुका है। कई पत्र–पत्रिकाओं और आधिकारिक वेबसाइट पर इसकी सभी तकनीकी जानकारी उपलब्ध हैं।

खैर, राफेल की तकनीकी विशेषताओं को छोड़ भी दें तो कीमत से कैसे विरोधी लाभ उठाएँगे? अगर इससे लाभ उठाया जा सकता है तो दसौल्ट कम्पनी को और रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को कर्ज देने वाले आईसीआईसीआई बैंक को कीमतें बताने का किसने अधिकार दे दिया?

2015 में नियमों में फेर बदल करके दसौल्ट को ऑफसेट पार्टनर चुनने की आजादी जानबूझकर दी गयी। राफेल को देश की सुरक्षा के लिए जरूरी बताया गया। साथ ही फ्रांस की कम्पनी के साथ रिलायंस का भागीदार होना, एचएएल को पृष्ठभूमि में धकेल देना जनहित में बताया गया। आज देश में सब जानते हैं रिलायंस और अम्बानी किसका सगा है।

घटनाओं को सिलसिलेवार देखने पर साफ पता चलता है कि दाल में कुछ काला तो जरूर है। सर्वोच्च न्यायालय में मामला चल रहा है, अब आने वाला समय ही बतायेगा कि काली चीज खुलकर सामने आ पाती है या उसे पर्दे की आड़ में ढक दिया जायेगा। लेकिन यह तो तय ही है कि पूँजीवादी पार्टियों के मक्कार नेता इतने माहिर होते हैं कि वे पूँजीपतियों को खुलेआम दी गयी सब्सिडी को भी जनहित और देशहित में घोषित कर देते हैं। तमाम बड़े अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ ऐसे तर्कों से अखबारों को भर देते हैं कि सरकार के ऐसे कदम वाकई जनहित में है। लेकिन साल दो साल बीतते–बीतते पता चलता है कि जो कदम उठाये गये थे उनसे जनता का कुछ भला नहीं हुआ, उल्टे अमीर–गरीब के बीच की खाई बढ़ गयी। जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगी। फिर से नये कदम उठाये जाते हैं और फिर से विश्वास दिलाया जाता है कि नहीं, इस बार तो पक्का जनहित में ये कदम उठाये गये हैं।

1991 में विश्व बैंक से लिया गया कर्ज जनहित में बताया गया था। शिक्षा का निजीकरण शिक्षा की उन्नति के लिए बताया गया था। स्वास्थ्य का निजीकरण स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए बताया गया था। नोटबन्दी जनहित के साथ–साथ आतंकवाद और घुसपैठियों का सफाया करने में भी सहयोगी बतायी गयी थी। अब इनके नतीजे हमारे सामने है और सिर्फ पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने में सफल हुए राफेल सौदे के साथ भी यही होगा।

अब जो जिसका खायेगा उसका तो बजायेगा ही। चैकीदार ने नमक की कीमत चुकायी है और इससे यह बात भी पुष्ट हो जाती है कि जब तक यह शोषण पर टिका समाज है सरकारें लाख कहें कि वह जनहित और देशहित में काम कर रही हैं, लेकिन प्रभावी तौर पर वे पूँजीपति वर्ग की ही प्रतिनिधि होती हैं। आज की सरकारों के द्वारा उठाए गये कदमों से यह साफ जाहिर होता है कि वह खुलेआम पूँजीपति वर्ग के साथ हैं। पूँजीपतियों के मुनाफे में साल दर साल अच्छी बढ़ोतरी हो रही है। दूसरी ओर किसान मजदूरों का दिन–ब–दिन जीना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसी सरकार से जनहित में किसी काम की उम्मीद करना बहुत भोलापन होगा।

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