अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

पेट्रोल और डीजल के बढ़ते दाम

पहले जब अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ती थी तो भारत में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ जाते थे और घटने पर घट जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है, अन्तरराष्ट्रीय स्तर में पर दाम बढ़े या घटे दोनों ही सूरतों में तेल के दाम लगाकर बढ़ते जा रहे हैं। देश में पेट्रोल 84 रुपये प्रति लीटर और डीजल भी लगभग 73 रुपये प्रति लीटर तक पहुँच गया है। आज अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल 75 डॉलर प्रति बैरल है। जुलाई 2008 में जब कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल थी तब उस समय देश में पेट्रोल 50.62 रुपये और डीजल 34.86 रुपये प्रति लीटर था।

अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए तेल बहुत ही जरूरी है। बढ़े हुए तेल के दामों ने अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को अपनी चपेट में ले लिया है जिससे समाज के सभी तबके प्रभावित हुए हैं। लेकिन इस महँगाई के खिलाफ आज जनता में कोई गुस्सा नजर नहीं आ रहा है। पेट्रोल–डीजल के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी पर अर्थशास्त्री, राजनेता और पूँजीपति चुप हैं? पेट्रोल–डीजल इतने महँगे क्यों हैं? इसके जवाब में सरकार अजीबोगरीब बातें कहती है। भाजपा जब विपक्ष में थी तो पेट्रोल–डीजल के बढ़ते दाम के खिलाफ कांग्रेस सरकार को संसद में घेरती थी, सड़कों पर धरना–प्रदर्शन करती थी। 2008 में कांग्रेस सरकार ने 4 साल बाद जब तेल के दाम बढ़ाये थे तो भाजपा ने कांग्रेस सरकार को आर्थिक आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया था। लेकिन आज जब भाजपा की सरकार है तो इसके मन्त्री धर्मेन्द्र प्रधान कहते हैं कि पेट्रोलियम कम्पनियाँ पेट्रोल–डीजल के दाम तय करने के लिए आजाद हैं और सरकार तेल कम्पनियों के काम में दखल नहीं देगी। 16 जून 2017 को केन्द्र सरकार ने तेल कम्पनियों को रोज तेल के दाम कम–ज्यादा करने की छूट दे दी। तब से मई 2018 तक कम्पनियों ने 339 दिनों में 193 बार दाम बढ़ाया। सरकार उत्पाद शुल्क में किसी कटौती के खिलाफ हैं क्योंकि उसे यह डर सता रहा है कि तेल के उत्पाद शुल्क में 1 रुपये प्रति लीटर की कमी से सरकारी खजाने पर 140 रुपये का बोझ पड़ेगा।

पेट्रोल–डीजल इतना महँगा क्यों है? सरकार ने पेट्रोल–डीजल के दाम तय करने का एक अलग ही फार्मूला बनाया है। जिसे आयात समानता मूल्य (इम्पोर्ट पैरिटी प्राइस) कहते हैं। भारत कच्चा तेल दूसरे देशों से खरीदता है। पेट्रोल देश की रिफाइनरी में तैयार किया जाता है। उस पर कितना खर्चा आता है, सरकार उससे पेट्रोल के दाम तय नहीं करती है। उसके हिसाब से अगर पेट्रोल–डीजल दूसरे देश से मँगाया जाये तो उसके दाम में अन्तरराष्ट्रीय बन्दरगाह का खर्च, जहाज से भारत लाने का खर्च, इश्योरेंस, कस्टम ड्यूटी और भण्डारण का खर्चा शामिल होगा। लेकिन यह सब खर्चें काल्पनिक हैं क्योंकि भारत पेट्रोल–डीजल नहीं बल्कि कच्चा तेल आयात करता है। इसलिए इम्पोर्ट पैरिटी प्राइस से सरकार ने पेट्रोल का दाम 84 रुपये तय किया है, वह ठीक नहीं है क्योेंकि यह वास्तविक दाम से बहुत अधिक है।

पेट्रोल का दाम तय करने का एक फार्मूला सरकारी कमेटी ने भी दिया था और इस कमेटी ने बताया कि अगर कच्चा तेल 30 डॉलर प्रति बैरल है तो रिफाइनरी से आने वाले पेट्रोल का दाम 13.44 रुपये प्रति लीटर होगा न कि 26.65 रुपये प्रति लीटर और अगर आयात 90 डॉलर प्रति बैरल है तो यह 22.33 रुपये प्रति लीटर होगा, इस फार्मूले से पेट्रोल–डीजल बहुत सस्ता हो जाता है लेकिन सरकार ने इस फार्मूले को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। इसकी जगह पेट्रोल इम्पोर्ट पैरिटी प्राईस वाले फार्मूले को ही चला रही है। जब पेट्रोल आयात ही नहीं किया जाता तो फिर यह फार्मूला क्यों लगाया जा रहा है? इस फार्मूले से सरकार लोगों को गुमराह करके आसानी से पेट्रोल के दाम बढ़ा देती है। एक बात और, क्या कच्चे तेल से सिर्फ पेट्रोल और डीजल ही निकलता है? नहीं। इसे रिफाइन करते समय एटीएफ (जैट फ्यूल), नेफ्था, वाईट पेट्रोल, एलपीजी गैस, स्प्रीट, कोलतार, मिट्रटी का तेल और भी बहुत सारी चीजें निकलती हैं। इन सभी के दाम भी सरकार लगातार बढ़ाती जा रही है। नेपाल, भूटान और श्रीलंका जैसे देश भारत से तेल खरीदते हैं और अपनी जनता को भारत से भी सस्ता पेट्रोल और डीजल उपलब्ध कराते हैं।

एक सवाल यह भी उठता है कि तेल के किस मद में खर्चा सबसे ज्यादा आता है ताकि तेल के महँगे होने को और अच्छी तरह समझ सकें। रिफाइनरी से आने वाले तेल में 80 प्रतिशत खर्च कच्चे तेल का है और 20 प्रतिशत खर्च बाकी चीजों का। इसलिए कच्चे तेल का दाम निर्णायक है। जब अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल सस्ता होता है तो इसी अनुपात में सरकार ने दाम क्यों नहीं घटाये?

पेट्रोल से सरकार की कमाई कैसे साल दर साल बढ़ती गयी है, इसे हम एक और उदाहरण से समझ सकते हैं सरकारी क्षेत्र की इंडियन ऑयल कम्पनी का मुनाफा मार्च 2013 में 5 हजार करोड़ था और जो मार्च 2017 में 19 हजार करोड़ और मार्च 2018 तक 21 हजार करोड़ पहुँच गया। 2014 से अब तक पेट्रोल पर डीलर का कमीशन 73 प्रतिशत बढ़ा है और डीजल पर 46 प्रतिशत और डीजल पर 48 प्रतिशत वैट है। अगर केन्द्र और राज्य सरकार सभी टैक्स हटा ले तो दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 40.55 रुपये लीटर हो जायेगी।

नवम्बर 2014 से अब तक केन्द्र सरकार ने पेट्रोल पर 54 प्रतिशत और डीजल पर 154 प्रतिशत एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई है। राजस्व विभाग के डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सिस्टम एंड डाटा मैनेजमेंट (डीजीएसडीएन) के अनुसार 2016–17 में केन्द्र सरकार को तेल से 2.67 लाख करोड़ आमदनी हुई है जबकि 2012–13 में यह 0.98 लाख करोड़ थी।

एक तरफ सब्सिडी में कटौती और दूसरी तरफ तेल के दामों में लगातार बढ़ोतरी की गयी जो अब भी तेजी से जारी है।

सरकार ने पेट्रोल कम्पनियों से कहा था कि राजकोषकीय घाटे को कम करने में तेल से होने वाली आय की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 2013–14 में जहाँ 4.4 फीसदी राजकोष का घाटा था, वहीं 2015–16 में यह 3.9 फीसदी रह गया है। उसे सरकार 2018–19 में इसे 3.3 फीसदी तक लाएगी यानी पेट्रोल और डीजल के दामों में और इजाफा होगा। तेल के महँगे होते दामों को लेकर भाजपा के मन्त्री केडी आल्फोन्स का बयान है कि “पेट्रोल खरीदने वाले भूखे तो नहीं मर रहे हैं, हम उन्हीं लोगों पर टैक्स लगा रहे हैं जो टैक्स अदा कर सकते हैं, जिनके पास कार है, मोटर साइकिल है।” निश्चित रूप से मोटरसाइकिल और कार वाले भूखा नहीं मर रहे हैं लेकिन क्या मन्त्री महोदय लोगों के भूखों मरने का इंतजार करेंगे? कुछ लोग भूख से मर रहे हैं और किसान आत्महत्या कर रहे हैं। क्या उनको तेल सस्ता मिल रहा है।

अगर तेल महँगा होता है तो इसका असर पूरी आबादी पर पड़ता है। फलों, सब्जियों, फूलों, ठैली–रेहड़ी वालों, यात्रियों, परिवहन पर पड़ता है। सभी चीजें महँगी हो जाती हैं। पिछले महीने से महँगे तेल को लेकर ट्रकों की हड़ताल चल रही है जिसके चलते खुदरा बाजार और मण्डियों पर असर पड़ना शुरू हो गया है। छात्रों, जवानों, महिलाओं, मजदूरों और किसानों पर इस महँगाई का गहरा असर पड़ता है। लेकिन सरकार कहती है कि किसी पर बुरा असर नहीं पड़ा रहा है।

जुताई, बुआई, कटाई, ढुलाई और सिंचाई यानी खेती के हर काम पर इस महँगाई का असर पड़ता है। हरियाणा में गेहूँ की बुआई पर जहाँ कुछ साल पहले एक एकड़ में 1000 रुपये लगते थे, अब वहीं 1400 रुपये लगते हैं। एक एकड़ धान के खेत की जुताई का रेट पहले 1800 रुपये था, अब यह 2000 रुपये हो गया है। धान की कटाई के लिए कम्बाइन हारवेस्टर जहाँ एक हेक्टेयर का 1000 रुपये लेता था, अब 2000 रुपये लेता है। महँगाई लगभग दो गुनी हो गयी है। आगरा में आलू का भाड़ा डीजल महँगा होने के चलते 30–40 प्रतिशत महँगा हो गया है। यही हाल पूरे देश की खेती का है।

सरकार ने कहा है कि 2022 तक तेल के आयात में 10 प्रतिशत की कमी लाएगी। कहीं यह भी जुमला तो नहीं। 2013–14 में भारत कच्चे तेल का 77.3 प्रतिशत आयात करता था। लेकिन 2017–18 में भारत का तेल आयात बढ़कर 82.8 प्रतिशत पर पहुँच गया। आखिर इस वृद्धि की वजह क्या है? भारत सरकार ने नये तेल क्षेत्रों की खोज पर अधिक निवेश नहीं किया। 2017–18 में कच्चे तेल का उत्पादन गिरकर 356.8 लाख टन पर आ गया है। पिछले चार वर्षों से ओएनजीसी ने तेल की खोज पर महज 1.239 अरब रुपये ही खर्च किया है, क्योंकि नयी खोजों के बजाय ओएनजीसी ने एचवीसीएल के अधिग्रहण के लिए 370 अरब रुपये खर्च किया। तेल आयात पर निर्भरता कम करने के बजाय उल्टे निर्भरता बढ़ाई जा रही है। इससे तय है कि 2022 तक 10 प्रतिशत आयात करने की बात जुमला ही है।

देशी–विदेशी निजी कम्पनियों को तेल और गैस की खोजों के लिए कानून को आसान बना दिया गया है। इसके अनुसार मूल क्षेत्र में लगी कम्पनी ही उस क्षेत्र के इलाके में गैस और तेल की खोज करेगी। जैसे–– अनिल अग्रवाल की वेदान्त केचर्न आयल एण्ड गैस कम्पनी का बाडमेर ब्लाक उन क्षेत्रों में लगा है, जहाँ तेल भण्डार की बहुत ज्यादा सम्भावना है। अब यहाँ वेदान्त कम्पनी ही इस क्षेत्र में खोज करेगी। सरकार अब किसी दूसरी कम्पनी को खोज का ठेका नहीं देगी। वहीं सरकार कह रही है कि इसका फायदा ओएनजीसी, आयल इंडिया और आरआईएम को भी हो सकता है। सरकार कहती है कि लोग ईमानदारी से टैक्स नहीं देते हैं। क्या यह बयान भारत की मेहनतकश जनता की बेइज्जती नहीं है? बेइमान कौन है? क्या वे लोग जो पेट्रोल डीजल पर 50 फीसदी से भी ज्यादा टैक्स देते है? या वे बेरोजगार युवा तो नहीं जिनसे सरकार एक फार्म पर 400 से 500 प्रतिशत का टैक्स वसूलती है? या वह सरकार जो अमीरों को टैक्स में लगातार छूट दे रही है। अपने पहले ही बजट में 5 लाख 73 हजार करोड़ रुपये की टैक्सों में छूट देती हो और बैंकोंं का कर्ज लेकर भागने वाले पूँजीपतियों  को लगातार बढ़ावा दे रही है? उनके द्वारा डुबोये गये बैंकों को उबारने के लिए जनता से टैक्स वसूलकर राहत पैकेज दे रही है। आज सोचने वाली बात है कि अंग्रेजों की लूट और इन देशी–विदेशी पूँजीपतियों और सरकार की इस लूट में कौन अधिक है?

 
 

 

 

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