जून 2020, अंक 35 में प्रकाशित

लॉकडाउन, मजदूर वर्ग की बढ़ती मुसीबत और एक नयी दुनिया की सम्भावना

कोरोना संकट पर देश–दुनिया में इतनी ज्यादा उथल–पुथल मची है और इस का असर इतना व्यापक है कि इसे एक लेख में समेटना लगभग नामुमकिन है। दुनिया के हर देश और हर इनसान के पास कोरोना को समझने और समझाने का अपना न्यारा तरीका है। लेकिन जो तथ्य और रिपोर्टें सामने आयीं हैं, उनके आधार पर एक आम राय तक पहुँचने की कोशिश की जा सकती है।

कोरोना महामारी ने दुनिया की उत्पादन व्यवस्था को लगभग ठप्प कर दिया है। सरपट दौड़ने वाली रेलें जाम हैं, समुद्र में घूमने वाले जहाज रुके पडे़ हैं, आकाश चूमने वाले हवाई जहाज चूहे की तरह अपनी माँद में बैठे रहने को मजबूर हैं। शीशे की गगनचुम्बी इमारतों से कबूतरों की आवाज आने लगी है, जहाँ न दिन का पता होता था न रात का। तीन शिफ्ट में धड़–धड़ चलने वाली मशीनों के चक्के रुक गये हैं। धधकती भट्टियों से उठती आग बुझ गयी है।

ऐसी स्थिति में भारत में जारी लॉकडाउन से करोड़ों लोगों के काम छूट चुके हैं। उनके हाथ अचानक खाली हो गये हैं। लॉकडाउन के अगले दिन से ही शहरों से गाँव की ओर मजदूरों का रेला जा रहा हैं। कई एजेंसियों ने दावा किया है कि यह इतिहास का सबसे बड़ा पलायन है। दिल्ली से पूर्वी उत्तर प्रदेश, जयपुर और मध्यप्रदेश के लोग पैदल ही अपने घरों को चल पड़े। बॉम्बे से फैजाबाद तक लोग पैदल आये। महाराष्ट्र से गुजरात और राजस्थान के लिए लोग छोटे–छोटे बच्चों को कंधों पर उठाये चले आये। इस पलायन में एक हिस्सा निम्न मध्यम वर्ग का भी है जिसे वेतन काटने की शर्त पर भी दस दिन की छुट्टी नहीं मिलती थी। वह भी इस संकट के समय अपने परिवार के पास आने के लिए पैदल चल पड़ा। पर पलायन में शामिल लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मजदूर, पीस रेट पर काम करने वाले, सिक्योरिटी गार्ड, ड्राइवर, सेल्समेन, रिक्शा चलाने वाले और विभिन्न पेशे में लगे अस्थायी मजदूरों का है। अगर लॉकडाउन के साथ ही सरकार ने इन सबके खाने–पीने, किराये और न्यूनतम मजदूरी की गारंटी की होती तो शायद इतने बड़े स्तर पर हुए पलायन को रोका जा सकता था।

कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते दुनिया भर में माल की खपत घट गयी है। विदेशों से आने वाले ऑर्डर रद्द हो गये। खरीदार पुराने खरीदे माल का भुगतान भी नहीं दे रहे। इससे निर्यात पर निर्भर कारखानों और सेवा संस्थानों की माली हालत गड़बड़ा गयी है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन ने सम्भावना जताई है कि कोरोना की वजह से 40 करोड़ नौकरी चली जायेंगी। भारतीय निर्यात संघ के अध्यक्ष ने बताया कि कोरोना के चलते निर्यात क्षेत्र की डेढ़ करोड़ नौकरियों पर खतरा है। आधे से ज्यादा ऑर्डर रद्द हो चुके हैं। परिधान निर्यात संवर्धक परिषद के चेयरमेन के अनुसार चमड़ा, जवाहरात, आभूषण और वस्त्र उद्योग बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। 25–30 लाख नौकरी इस क्षेत्र में चली जायेंगी। परिधान के क्षेत्र में 70 फीसदी उद्यम लघु और मध्यम स्तर के हैं। करोड़ों लोग इस क्षेत्र में काम करते हैं। यहाँ तक कि खेती के बाद सबसे ज्यादा लोग इसी क्षेत्र में लगे हुए हैं, जिनमें ज्यादातर असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं। वे किसी ठेकेदार के नीचे अस्थायी मजदूर हैं या पीस रेट पर अपने घरों से काम करते हैं।

इस चैतरफा संकट की मार समाज के अलग–अलग वर्गों पर अलग–अलग तरह से पड़ रही है। इसमें सबसे भयानक स्थिति में है शहरी क्षेत्रों का मजदूर वर्ग। अपनी माली हालत सुधारने के लिए ही उसने गाँव से शहर की ओर रुख किया था। गाँव में तो वह पहले ही भूखों मरने के कगार पर था। आज वह शहर से भूखा और बेरोजगारी से तंग आकर वापस गाँव पहुँच रहा है। जो थोड़ी बहुत बचत थी वह लॉकडाउन के पहले हफ्ते के राशन में ही खत्म हो गयी। अब वह पूरी तरह से सरकारी सहायता पर निर्भर है। पहले वह शहर से कुछ रुपया बचाकर गाँव में अपने परिवार के गुजारे के लिए भेजता था अब वापस मँगवा रहा हैं। इन रुपयों से ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था के पहिये भी घूमने लगते थे। उनका परिवार गाँव की दुकानों से कपड़े, दवा और साबुन–तेल आदि सामान खरीदकर अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाता था। अब यह चक्र टूट रहा है। इससे ग्रामीण इलाके में रोजमर्रा की जरूरत के सामानों की खपत में और कमी आएगी। पहले से ही कुपोषण के शिकार ग्रामीण क्षेत्र में खाने–पीने की चीजों की खपत और भी घट गयी हैं। 2017–18 में ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य उपभोग 2011–12 के मुकाबले दस फीसदी कम हुआ था। कोरोना से बढ़ी बेरोजगारी इसे अकल्पनीय स्तर तक गिरा सकती है। कोरोना और भूख दोनों में होड़ लगी है कि कौन देश की गरीब आबादी को पहले मारे। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और मुनाफे का असमान वितरण भूख को जिताने में मदद करेगा। कोरोना संकट ने भुखमरी को बढ़ाने में आग में घी का काम किया है। पटरी से नीचे उतरी हुई अर्थव्यवस्था के सामने बड़े–बड़े गड्डे खोद दिये हैं।

दूसरा पीड़ित वर्ग है निम्न मध्यम वर्ग। इसका एक हिस्सा ऑनलाइन काम में लगा हुआ है और बहुत बुरी शर्तों पर काम कर रहा है। घर तथा कार लोन की किस्त, बच्चों की मोटी फीस में तनख्वाह का 90 प्रतिशत खर्च करने वाला यह वर्ग बेहद तनाव में है। दो महीने बिना तनख्वाह के निर्वाह करना इसके बूते के बाहर है। इसलिए 10–12 घंटे ऑफिस का काम घर पर ही ऑनलाइन करने में (इसके लिए आजकल एक नया शब्द चलन में आया है–– वर्क फ्रॉम होम) लगा है। इसकी न कोई ट्रेनिंग दी गयी है और न ही जरूरी उपकरण हैं। दिन–रात ऑनलाइन रहकर काम करना पड़ता है– व्हाट्सअप, जूम और जीमेल पर बार–बार मैसेज और नोटिफिकेशन नींद हराम कर देते हैं। इन्टरनेट की खराब स्पीड की झँुझलाहट भी कम नहीं है। इन सब दिक्कतों और उलझनों के बावजूद कई कम्पनियों ने लॉकडाउन के दौरान अपने कर्मचारियों की तनख्वाह आधी कर दी है तथा काम पहले से ज्यादा बढ़ा दिया।

मध्यम वर्ग जिसके पास बचत का काफी पैसा बैंक में जमा है, वह इन दिनों खूब मस्त है और सरकार के हर कदम का गुणगान कर रहा है। इनके साथ ही सबसे मौज में देश का पूँजीपति वर्ग है। यह अपने नौकरों सहित आइसोलेशन में हैं। श्रम और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण से इन्होंने अकूत सम्पदा इकट्ठी की है। अब ये मजे से अपनी छुट्टी बिता रहे हैं। इनमें से कुछ प्रधानमंत्री द्वारा संचालित पीएम केयर फण्ड में मदद जमा कर रहे हैं। इसके अपने राजनीतिक फायदे हैं। जिसकी बड़ी कीमत देश को बाद में चुकानी पड़ती है–– कभी देश के अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों के मिट्टी के मोल बिकने से तो कभी श्रम कानूनों के पूँजीपति के हित में बनने से। जबसे प्रधानमंत्री नेे पीएम केयर फण्ड बनाया है यह तभी से विवादों में है, यह आरटीआई के दायरे में नहीं आता है, जिसके चलते इसमें आसानी से धाँधली की जा सकती है। पहले से मौजूद प्रधानमंत्री राहतकोष, जो आरटीआई के दायरे में आता है, उसकी जगह पीएम केअर फण्ड क्यों बनाया गया? इसका कोई जवाब सरकार के पास नहीं है।

कोरोना संकट आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के ऊपर किस तरह कहर बनकर टूटा है कि उनके हाथ और जेब दोनों खाली हो गये हैं। राज्य और केन्द्र सरकारों ने उन्हें राहत पहुँचाने के लिए कुछ घोषणाएँ जरूर की हैं। लेकिन अधिकतर हवाई साबित हुई हैं। कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों के सर्वे के अनुसार हमारे देश में 90 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र मतलब जिन्हें छुट्टी, ईपीएफ, ईएसआईसी और अन्य किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। यह लोग श्रम कानूनों के दायरे में भी नहीं आते। न इनको संविधान के हिसाब से तय न्यूनतम मजदूरी मिलती है न कोई दूसरी सुविधा। कोरोना ने देश की बड़ी आबादी को असहाय बना दिया है। इसने फर्जी विकास के गुब्बारे में पिन चुभो दी है। हालत इतनी खराब होती जा रही है कि अगर जल्द कुछ न किया गया तो लॉकडाउन के चलते भुखमरी से बड़ी संख्या में लोग मारे जायेंगे। उनकी संख्या कोरोना में मरने वालों से ज्यादा होगी। कोरोना महामारी फैलने से पहले भी व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं थी। मेहनतकश वर्ग के लोग अमानवीय शर्तों पर काम कर रहे थे। अब उनसे वह काम भी छीनकर उन्हें भुखमरी की ओर धकेल दिया गया है।

आज पूरी मानवजाति के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती मुँह बाये खड़ी है। कोरोना महामारी कब खत्म होगी और कितने लोगों की जिन्दगी निगल लेगी? उसके बाद की दुनिया कैसी होगी? क्या आज की तरह ही जन–विरोधी पूँजीवादी व्यवस्था ही कायम रहेगी? जिसमें जहरीली हवा, प्रदूषण से भरे शहर, नदियों में सड़ता काला कचरा, हमारी विरासत है। जहाँ इनसान द्वारा इनसान का शोषण होता है। जहाँ अपनी तकनीक और हथियारों के दम पर एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को अपना आर्थिक उपनिवेश बनाता है। जहाँ मुट्ठी भर लोगों के हित में पूरे देश के प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम को झोंक दिया जाता है। जहाँ जाति–धर्म के दंगे में सड़कें लहू–लुहान रहती हैं। जहाँ छोटे–छोटे बच्चे धधकती भट्टियों के पास काम करते अपने बचपन को गवाँ देते हैं। जहाँ हथियारों की होड़ में इनसान को इलाज की सुविधाओं से वंचित रखा जाता है और जिनकी कीमत बच्चों के हाथ से किताब और गेंद छीनकर चुकाई जाती है।

या फिर कोरोना महामारी के बाद एक नयी दुनिया का दरवाजा खुलेगा? जिसमें प्रकृति की रक्षा की जायेगी और इनसान की बेहतरी के लिए काम किया जायेगा? लोभ–लालच और स्वार्थपरता को जमीन में दफना दिया जायेगा? क्या हम ऐसा समाज बनाने में सफल होंगे, जिसमें कोई हाथ खाली न हो। कोई जेब खाली न हो। दिल इस तरह उदास न हो कि प्यार करना ही भूल जाये। जिसमें हर किसी की मुस्कराहट के लिए एक जगह हो। जहाँ सरकार माँ की तरह हो जो यह चिन्ता करे कि मेरा कोई नागरिक भूखा न रहे और न ही उदास मन से सोये।

ऐसी दुनिया के निर्माण में सबसे पीड़ित–शोषित मजदूर वर्ग की मुख्य भूमिका होगी। आज हमें यह सब सिर्फ सपना लगेगा। लेकिन हम सब अगर आज से ही प्रयास करें और मिल–जुलकर संघर्ष करें तो ऐसी दुनिया सम्भव है।

 
 

 

 

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