दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

अमरीकी धमकियों के प्रति भारत का रूख, क्या विश्व व्यवस्था में बदलाव का संकेत है?

अमरीकी धमकियों की परवाह न करते हुए, 5 अक्टूबर को भारत ने रूस के साथ एस–400 मिसाइल की खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसके अलावा दोनों देशों ने आठ और समझौतों या सहमति ज्ञापनों पर भी हस्ताक्षर किये और भविष्य में दूसरे बहुत से समझौतों के लिए रास्ते खोले।

ईरान के मामले में भी भारत ने यही आचरण करते हुए अमरीकी धमकियों के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया। हालाँकि भारत चाहकर भी 4 नवम्बर तक ईरान से तेल आयात को शून्य पर नहीं ला सकता था, जैसी अमरीका की इच्छा थी। इसके विपरीत वह ईरान से तेल आयात जारी रखने की घोषणा कर चुका है।

अमरीका विरोधी कुछ देशों को सबक सिखाने के लिए ट्रम्प प्रशासन ने 2017 में काउन्टरिंग अमरीका एडवर्सरीज  सैंक्सन एक्ट (सीएएटीएसए) बनाया था। यह कोई अन्तरराष्ट्रीय कानून नहीं है बल्कि अमरीका का घरेलू कानून है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्वीकृति मिलना तो दूर, उसकी किसी बैठक में इस पर आज तक विचार–विमर्श नहीं हुआ है। अमरीका अपने मन से जिस देश को भी इस कानून का उलंघन करने का दोषी मानता है उसकी आर्थिक नाकेबन्दी करता है। दोषी देशों के साथ व्यापार करने वाले देशों के साथ अमरीका अपने आर्थिक रिश्ते खत्म करने की धमकियाँ देता है, उन पर तरह–तरह के प्रतिबन्ध थोप सकता है और उन्हें माफ भी कर सकता है, यह अमरीका की अपनी मर्जी पर निर्भर है। रूस और ईरान, दोनों ही देशों को अमरीका सीएएटीएसए का दोषी मानता है और उसने इनकी आर्थिक नाकेबन्दी कर रखी है।

इन दोनों देशों के साथ व्यापारिक समझौते करने पर अमरीका ने भारत को प्रतिबन्ध झेलने की धमकी दी थी। हालाँकि बाद में उसने रूस के साथ समझौते के मामले में भारत को माफीशुदा देशों के दर्जे में रख दिया लेकिन ईरान के मामले में भारत को अभी तक माफी नहीं दी है।

इन दोनों मामलों में अमरीकी धमकियों के आगे भारत के न झुकने के कारण को समझने के लिए हमें रूस और ईरान के साथ भारत के समझौतों पर एक सरसरी नजर डालनी होगी और उदारीकरण की नीतियों को ध्यान में रखकर उनकी जाँच–पड़ताल करनी होगी।

4 और 5 अक्टूबर को नई दिल्ली में रूसी राष्ट्रपति पुतिन और भारत के प्रधानमंत्री मोदी के बीच हुई वार्ता, भारत–रूस वार्षिक द्विपक्षीय शिखर सम्मलेन की 19वीं कड़ी थी। इस शिखर सम्मलेन में दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों, मंत्रियों, राजदूतों के अलावा दो सौ कम्पनियों के सीईओ ने हिस्सा लिया। इस सम्मलेन में दोनों देशों के बीच 8 समझौतों या सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए और 20 से ज्यादा समझौतों के लिए विचार–विमर्श हुआ।

कई सालों से अटका पड़ा एस–400 मिसाइल की खरीद का समझौता इस सम्मलेन में सम्पन्न हो गया। इसके अनुसार रूस भारत को 40 हजार 300 करोड़ रुपये में पाँच मिसाइल प्रणालियाँ देगा। इनकी आपूर्ति दो साल बाद 2020 में शुरू होगी। रकम का भुगतान दोनों देशों के केन्द्रीय बैंकों द्वारा तैयार की गयी रूवल–रुपया प्रणाली से होगा।

भुगतान की पहली किश्त जाते ही भारत पर अमरीकी कानून सीएएटीएसए के तहत कानूनी कार्रवाई होनी थी लेकिन फिलहाल पहली किश्त के लिए भारत को माफी दे दी गयी है।

बाकी समझौते तकनीक हस्तांतरण, रेल व हाईवे निर्माण, रासायनिक उर्वरक, नाभकीय ऊर्जा, दवाई उद्योग के क्षेत्रों में  हुए हैं।

भारत और रूस ने 2025 तक सालाना द्वीपक्षीय व्यापार को 300 अरब डॉलर तक बढ़ाने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य को 7 साल पहले 2018 में ही हासिल कर लिया गया है। अब दोनों देशों ने 2025 तक सालाना 500 अरब डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार का लक्ष्य तय किया है। रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने कहा कि दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने की हमारी कोशिशें सफल रही हैं। पिछले साल यह 24 प्रतिशत बढ़ा था और इस साल के शुरू के 5 महीनों में 26 प्रतिशत बढ़ा है।

6 अक्टूबर को रूस के उद्योग और व्यापार मंत्री डेनिश मेत्रोव ने एक साक्षात्कार में बताया कि दोनों देश रक्षा के अलावा दूसरे क्षेत्रों में सहयोग की सम्भावनाओं पर जोर दे रहे हैं। रूसी केन्द्रीय बैंक और भारतीय रिजर्व बैंक ने लेन–देन के लिए राष्ट्रीय मुद्राओं के इस्तेमाल का तरीका विकसित किया है और भारत रूस के साथ व्यापार करने वाले प्रमुख देशों में शामिल हो गया है। विमानन क्षेत्र में भारत 200 रूसी केऐ226टी हैलीकॉप्टर खरीदने के समझौते पर भी हस्ताक्षर कर चुका है। भविष्य में रूसी विमानन कम्पनियाँ भारतीय निजी कम्पनियों को हैलीकॉप्टर बेचने की योजनाएँ बना रही हैं।

उन्होंने यह भी बताया कि दोनों देश मिलकर भारत में 6 नये नाभकीय संयत्र लगाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की योजनाओं पर भी सहमत हैं।

मास्को और दिल्ली जल्दी ही ग्रीन कोरीडोर परियोजना को लागू करने के परीक्षण करने वाले हैं। इसे रूस की फेडरल कस्टम सर्विस ने तैयार किया है। इसमें प्रस्ताव है कि दोनों देश अपने देश की ऐसी कम्पनियों की सूची तैयार करें जिनका माल कस्टम जाँच के बिना सीमा पार जा सके। रूस फिनलैंड, तुर्की, चीन, इटली के साथ यह समझौता पहले ही कर चुका है। इस परियोजना के तहत जाने वाले मालों के दस्तावेजों और नमूनों की भी जाँच नहीं की जायेगी। केवल माल भेजने वाली कम्पनी को एक शपथ पत्र देना होगा।

दोनों देशों के बीच नॉर्थ–साऊथ ट्रांसपोर्ट कॉरीडोर परियोजना को पूरा करने पर भी सहमति बनी है। इस मार्ग परियोजना में भारत, ईरान, अजरबेजान और रूस से समुद्री, रेल और सड़क मार्ग से मालों की निर्वाध ढुलाई शामिल है। रूस के आर्थिक विकास मंत्रालय का मानना है कि उपरोक्त दोनों परियोजनाओं पर अमल करने से मालों की ढुलाई 30 प्रतिशत सस्ती हो जायेगी और 40 प्रतिशत समय की बचत होगी।

रूस ने भारत में रेल और हाइवे के निर्माण में निवेश और तकनीकी सहयोग देने की इच्छा भी जाहिर की और भारतीय तेल कम्पनियों को रूस से तेल और गैस क्षेत्र में निवेश करने का न्योता दिया। भारतीय तेल कम्पनियाँ इस क्षेत्र में 100 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश पहले ही कर चुकी हैं। रूसी कम्पनियों ने भी भारत की एस्सार ऑयल में 130 अरब डॉलर का निवेश करने का वादा किया है। पैट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान का कहना है कि “प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति पुतिन ने ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग पर विशेष जोर दिया है। रूस तेल और प्राकृतिक गैस में दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों में शामिल है और वह भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकता है।”

इण्डियन बिजनेस एलाइंस के अध्यक्ष सम्मी कोटवानी, जो सम्मलेन का हिस्सा थे, ने अपने साक्षात्कार में कहा कि ‘भारतीय कम्पनियाँ वस्त्रों और फार्मास्यूटिकल्स के क्षेत्र में आगे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि हमारे बीच वास्तविक सम्भावना के क्षेत्र खुलने बाकी हैं, जो छोटे और मध्यम आकार की मशीनों के निर्माण,  पेट्रोरसायन,  फूड प्रोसेसिंग,  खेती जैसे क्षेत्र हैं।’

रूस के साथ शिखर वार्ता के ठीक बाद 8 अक्टूबर को पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने ब्यान दिया था कि ‘भारत ईरान से तेल की खरीद जारी रखेगा।’ हालाँकि सितम्बर और अक्टूबर के महीनों में ईरान से तेल की खरीद में भारत ने अप्रेल से सितम्बर तक की खरीद की तुलना में 120 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की थी। सरकारी क्षेत्र की कम्पनियाँ आईओसीएल और वीपीएल अक्टूबर तक ईरान से तेल खरीद का करार करने से बचती रहीं। इस दौरान सरकार अलग–अलग माध्यमों के जरिये, ईरान के मामले में अमरीकी प्रतिबन्धों से माफी पाने की कोशिशें करती रही। अमरीका ने अभी तक भारत को छूट देने की कोई घोषणा तो नहीं की है लेकिन सम्भावना है कि वह इस मामले में भी छूट दे सकता है। दरअसल ईरान भारत का परम्परागत सहयोगी है और अमरीका सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार, तीसरे पक्ष में सरकारी तेल कम्पनियाँ हैं जिनकी बेहतर सेहत अर्थव्यवस्था को टिकाए रखने के लिए लाजमी है। भारत सरकार अलग–अलग माध्यमों से तीनों को साधने में लगी हुई है। प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले ही भारत में अमरीका के राजदूत ने बयान दिया था कि अमरीका अपने सहयोगी को परेशानी में डालना नहीं चाहता।

भारत अपनी जरूरत का 83 प्रतिशत तेल आयात करता है। इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान भारत को सबसे ज्यादा तेल निर्यात करने वाला देश है। भारत ने इस साल ईरान से औसतन 57.7 लाख बैरल प्रतिदिन तेल खरीदा है। हालाँकि अमरीका के दबाव से हमेशा ईरान से तेल खरीद की मात्रा में उतार–चढ़ाव आता रहा है। 2016 में भारत ने ईरान से जितना तेल खरीदा था, 2017 में उसमें लगभग 40 प्रतिशत की कटौती कर दी। 2018 में यह मात्रा बढ़ी लेकिन अभी तक भी 2016 के स्तर पर नहीं पहुँची है।

तेल के अलावा भारत ईरान से सूखे मेवे, रेजिन, कारपेट, रेड ऑक्साइड, सल्फर, कॉपर, जिंक आदि धातुओं का भी आयात करता है। भारत से ईरान को होने वाले निर्यात में कपड़े, खाद्य पदार्थ, कृषि उत्पाद, रासायनिक उत्पाद, बिजली व रबर का सामान आदि है। ईरान के जो प्रमुख 25 आयात हैं उनमें भारत का हिस्सा लगभग 12 प्रतिशत है।

ईरान भारत को बाजार भाव से 2.5 डॉलर से 1.5 डॉलर प्रति बैरल तक सस्ते दाम पर तेल देता है। भारत और ईरान की तेल कम्पनियों और बैंकों ने रुपया–रियाल नाम से ऐसी व्यवस्था तैयार की है जिससे दोनों देशों को अपनी–अपनी मुद्राओं में भुगतान करने की छूट हो गयी है। दूसरे तेल निर्यातक देश जहाँ भारत से तुरन्त भुगतान माँगते हैं वहीं ईरान 30 से 60 दिन तक का समय देता है। इसके साथ ही वह ढ़लाई खर्च का बड़ा हिस्सा भी खुद वहन करता है।

अमरीका–ईरान नाभकीय समझौता हो जाने के बाद अमरीका, ईरान, भारत ने मिलकर चाबाहार बन्दरगाह (ईरान) को आधुनिक ढंग से तैयार करने और वहाँ से अफगानिस्तान तक रेल मार्ग बिछाने की परियोजना तैयार की थी। इस पर काफी काम हो गया है। भारत की सरकारी तेल कम्पनियों ने बन्दरगाह के निर्माण के लिए 50 करोड़ डॉलर का फंड भी दिया था और भारत सरकार ने रेल मार्ग के लिए 20 अरब डॉलर के निवेश को मंजूरी दी थी। इस परियोजना से भारतीय कम्पनियों की अफगानिस्तान और इराक तक सीधी पहुँच हो जाती। लेकिन अमरीका द्वारा ईरान से समझौता तोड़ देने के चलते यह परियोजना खटाई में पड़ गयी है। अगर अमरीकी दबाव के चलते भारत ईरान से तेल आयात बन्द करता है तो भारत का सारा निवेश ढूब जायेगा। इसके अलावा भारत की तेल कम्पनियों ने ईरान के फैजाद बी गैस फील्ड में हिस्सेदारी खरीदने का समझौता भी कर रखा है जो भारत की बढ़ती उर्जा जरूरतों के लिए एक जरूरी समझौता है।

भारत रूस की अगुवाई वाली नॉर्थ–साऊथ कॉरीडोर परियोजना में भी शामिल है। चाबाहार बन्दरगाह इस परियोजना के केन्द्र में है। रूस की अगुवाई में ही यूरेशियाई आर्थिक संघ बनाने के लिए भी वार्ताएँ चल रही हैं। भारत भी इस महत्त्वकांक्षी परियोजना में शामिल होने का इच्छुक है। हालाँकि इस परियोजना में बहुत सी बाधाएँ हैं और निकट भविष्य में इस पर अमल की सम्भावनाएँ कम ही हैं।

रूस और ईरान के साथ भारत के रिश्तों की मौजूदा स्थिति से स्पष्ट है कि अगर भारत अमरीका की धमकियों को सुनता तो उसे बहुत कुछ खोना पड़ता। जिस कानून के बहाने अमरीका भारत पर प्रतिबन्ध लगाने वाला है वह कानून एकतरफा है। न तो कभी अमरीका ने इस कानून के लिए दूसरे देशों के बीच सहमति बनाने की कोई कोशिश की और न ही इसे संयुक्त राष्ट्र से मान्यता मिली।

नव उदारवाद के जिस सिद्धान्त पर आज की दुनिया चल रही है वह देशों की राजनीतिक आजादी को काफी हद तक स्वीकार करता है और राजनीतिक नियंत्रण के बजाय यह विकसित राष्ट्रों और पिछड़े राष्ट्रों के बीच के विशाल तकनीकी और आर्थिक अन्तर से होने वाले पिछड़े राष्ट्रों के शोषण पर टिका है। इसमें राजनीतिक शोषण गौण पहलू है। अपना आर्थिक आधार कमजोर होने की मजबूरी में और अपने स्वार्थ के चलते कमजोर देशों के पूँजीपति वर्ग ने बहुत सी राजनीतिक बन्दिशों को खुद स्वीकार किया है। क्यूबा, वेनेजुएला, उत्तरी कोरिया, सीरिया, ईरान जैसे थोड़े से देशों की स्थिति अलग है। ये देश नवउदारवादी मॉडल के ही खिलाफ हैं। ये अपनी आजादी बरकरार रखना चाहते हैं। इन्हें नवउदारवाद के दायरे में लाने के लिए नवउदारवाद के अगुवा देश ज्यादातर डंडे के जोर से और कभी–कभी मान–मुनव्वल से कोशिशें करते रहते हैं।

आज भारत के अमरीका की धमकियों पर कान न देने और तात्कालिक रूप से रूस की ओर झुकाव को भारत के शासकों की आजादी के रूप में नहीं देखा जा सकता। नवउदारवाद के किसी देश पर आर्थिक गुलामी थोपने के सबसे कारगर हथियार हैं पूँजी का निवेश, वित्तीय सहायता, आयात–निर्यात के असमान तथा शोषणकारी सम्बन्ध, तकनीकी हस्तान्तरण, मुद्राओं की विनिमय दर में हेरा–फेरी आदि। दो देशों के बीच के रिश्तों में इन हथियारों का इस्तेमाल वही करेगा जिसके पास मजबूत आर्थिक आधार, उन्नत तकनीक और बड़ा पूँजी भण्डार होगा। तीनों ही मामलों में रूस भारत से कहीं आगे है। अत: भारत को शिकार बनना ही है। भारत की आजादी केवल शिकारी का चुनाव करने तक सीमित है। भारत–रूस समझौता नव उदारवादी मॉडल को नहीं तोड़ता। अमरीका की चिन्ता केवल इतनी है कि कहीं उसके बनाये मॉडल में ही रूस उसके लिए चुनौती न बन जाये।

यह सच है कि अमरीका के बजाय रूस के साथ समझौते में भारत की स्थिति तुलनात्मक रूप से थोड़ी बेहतर होती है। क्योंकि दोनों के बीच असमानता की खाई तुलनात्मक रूप से कम चैड़ी है। दरअसल भारत के पास देने के लिए कपड़ों, कृषि उत्पादों और कुछ कच्चे मालों के अलावा कुछ है ही नहीं तो आर्थिक लूट उसे झेलनी ही पड़ेगी। उसे कौन लूट रहा है। इससे विश्व व्यवस्था में कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन अमरीका की हैसियत को झटका जरूर लगता है।

ईरान से तेल आयात जारी रखना आज भारत की मजबूरी बन गयी है। पिछले चार सालों में देश की पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्था इतनी ज्यादा कमजोर हो चुकी है कि एक छोटा सा झटका भी उसे तोड़ सकता है। लगातार बढ़ते एनपीए और नोटबन्दी तथा जीएसटी जैसे मूर्खतापूर्ण फैसलों ने अर्थव्यवस्था को इस हालत में पहुँचा दिया है कि सरकार को रिजर्व बैंक की परिसम्पत्ति हथियाने का कदम उठाना पड़ा है। ऐसे में सस्ते तेल पर भारी टैक्स लगाने से होने वाली आय सरकार का एक बड़ा आर्थिक सहारा बन गयी है। ऐसी हालत में खुद अमरीका भी नहीं चाहेगा कि दक्षिणी एशिया का उसका सबसे बड़ा सहयोगी तबाह हो जाये। न तो भारत के शासक वर्ग की यह इच्छा है और न ही उसमें इतना दम है कि वह तेल के बेतहाशा निजी उपभोग पर कुछ अंकुश लगाकर अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाये। इसके उलट वह उपभोग को बढ़ावा देकर अपना मुनाफा बढ़ाता है। जबकि पाकिस्तान चीन की ओर काफी झुक गया है। अमरीका के नाटो के सहयोगी सभी यूरोपीय देश ईरान पर अमरीकी प्रतिबन्धों का विरोध कर रहे हैं और उसके साथ व्यापार जारी रखे हुए हैं। इससे भारत के शासकों में भी थोड़ी हिम्मत आ गयी है।

आज की दुनिया बेहद जटिल तरीके से चल रही है। उसकी अतिसरलीकृत और लोकप्रियतावादी व्याख्या करने के चक्कर में हम अपनी सोच के दायरे से टकराने वाले असुविधाजनक तथ्यों की अनदेखी कर देते हैं। लेकिन दुनिया को आगे बढ़ाने की कोई भी रणनीति बनाने के लिए ठोस परिस्थितियों का ठोस विशलेषण जरूरी है। जो सोच भारत को कठपुतली देश मानती है उसके लिए मौजूदा घटनाओं का विश्लेषण करना सम्भव नहीं है और जो सोच भारत को एक आजाद देश मानती है वह भी गलत है। नवउदारवादी मॉडल को स्वीकार करने के बाद किसी देश का आजाद रहना मुमकिन ही नहीं है।

नवउदारवादी मॉडल एक साम्राज्यवादी मॉडल है। यह कमजोर राष्ट्रों को राजनीतिक रूप से गुलाम बनाकर नहीं बल्कि आर्थिक नीतियों के जरिये और कमजोर देशों के शासक पूँजीपति वर्ग को साथ मिलाकर लूटता है। यह एक नये तरह का आर्थिक साम्राज्यवाद है। साम्राज्यवाद छोटे उत्पादन को हजम करके पैदा हुआ है। वह प्रतियोगिता को पसन्द नहीं करता। अमरीका के ही बनाये हुए इस मॉडल में जब रूस और चीन जैसे देश उससे प्रतियोगिता करते नजर आते हैं तो वह उनके खिलाफ भी तानाशाही का रवैया अपनाता है और ईरान जैसे देशों के खिलाफ भी तानाशाही का रवैया अपनाता है, जो उसके मॉडल को हूबहू स्वीकार नहीं करते।

तीसरी दुनिया के भारत जैसे देशों में विकास का निम्न स्तर ही आज पहली दुनिया के विकसित देशों को जिन्दा रखे हुए है। तीसरी दुनिया के देशों में वहाँ की मेहनतकश जनता के खून–पसीने से जो अतिरिक्त मूल्य तैयार होता है उसका बड़ा हिस्सा नवउदारवादी नीतियों के रास्ते विकसित देशों में पहुँच जाता है। इसको केवल नवउदारवाद से पूर्णत: सम्बन्ध विच्छेद करके और आत्मनिर्भर विकास का रास्ता अपनाकर ही रोका जा सकता है। रूस और ईरान के साथ हुए भारत के समझौते उसके आत्मनिर्भर बनने को नहीं बल्कि उदारवादी मॉडल को और ज्यादा स्वीकार करने को दर्शाते हैं। ये मौजूदा विश्व व्यवस्था के खिलाफ नहीं है।

निश्चय ही भारत का शासक पूँजीपति वर्ग उदारवाद के विरोध का कदम उठा भी नहीं सकता। वह बहुत पहले ही इस रास्ते को त्याग चुका है। आज विदेशी पूँजी और तकनीकी के बिना वह अपने देश की जनता का उतना शोषण नहीं कर सकता जितना कर रहा है। अपने देश के थोड़े से उपभोक्ता वर्ग की जरूरत का सामान तैयार करने लायक पूँजी और तकनीकी भी उसके पास नहीं है।

जो शासक वर्ग आर्थिक और तकनीकी रूप से इतना परनिर्भर हो, उसके लिए राजनीतिक आजादी के कोई खास मायने नहीं होते। बहुत सामान्य सी बात है आत्मनिर्भरता का सपना देखने वाला कोई गया गुजरा शासक भी अपने देश की जनता को भूखा मारकर अरबों–खरबों रुपये की मिसाइलें नहीं खरीद सकता या अपने देश की रेलों को राम भरोसे छोड़कर विदेशों में पटरियाँ बिछाने नहीं भागता या सार्वजनिक परिवहन का नाश करके कारों को बेलगाम छूट नहीं देता।

इन देशों का शासक वर्ग बहुत पहले ही अपने शासन करने के अधिकार और क्षमता को गँवा चुका है। अब वह अपनी जनता को बेरोजगारी, भुखमरी, कंगाली और तरह–तरह की सामाजिक, संस्कृतिक बीमारियों के अलावा कुछ नहीं दे सकता। वह देश बेचकर अय्याशियों के नशे में डूबा है। उसके पास कोई सपना नहीं है। नशे में डूबा यह शासक वर्ग केवल जनता के उन क्रान्तिकारी तूफानों का इन्तजार कर रहा है जो इसके सिंहासन को उलट दें। अब यह जनता के ऊपर है कि वह इसकी हसरत को कब पूरा करेगी। विश्व व्यवस्था में छोटे–मोटे बदलाव चलते रहेंगे लेकिन कोई बड़ा बदलाव अब जनता के क्रान्तिकारी तूफानों से ही सम्भव है।

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