जनवरी 2021, अंक 37 में प्रकाशित

गिग अर्थव्यवस्था का बढ़ता दबदबा

अर्थव्यवस्था का एक नया रूप है–– गिग अर्थव्यवस्था। यह शब्द भले ही नया है, पर इस तरह की अर्थव्यवस्था से हम सब किसी न किसी रूप में परिचित हैं। आज गिग अर्थव्यवस्था दुनियाभर में तेजी से पैर पसार रही है। कम्पनियों की पहली चाहत गिग मजदूर बन गये हैं।

आज बढ़ती तकनीक और कम्युनिकेशन के माध्यमों ने हम सब की जिन्दगी को बदल दिया है। जिन्दगी के सभी आयाम किसी न किसी रूप में नयी तकनीक से प्रभावित हैं। आज इण्टरनेट और स्मार्टफोन शरीर के अभिन्न अंगों की तरह हो गये हैं। मथुरा में बैठे नौजवान को अमरीकी राष्ट्रपति के द्वारा किया गया ट्वीट पल भर में मिल जाता है। कम्युनिकेशन का इतना सशक्त माध्यम पहले कभी नहीं रहा। इस तकनीक तक आम आदमी की जितनी पहुँच बढ़ी है, जितना फायदा होता हुआ दिखायी देता है उससे लाखों गुना फायदा साम्राज्यवादी देशों और उनके बड़े–बड़े निगमों ने उठाया है। गिग अर्थव्यवस्था गिग मजदूर के शोषण करने की एक नयी व्यवस्था है।

कुछ ठोस उदाहरण लेते हैं। शहरों और कस्बों में टैक्सी सुविधा उपलब्ध कराने वाली कम्पनी उबेर को आज सभी स्मार्टफोन धारक जानते हैं। इसमें गाड़ी का ड्राइवर एक स्मार्टफोन के माध्यम से उबेर से जुड़ा रहता है। ग्राहक भी स्मार्टफोन के जरिये कम्पनी से जुड़े होते हैं। कम्पनी के ग्राहक को ड्राइवर ने एक शहर से दूसरे शहर जाने की सुविधा उपलब्ध करायी। बदले में ग्राहक ने कम्पनी को भुगतान किया। कम्पनी ने अपना हिस्सा लेकर बचा हुआ ड्राइवर के खाते में भेज दिया। अब थोड़ा गौर कीजिए–– ग्राहक कम्पनी से जुड़ा है, सेवा देने वाला कर्मचारी कम्पनी का नहीं है। वह सिर्फ अपनी सेवा दे रहा है। बदले में एक तय कीमत उसे मिल जाएगी। इसे ही गिग अर्थव्यवस्था कहते हैं। इसमें शामिल कर्मचारियों को गिग मजदूर कहते हैं। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इण्डिया के जननीति संस्थान द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जो बताती है कि गिग मजदूर को आठ घण्टे से ज्यादा कार्यदिवस में भी न्यूनतम मजदूरी जितने रुपये नहीं मिलते।

उबेर में सेवारत ड्राइवर को कम्पनी ने नियुक्त नहीं किया। उसका कोई मासिक वेतन नहीं है। उसकी कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं है। कोई मेडिकल छुट्टी नहीं है। जितने घण्टे वह काम करेगा उतने की मजदूरी मिलेगी। ड्राइवर के प्रति कम्पनी की कोई जिम्मेदारी नहीं है। काम के दौरान चोट लगे, या मौत भी हो जाये तो कम्पनी की तरफ से कोई क्षतिपूर्ति नहीं की जाती। भारत से लेकर अमरीका तक सभी देशों में कम्पनी का यही रवैया है। इसी का नतीजा है कि एक तरफ उबेर जैसी कम्पनियों से जुड़े हुए ड्राइवर पन्द्रह–पन्द्रह घण्टे काम करके किसी तरह गाड़ियों की किस्त निकाल पाते हैं। दूसरी तरफ उबेर का मालिक ट्राविस कॉर्डेल कैलिफोर्निया में बैठा–बैठा अरबपति बन जाता है। आज उसकी घोषित सम्पत्ति ढाई अरब डॉलर (1,75,000 करोड़ रुपये) से भी ज्यादा है।

पूरी दुनिया में इस तरह की सैकड़ों दिग्गज कम्पनियाँ काम कर रही हैं जो सिर्फ एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराती हैं। ग्राहक को सर्विस देने वाले से जोड़ती हैं और अरबों डॉलर कमाती हैं यानी हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा होवे। ये कम्पनियाँ शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, भोजन, रिटेल, घर या प्लाट की खरीद बिक्री और किराये से सम्बन्धित, लेखन, अनुवाद, तकनीकी सहायता और कानूनी सेवाओं जैसे क्षेत्रों में काम कर रही हैं। इसमें अमेजन, फ्लिपकार्ट, जोमाटो, फ्रीलांसर, फील्ड नेशन, राकेट लॉयर, बर्ड और उबेर जैसी सैकड़ों कम्पनी शामिल हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा कम्पनियों के मालिक अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देशों से हैं। यानी साम्राज्यवादी देश अब किसी देश में सेना के साथ जाकर वहाँ के अर्थतंत्र पर कब्जा नहीं करते। बल्कि पूँजी और तकनीकी के दम पर वे किसी भी देश के सबसे ज्यादा पढ़े–लिखे मजदूर से अपनी कम्पनी के लिए काम करवाते हैं और अकूत मुनाफा कमाते हैं। इस समय भारत में करीब तेरह करोड़ गिग मजदूर हैं। यह संख्या हर रोज बढ़ रही है। यहाँ तक कि देश में जो नये रोजगार पैदा हो रहे हैं उनमें 56 प्रतिशत गिग अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं। एक तरफ सरकार की तरफ से श्रम कानूनों में ढील दी जा रही है दूसरी ओर उतनी ही संख्या गिग मजदूर की बढ़ रही है। गिग अर्थव्यवस्था के मुनाफे को देखते हुए भारत की तमाम कम्पनियाँ चाहती हैं कि उन्हें भी अस्थायी मजदूर रखने की छूट दी जाये। मतलब वे जब चाहें, जितनी देर तक चाहें कर्मचारी को रखकर अपना काम निकाल लें।

अमरीका ने गिग अर्थव्यवस्था पर काफी समय पहले से ही काम करना शुरू कर दिया था। यही वजह है कि आज उसकी सैकड़ों कम्पनियाँ इस क्षेत्र में सबसे आगे हैं। उसके कई संस्थान गिग अर्थव्यवस्था के विश्लेषण के लिए ही पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। नाको (अमरीका के अलग–अलग क्षेत्रों का राष्ट्रीय संगठन) ने एक अध्ययन में बताया कि गिग अर्थव्यवस्था ही कारोबार का भविष्य है। खुद अमरीका में 36 फीसदी मजदूर गिग अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। यूरोप में भी यह तेजी से बढ़ रही है। यूरोपीय यूनियन के देशों में भी करीब 10 फीसदी लोग गिग अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं।

गिग अर्थव्यवस्था का विस्तार ऐसे ही नहीं हो रहा है, बल्कि उसके अपने कुछ फायदे भी गिनाये जाते हैं। जैसे आप कभी भी काम कर सकते हैं। काम के लचीले घण्टे। आपका मन है दो घण्टे काम करने का तो दो ही घण्टे कीजिए। आप अपने घर से काम कर सकते हैं। परिवार के साथ रहकर। आप घूमते हुए काम कर सकते हैं। देश–दुनिया की यात्रा करें और काम भी करें। आपको किसी बॉस के सामने जी–हुजूरी नहीं करनी। आप खुद अपने मालिक हैं। कुल मिलाकर आपकी आजादी का इतना खयाल रखा जाता है कि खुद आपने भी न सोचा होगा। इसके फायदे इस तरह पेश किये जाते हैं, जैसे पूँजीवादी व्यवस्था ने मजदूर की जितनी आजादी छीनी, वह गिग अर्थव्यवस्था ने वापस कर दी हो। पर सच्चाई यह नहीं है।

पहली बात तो यह कि गिग अर्थव्यवस्था कोई अलग से आजादी पसन्द लोगों की अर्थव्यवस्था नहीं है। वह इसी पूँजीवादी व्यवस्था का हिस्सा है। उसकी गति का मुख्य कारक मुनाफा ही है। यहाँ तक कि फैक्ट्री लगाकर मजदूर का शोषण करके कोई पूँजीपति इतने मुनाफे की कल्पना भी नहीं कर सकता जितना मुनाफा गिग कम्पनियाँ एक मोबाइल ऐप बनाकर कमा लेती हैं। इसका मतलब हुआ यहाँ शोषण हजारों गुना है। हाँ ये उन लोगों के लिए जरूर अतिरिक्त आय का साधन बन गया है जो पहले से ही कहीं नौकरी करते हैं और साथ में ऑनलाइन काम करके कमाई कर लेते हैं।

जो लोग पूरे समय गिग अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं वे हमेशा काम की तलाश में मानसिक उत्पीड़न का शिकार रहते हैं। तरह–तरह के कौशल विकास कार्यक्रम वास्तव में गिग मजदूर की संख्या बढ़ाने के कार्यक्रम हैं। इनसे देश में ऐसे नौजवानों की फौज खड़ी हो जायेगी जो स्मार्ट फोन लेकर एक डॉलर के लिए आधी रात को भी जागकर बोलेगा–– हेलो मिस डोली, हाउ कैन आई हेल्प यू ? एक हद तक भारत वैसी ही अर्थव्यवस्था बन चुका है। रहा बचा तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है।

पूँजीवाद के शीर्ष देश, जी–7 का समूह आज माल उत्पादन पर आधारित अर्थव्यवस्था पर काम नहीं कर रहे। वे हथियार उत्पादन में जरूर बढ़–चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। इसके अलावा तकनीक आधारित शोषण आज उनकी पहली पसन्द है। गिग अर्थव्यवस्था इसी का हिस्सा है। हमारे देश के नेता भी इस तरह डिजिटलीकरण, विनिवेशीकरण और निजीकरण कर रहे हैं कि वह अपने देश से ज्यादा अमरीकी कम्पनियों को फायदा पहुँचाये। कौशल विकास भी विदेशी कम्पनियों के हितों के अनुसार किया जा रहा है। पर यह बात कौन समझाये कि गिग अर्थव्यवस्था में गिग मजदूर के नहीं गिग कम्पनियों के अच्छे दिन आते हैं।

सरकार आज चाहे तो गिग कम्पनियों पर रोक लगाकर उस काम को अपने हाथ में लेकर एक व्यवस्थागत रूप दे सकती है। उदाहरण के लिए उबेर की जगह “भारत” टैक्सी सर्विस चल सकती है। अमेजन की जगह कोई भारत सरकार का भी प्लेटफॉर्म हो सकता है जो ग्राहक और बिक्रेता को जोड़ दे। डिलीवरी के लिए नये पोस्टमैन की भर्ती करके सरकार अपने हाथ में जिम्मेदारी ले सकती। इससे असली रोजगार पैदा होगा और नौजवान सात समुन्दर पार की किसी कम्पनी के ऊपर निर्भर नहीं रहेंगे। तब असल में भारत आत्मनिर्भर बनेगा। पर जहाँ पहले से ही मुनाफे में चलने वाले संस्थानों को बेचकर खत्म करने की योजना चल रही हो, वहाँ बेचने की जगह नया बनाने की कौन सोचे ?

 
 

 

 

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