अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

सऊदी अरब के तेल संस्थानों पर हमला: पश्चिमी एशिया में अमरीकी साम्राज्यवाद के पतन का संकेत

14 सितम्बर को सऊदी अरब के दो सबसे बडे़ तेल संस्थानों, अबकैक तेल शोधन संयंत्र और खुरैश तेल क्षेत्र पर ड्रोन विमानों और क्रूज मिसाइलों से जबरदस्त और सटीक हमला हुआ। इससे सऊदी अरब का 50 प्रतिशत से ज्यादा तेल उत्पादन ठप्प हो गया। नतीजतन दो दिन में ही दुनिया में कच्चे तेल की कीमतों में 13 प्रतिशत तक का उछाल आया। दुनिया में हुए युद्धों के हिसाब से भले ही यह हमला मामूली लगे, लेकिन इसने पश्चिमी एशिया में अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके पिट्ठूओं के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। 30 सितम्बर को सीवीएस टीवी को दिये इंटरव्यू में सऊदी सुल्तान मुहम्मद बिन सलमान ने चेतावनी दी है कि इस हमले के परिणामस्वरूप पैदा होने वाले युद्ध का खामियाजा सिर्फ सऊदी अरब नहीं भुगतेगा बल्कि यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के पतन का कारण बनेगा।
इस हमले की जिम्मेदारी यमन के हूथी विद्रोहियों ने ली है। हालाँकि इन्हें विद्रोही कहना सरासर गलत है क्योंकि यमन का अधिकांश भूभाग और राजधानी साना वर्षों से इनके नियंत्रण में है, राष्ट्रपति देश छोड़कर भागे हुए हैं और हूथी विद्रोही राष्ट्र की सम्प्रभुता की रक्षा के लिए सऊदी अरब के साथ जीवन–मरण का संघर्ष चला रहे हैं। ईरान समेत कई देश इन्हें यमन की असली सरकार मानकर इनका समर्थन करते हैं। जैसा कि होना ही था, सऊदी अरब और अमरीका ने ईरान को हमले का जिम्मेदार ठहराया और दावा किया कि हूथी 1250 किलोमीटर की दूरी पर इतना सटीक हमला नहीं कर सकते, जबकि अमरीका के विश्व–प्रतिष्ठित अखबार “द न्यूयार्क टाइम्स” का कहना है कि हमला ईरान या इराक की दिशा से नहीं हुआ है। अमरीका और सऊदी अरब ने हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार ठहरा तो दिया, लेकिन उनके पास न तो इसका कोई सबूत है और न ही वे ईरान पर कोई कार्रवाई करने की स्थिति में है। अमरीका ने ईरान को इस हमले की जाँच संयुक्त राष्ट्र से कराने की धमकी दी, लेकिन ईरान उससे पहले खुद ही यह माँग कर चुका है।
 सऊदी अरब पर हमला ईरान ने किया या हूथियों ने? इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि हमला हुआ कैसे? सऊदी अरब के लिए इससे ज्यादा चिन्ता की बात क्या होगी कि वह दुनिया का सबसे बडा हथियार खरीदार देश है, उसका रक्षा बजट अमरीका और चीन के बाद सबसे ज्यादा है, उसके पास अमरीका से खरीदी गयी दुनिया की सबसे उन्नत वायु रक्षा प्रणाली और रडारें हैं। इसके बावजूद वह हमला रोकने में नाकाम रहा, यहाँ तक कि उसे यह भी मालूम नहीं कि हमले में शामिल 18 ड्रोन और 7 क्रूज मिसाइलें कहाँ से आयी थीं। 1250 किलोमीटर दूर से अर्जुन के तीर की तरह सटीक निशाना बेधने वाले ड्रोनों और मिसाइलों के अवशेष मात्र ही उसके पास हैं।
 1945 से ही अमरीकी नीति, तेल के रूप में दुनिया को सर्वाधिक ऊर्जा की आपूर्ति करने वाले पश्चिमी एशिया पर राजनीतिक और सैन्य प्रभुत्व कायम करने की रही है। 1979 का “कार्टर सिद्धान्त” कहता है इस क्षेत्र के तेल और गैस को सुरक्षित रखने के लिए सेना के इस्तेमाल का अधिकार निश्चित रूप से अमरीका को अपने पास रखना है। इसी को ध्यान में रखते हुए अमरीका ने इस क्षेत्र में अपने सैन्य अड्डों का जाल बिछा रखा है और उसका सबसे बडा जंगी बेड़ा–– पाँचवा बेड़ा फारस की खाड़ी में तैनात रहता है और यह पूरा क्षेत्र अमरीकी सैटेलाइट कैमरों की निगरानी में है। इसके बावजूद अमरीका के पास इस हमले से सम्बन्धित कोई भी तथ्य नहीं है। इसके विपरीत सैन्य तकनीक के मामले में जिस ईरान को अमरीका “आदिम” समझता था उसने 60 हजार फीट की ऊँचाई पर अमरीका के सबसे उन्नत ड्रोन विमान को मार गिराया था। इन तथ्यों ने अमरीका की अपराजेय सैन्य शक्ति पर सवालिया निशान खड़ा किया है और उसके लिए गम्भीर चुनौती पैदा कर दी है।
सऊदी अरब पर हुए हमले ने इस ऐतिहासिक सच्चाई को एक बार फिर सामने ला दिया है कि उन्नत तकनीक के महँगे विदेशी हथियार केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे की गारन्टी करते हैं किसी देश की सुरक्षा की गारन्टी नहीं कर सकते। इस हमले में केवल दो दर्जन ड्रोन और मिसाइलें इस्तेमाल की गयीं और इनके निशाने पर केवल सऊदी अरब के दो तेल संयंत्र थे। कल्पना कीजिये, अगर इनकी संख्या सैंकड़ों में होती और इनके निशाने पर पूरे क्षेत्र के तेल संयंत्र और अमरीका के पाँचवे बेड़े समेत सऊदी सुलतान का महल भी होता तो क्या होता? 
साम्राज्यवादी दम्भ के प्रदर्शन और ईरान को झुकाने के लिए अपनायी जा रही “अधिकतम दबाव” की रणनीति के चलते अमरीका और सऊदी अरब यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि हूथियों के पास हमला करने की ऐसी क्षमता है। सच्चाई यह है कि जबसे सऊदी अरब ने यमन के बन्दरगाहों को तबाह किया है, तबसे हूथी दजर्नों बार सऊदी अरब पर ड्रोनों और मिसाइलों से हमले कर चुके हैं और चार सालों के लम्बे युद्ध के बाद भी सऊदी अरब न तो पूर्व राष्ट्रपति हादी की सत्ता में वापसी करा पाया है और न ही यमन के किसी भी क्षेत्र पर नियंत्रण कायम कर पाया है। इस जमीनी सच्चाई को स्वीकार करके सऊदी अरब का मजबूत सहयोगी, संयुक्त अरब अमीरात यमन के मोर्चे से अपनी सेनाएँ वापस बुला चुका है और हूथियों के साथ समझौता वर्ताएँ कर रहा है।
हूथियों को हमले का दोषी न मानने का दूसरा और ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि हूथियों को दोषी ठहराने का नतीजा होगा यमन पर आक्रमण करना। चूँकि सऊदी अरब तो पिछले चार सालों से यही कर रहा है इसलिए अमरीका को अपना पाँचवा बेड़ा फारस की खाड़ी से निकालकर इस कर्रवाई में झोंकना पडे़गा। दूसरे नतीजों के अलावा इसका एक नतीजा यह भी होगा कि अगले साल जब अमरीकी नागरिक राष्ट्रपति चुनने के लिए बक्सों में अपने मत डाल रहे होंगे, ठीक उसी समय पश्चिमी एशिया से अमरीकी सैनिकों की लाशों के बक्से भी वहाँ पहुँच रहे होंगे। ट्रम्प ऐसा कभी नहीं चाहेगा। ईरान के साथ उलझकर वह पहले ही अमरीका को ऐसी स्थिति में पहुँचा चुका है कि अब उसे न उगलते बन रहा है, न निगलते।
दरअसल, जार्ज बुश (जूनियर) के शासन काल में अमरीकी सेना ने अपनी “एशियाई केन्द्र” की नीति के तहत, भविष्य में चीन और रूस से होने वाले सम्भावित टकरावों की तैयारी शुरू की थी। ओबामा के कार्यकाल में यह तैयारी और तेजी से जारी रही। ईरान के साथ समझौता करने में छोटा ही सही लेकिन एक कारण यह भी था कि अमरीका फारस की खाड़ी के बजाय अपना सारा ध्यान दक्षिणी चीन सागर और बाल्टिक सागर में केन्द्रित करना चाहता था। लेकिन ट्रम्प और उनकी मण्डली ने तात्कालिक स्वार्थों को पूरा करने के उतावलेपन और मूर्खता के चलते ईरान के उस संकट को पुनर्जीवित कर दिया है जिससे बराक ओबामा ने बड़ी चतुराई से अमरीका का पिण्ड छुड़ाया था।
1979 की इस्लामिक क्रान्ति के बाद ईरान अमरीका को “कार्टर सिद्धान्त” की राह में बाधा लगने लगा। क्योंकि क्रान्ति से पहले सत्तासीन मोहम्मद रजा पहलवी अमरीका का पिट्ठू था। उसके साथ अमरीका ने अपने “शान्ति के लिए परमाणु” कार्यक्रम के तहत समझौता करके ईरान को पहला परमाणु रियेक्टर “तेहरान रिसर्च रियेक्टर” दिया था और यूरोप के सहयोग से ईरान में 20 परमाणु संयंत्र लगाने की योजना बनायी थी। जिसके लिए ईरान ने अमरीका, जर्मनी और प्ऱांस को विशाल धनराशि दी थी। 1968 में ईरान ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर भी कर दिये थे। लेकिन 1979 की क्रान्ति के बाद ईरान ने मुख्यत: आत्मनिर्भर विकास की नीति अपनायी लेकिन परमाणु अप्रसार की पुरानी नीति को जारी रखा। ईरान की नयी सरकार ने केवल पुराने समझौतों में तय की गयी परियोजनाओं, जिनके लिए ईरान ने अमरीका, जर्मनी और फ्रांस को भारी रकम दिया था, उसे ही पूरा करने और कोई नयी परियोजना शुरू न करने की घोषण की। लेकिन इन तथाकथित विश्व शान्ति दूतों ने ईरान के साथ किये गये समझौते तोड़ दिये, उसकी भारी धनराशि हड़प ली और उस पर प्रतिबन्ध लगा दिये।
बाद में ईरान ने परमाणु अप्रसार संधि के दायरे में रहकर ही यूरेनियम संवर्धन की अपनी देशी तकनीक विकसित कर ली। सन् 2002 के बाद से अमरीका ने ईरान पर परमाणु हथियार विकसित करने का आरोप लगाना शुरू किया जिन्हें वह कभी साबित तो नहीं कर पाया, लेकिन इनके जरिये ईरान पर लगातार दबाव बनाये रखने में कामयाब रहा। इसके बावजूद भी 2014 तक ईरान नाभकीय हथियारों के स्तर तक यूरेनियम संवर्धन की तकनीक विकसित कर चुका था। प्रतिबन्धों के चलते ईरान को नुकसान की तुलना में लाभ अधिक हुआ, वह आत्मनिर्भर विकास के रास्ते पर चलने और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की लुटेरी नीतियों की चपेट में आने से काफी हद तक बचा रहा।
2010 के बाद पश्चिमी एशिया और अरब जगत में अमरीकी आशाओं के विपरीत घटनाएँ घटी। 2011 के “अरब का बंसत” आन्दोलन ने क्षेत्र में अमरीका के मजबूत सहयोगियों ट्यूनीशिया और मिस्र की सत्ताओं को ध्वस्त कर दिया। 2013 में अमरीका की इराक पर पकड़ और भी कमजोर हुई। इसके साथ ही 2011 में उसे लीबिया को उसके हाल पर छोड़कर भागना पड़ा। 2014 में पश्चिमी एशिया में आईएसआईएस का जबरदस्त उभार हुआ जो खुद अमरीकी मक्कारियों की पैदाइश था और अब अमरीका के लिए ही नयी–नयी समस्याएँ पैदा कर रहा था। दूसरी ओर इराक, लीबिया, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन और यमन में अमरीका और उसके सहयोगियों के खूनी हस्तक्षेप ने ईरान को इस क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करने का भरपूर मौका दिया। सबसे बडे़ तेल उत्पादक क्षेत्र में तेजी से घट रही इन घटनाओं से अमरीका का “कार्टर सिद्धान्त” खतरे में नजर आने लगा। इन परिस्थितियों में बराक ओबामा के चतुर साम्राज्यवादी नेतृत्व ने महत्त्वपूर्ण भू–स्थिति वाले ईरान से सीधे टकराने के बजाय समझौते के जरिये उसे नियंत्रत रखने की नीति अपनायी। दरअसल 2010 के बाद एक वैश्विक आर्थिक और सामरिक ताकत के रूप में अमरीका की क्षमताओं में तेज गिरावट आनी शुरू हो गयी थी जिसे ओबामा सरकार प्रतिरक्षात्मक रूख अपनाकर रोकने की कोशिश कर रही थी।
दुनिया के दूसरे देशों की तरह ही ईरान का समाज भी वर्गों में विभाजित है। वहाँ भी अमीरी–गरीबी के बीच गहरी खाई मौजूद है। ईरान का शासक वर्ग भी वैश्विक पूँजी से गठबन्धन करके सम्प्रभुत्ता की कीमत पर अकूत मुनाफा कमाने के सपने देखता है। इस वर्ग के सामाजिक आधार के रूप में एक ऐसा बड़ा मध्यम वर्ग भी ईरान में मौजूद है जो अमरीकी और यूरोपीय मालों के लिए हमेशा लालायित रहता है। इसी वर्ग की लालसा ने “इस्लामिक ईरान के निर्माताओं के संगठन” के प्रमुख नेता मोहम्मद अहमदी नेजाद जो ईरान की सम्प्रभुता के प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध थे, उनको 2013 में राष्ट्रीपति पद से हटाकर पूर्व नाभिकीय वार्ताकार हसन रूहानी को सत्ता की बागडोर सौंपी थी। 2013 में जब अमरीका ने समझौते की पहल की तो ईरान का शासक वर्ग भी तुरन्त तैयार हो गया। आखिरकार 20 महीने की लम्बी बातचीत के बाद सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों और जर्मनी को साथ लेकर 2015 में ज्वाइन्ट काम्प्रीहैन्सिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीवीए) के नाम से अमरीका और ईरान के बीच समझौता हो गया। यह समझौता मूलत: अमरीका के हित में था और ईरान को केवल प्रतिबन्धों से मुक्ति मिली थी।
2016 में जिस समूह ने अमरीका की सत्ता सम्हाली वह पहले से ही ईरान के साथ समझौते का विरोधी था। 2015 में ट्रम्प ने कहा था कि “ईरान के साथ नाभिकीय समझौता अमरीका और पूरी दुनिया के लिए भयावह है। इसने ईरान को धनी बनाने के अलावा कुछ नहीं किया है।” मई 2018 में ईरान से साथ हुए नाभकीय समझौते को अमरीका ने एकतरफा ढंग से तोड़ दिया। इससे कुछ ही दिन पहले संयुक्त राष्ट्र के अध्यक्ष अमानो ने कहा था कि “जितना मैं जानता हूँ उसके आधार पर कह सकता हूँ कि ईरान नाभकीय समझौते से सम्बन्धित अपने सभी वादे पूरे कर रहा है।”
अमरीकी साम्राज्य के पतन के दौर में ट्रम्प ने ईरान के मामले में, ओबामा के विपरीत, “अधिकतम दबाव” की आक्रामक नीति अपनाने की भूल की और ईरान से समझौता तोड़ने के साथ ही उस पर पहले से भी कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध थोप दिये। इससे ज्यादा वह कुछ कर भी नहीं सकता था। देश–विदेश के पिछले अंक में हमने विस्तार से बताया था कि अमरीका ईरान के साथ युद्ध नहीं करेगा, क्योंकि युद्ध अमरीका और पूरी विश्व–अर्थव्यवस्था के लिए प्राणघातक साबित होगा। इसकी पुष्टि अब सऊदी अरब के सुल्तान ने भी कर दी है।
ईरान के खिलाफ ट्रम्प प्रशासन की कार्रवाइयों ने ईरान के शासक वर्ग के लिए सभी रास्ते बन्द कर दिये हैं। रूहानी की सरकार ने पिछले समझौते में अमरीका और यूरोप से “बेहतर सम्बन्ध” बनाने के लिए ईरानी हितों का अधिकतम बलिदान कर दिया था। पिछले समझौते की शर्तों से पीछे हटकर समझौता करना रूहानी के लिए सम्भव नहीं है। ईरान के सर्वोच्च नेता आयातुल्ला खमैनी ने पिछले दिनों एक जन सम्बोधन में कहा था कि वह नाभकीय समझौते में रूहानी सरकार द्वारा स्वीकार की गयी शर्तों से असहमत हैं।
यह स्पष्ट है कि अमरीका ईरान से युद्ध करने की स्थिति में नहीं है और प्रतिबन्धों के रूप में ट्रम्प जो अधिकतम कर सकता था, कर चुका है। अब अमरीका की लाचारी स्पष्ट दिखने लगी है। सऊदी अरब पर हमले के लिए उसने ईरान को जिम्मेदार तो ठहरा दिया, लेकिन कोई प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई नहीं कर पाया। अब उसके लिए पीछे हटने के अलावा कोई रास्ता नहीं जिसके दो तरीके हो सकते हैं। पहला, अमरीका थोड़े फेरबदल के साथ पुराने समझौते को ही बहाल करे। दूसरा, ईरान के मामले को कुछ समय के लिए ठण्डे बस्ते में डाल देे, लेकिन इससे अमरीका के आर्थिक प्रभुत्व को भारी नुकसान पहुँचने का खतरा है। आज अमरीका आर्थिक मोर्चे पर भारी तनाव की स्थिति में है। उसने दुनिया के दो प्रमुख तेल उत्पादक देशों वेनेजुएला और ईरान पर प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। यूरोप के देश और रूस, चीन, भारत जैसे देश जिनकी अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि दर धीमी पड़ती जा रही है, इन प्रतिबन्धों से होने वाले नुकसान को ज्यादा दिन झेलने की स्थिति में नहीं हैं। अमरीकी प्रतिबन्धों को स्वीकार करने के पीछे उनकी मजबूरी यह है कि तेल के भुगतान के लिए इस्तेमाल होने वाली विश्व वैकिंग व्यवस्था पर अमरीका का प्रभुत्व है और इसमें लेनदेन डॉलर में होता है। अगर कोई राष्ट्र अमरीकी प्रतिबन्धों को स्वीकार नहीं करता है तो अमरीका उसके तेल व्यापार को ठप्प कर सकता है। अगर ईरान पर अमरीकी प्रतिबन्ध लम्बे समय तक जारी रहे तो निश्चय ही ये देश ईरान और बेनेजुएला से तेल खरीदने के लिए कोई न कोई वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए बाध्य होंगे जो अमरीकी बैंकों और डॉलर के लिए प्राणघातक साबित होगा। हाल ही में तुर्की ने तो अमरीकी प्रतिबन्धों को चुनौती देकर ईरान से तेल खरीद जारी रखने, बल्कि और ज्यादा बढ़ाने की घोषणा भी कर दी है।
ज्यादा सम्भावना यही है कि अपनी बैकिंग व्यवस्था के लिए जानलेवा संकट खड़ा करने के बजाय ट्रम्प और उसकी मण्डली ‘लौट के बुद्धू घर को आये’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए ईरान के साथ समझौते की कोशिश करेगी। दरअसल क्रूर लुटेरे साम्राज्य को चलाने के लिए जितनी चालाकी, धूर्तता, धैर्य और दूरदृष्टि की जरूरत है ट्रम्प और उनकी मण्डली उतनी ही मूर्ख, घमण्डी और उतावलेपन की शिकार है। अमरीकी साम्राज्यवाद का नाश तो तय है लेकिन ट्रम्प जैसों की मूर्खता ने उसे और करीब ला दिया है। पश्चिमी एशिया में इसके स्पष्ट संकेत दिखायी देने लगे हैं।
 

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