अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

अमरीका–ईरान समझौते का शिशु–वध

8 मई को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ईरान के साथ 2015 में हुए परमाणु समझौते को तोड़ने की एकतरफा घोषणा कर दी। ट्रम्प का कहना था, “मेरे लिए यह स्पष्ट है कि हम इस समझौते के साथ रहकर ईरान को  परमाणु बम बनाने से नहीं रोक सकते हैं। ईरान समझौता मूल रूप से दोषपूर्ण है। इसलिए मैं आज ईरान परमाणु समझौते से अमरीका के हटने की घोषणा करता हूँ”। घोषणा के कुछ ही देर बाद ईरान पर नये प्रतिबन्ध लगा दिये गये।

यह समझौता ओबामा सरकार के दौरान ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थाई सदस्यों (अमरीका, ब्रिटेन, रूस, चीन और फ्रांस) और जर्मनी के बीच  हुआ था। जेनेवा में हुए इस समझौते के अनुसार ईरान ने वादा किया था कि वह लगभग 15 टन संवर्धित यूरेनियम के भंडार को 98 फीसदी कम करके तीन सौ किलोग्राम तक रखेगा। समझौते के समय ईरान के पास उन्नीस हजार सेंट्रीफ्यूज थे जिनके माध्यम से यूरेनियम के कणों को अलग किया जाता था। इनकी संख्या 5,060 तक सीमित करने को कहा गया था। यह भी तय हुआ था कि वह यूरेनियम को 3.67 फीसदी से ऊपर समृद्ध नहीं करेगा। समझौते में यह भी शामिल था कि रूस ईरान को लगभग 140 टन प्राकृतिक यूरेनियम येलो–केक के रूप में देगा। जिसका इस्तेमाल केवल बिजलीघरों के लिए परमाणु छड़ बनाने के लिए किया जाएगा। साथ ही, अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएर्ईए) को 25 साल तक इस बात की जाँच करने की स्वतंत्रता होगी कि ईरान शर्तों का पालन कर रहा है या नहीं। इन शर्तों के बदले में ये सभी देश ईरान पर लगाए गये आर्थिक प्रतिबन्ध हटाने पर सहमत हुए थे।

ट्रम्प का आरोप है कि ईरान ने छिपकर अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखा है। उसका कहना है कि ईरान अभी भी परमाणु सामग्री का इस्तेमाल हथियार बनाने के लिए कर रहा है। लेकिन अन्तराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम समझौते की शर्तों के अनुसार ही चल रहा है। आईएईए की रिपोर्ट के अनुसार ईरान ने समझौते के अनुसार यूरेनियम परमाणु भण्डार की तय की गयी न्यूनतम संवर्धन सीमा 3.67 फीसदी को पार नहीं किया है। आईएईए की रिपोर्ट के तथ्य बताते हैं कि ट्रम्प के आरोप पूरी तरह झूठे और बेबुनियाद हैं।

इस झूठ में अमरीका के इशारे पर नाचने वाला इजरायल भी बेशर्मी से शामिल है। इजरायल ने कुछ ‘गोपनीय परमाणु फाइलों’ का हवाला देते हुए कहा है कि ईरान 2003 के पहले तक परमाणु बम पर काम कर रहा था और उसने वह तकनीक छिपा ली है। अमरीकी विदेश मन्त्री माइक पोम्पिओ का कहना है कि बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा उपलब्ध कराये गये दस्तावेज पूरी तरह सही हैं। जबकि इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है। अमरीकी कांग्रेस में आते ही पोंपियो ने मीडिया से कहा था कि हमारी एयर फोर्स की केवल दो हजार उड़ाने ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट कर देंगी। हाल ही में ट्रम्प ने जॉन बोल्टन को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया है। ट्रम्प की सरकार बनते ही बोल्टन जॉइंट कॉम्प्रेहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) के लिए सहमति बनाने की कोशिश में जी–जान से लग गया था। यह वही शख्स है जिसने जॉर्ज बुश के शासन के दौरान ईरान के खिलाफ युद्ध छेड़ने की पुरजोर वकालत की थी। पोम्पिओ के इस कथन और बोल्टन की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में नियुक्ति से जाहिर होता है कि अमरीका ईरान के लिए क्या मंशा रखता है।

ट्रम्प के इस फैसले से उसके पश्चिमी सहयोगी देश स्तब्ध हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति ने ट्रम्प के इस फैसले पर कहा कि अमरीका के इस निर्णय से रूस, जर्मनी और ब्रिटेन निराश हैं। इस फैसले के तुरन्त बाद ही फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों और जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ट्रम्प को मनाने अमरीका पहुँच गयी थी। इन देशों के परेशान होने का मतलब यह नहीं है कि वे ईरान को समस्या से बाहर निकलना चाहते हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही फ्रांस और ब्रिटेन ने अमरीका के साथ मिलकर सीरिया पर बम बरसाये। जबकि ईरान ने सीरिया के राष्ट्रपति बसर अल–असद का खुलकर समर्थन किया। असल में ईरान के साथ परमाणु समझौता होने के बाद प्रतिबन्धों को हटा लिया गया था। इसके चलते फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों की गैस, तेल और ऑटोमोबाइल क्षेत्र की कम्पनियों ने वहाँ भारी मात्रा में पूँजी निवेश किया है। इसी वजह से फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन नहीं चाहते कि अमरीका इस करार से अलग हो।

अमरीका ने दुनिया भर के देशों को धमकाते हुए कहा है कि चार नवम्बर से पहले सभी देशों को ईरान से तेल खरीदना बन्द करना होगा। अगर वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें अमरीका के कठोर आर्थिक प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ेगा। परमाणु समझौते से पहले अमरीका के दबाव के चलते भारत को ईरान से तेल और गैस की खरीद में भारी कटौती करनी पड़ी थी। समझौते के बाद भारत को ईरान से सस्ते दामों में तेल मिल जाता था। क्योंकि ईरान के ऊपर थोपे गये आर्थिक प्रतिबन्धों के हट जाने से भारत आसानी से जितना चाहे उतना तेल और गैस ईरान से खरीद सकता था। भारत ने सऊदी अरब से तेल खरीद की मात्रा को कम कर दिया था और वह ईरान से तेल खरीदने को प्राथमिकता देने लगा। वित्तीय वर्ष 2017–2018 के तेल खरीद के आँकड़ों से स्पष्ट है कि भारत ने तेल आयात के मामले में सऊदी अरब की कम्पनियों को प्राथमिकता न देकर ईरान को दी। लेकिन ट्रम्प द्वारा फिर से प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा करते ही, हमारे शासकों ने भी ईरान से तेल खरीद में 30 फीसदी की कटौती की घोषणा कर दी। अमरीका ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि सऊदी अरब और इराक में स्थित उसकी तेल कम्पनियों का मुनाफा कम हो।

पश्चिमी एशिया के ज्यादातर देश ओपेक में शामिल हैं। तेल उत्पादन की क्षमता में सऊदी अरब और इराक के बाद ईरान दुनिया भर में तीसरे नम्बर पर आता है। 1979 में ईरान की क्रान्ति से पहले उसके तेल के करीब आधे हिस्से पर अमरीका और ब्रिटेन की कम्पनियों के एक कंसोर्टियम का कब्जा था। अयातुल्लाह खुमैनी ने क्रान्ति के जरिये  शाह और अमरीका के गठजोड़ का अन्त कर दिया था। अमरीका और ईरान के बीच दुश्मनी यहीं से शुरू हुई है। तब से आज तक अमरीका लगातार ईरान पर तरह–तरह से प्रतिबन्ध लगाता आया है। जिस तरह साऊदी अरब और इराक के तेल पर ज्यादातर अमरीकी कम्पनियों का दबदबा है उसी तरह अमरीका की चाहत है कि ईरान के तेल पर उसकी कम्पनियों का कब्जा हो। उसका मंसूबा है कि पूरी दुनिया के तेल पर उसी का एकाधिकार हो। परमाणु समझौते से बाहर आने के पीछे अमरीका का यही मंसूबा है। जिसे अपनी चैधराहट के दम पर पूरा करना चाहता है।

 
 

 

 

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