नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के खिलाफ अफ्रीका में संघर्ष की नयी लहर

अफ्रीकी देश नाइजर में सेना के कुछ हिस्सों ने देश के राष्ट्रीय दिवस, 3 अगस्त 2023 से ठीक पहले नाइजर के राष्ट्रपति मोहम्मद बजौम को सत्ता से हटा दिया। जनता भी सेना के समर्थन में उतर आयी। उसने “फ्रांस मुर्दाबाद” के नारे लगाये। फ्रांसीसी दूतावास को भी निशाना बनाया गया, खिड़कियों को तोड़ दिया और दीवारों में आग लगा दी गयी। बजौम घर में ही नजरबन्द कर लिये गये। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने साम्राज्यवादी अहंकार में कहा कि वे “फ्रांस और उसके हितों के खिलाफ किसी भी हमले को बर्दाश्त नहीं करेंगे”। यदि किसी को चोट लगी है, तो जवाबी कार्रवाई “तत्काल और बिना समझौता किये” की जाएगी। उन्होंने नाइजर जनता को धमकाने की कोशिश की। यूरोपीय देशों के घबराये हुए नागरिकों को अफरा–तफरी में आपातकालीन उड़ान की उम्मीद में जर्जर हवाईअड्डे की ओर जाते देखा गया। नाइजर की राजधानी नियामी का दृश्य ऐसा था जैसे उसे नयी आजादी मिल रही हो। इससे लग रहा है कि अफ्रीका में फ्रांस के पैर उखड़ने लगे हैं।

अफ्रीका पर फ्रांस का कब्जा

अफ्रीकी महाद्वीप के उप–सहारा हिस्से में फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के खिलाफ महत्वपूर्ण तख्ता पलट हुए हैं। फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के खिलाफ उठ खड हुई अफ्रीकी जनता ने इतिहास में नये अध्याय की शुरूआत की है। इसका प्रभाव फ्रांसीसी साम्राज्यवाद से शोषित–उत्पीड़ित अफ्रीका के शेष बचे देशों की जनता के साथ–साथ, मौजूदा आर्थिक नव–उपनिवेशवाद से शोषित–उत्पीड़ित पूरी दुनिया की जनता पर पड़ेगा। भविष्य में यह उनके लिए मार्गदर्शक साबित होगा। तथाकथित “अनौपनिवेशीकरण” के बाद से फ्रांस ने 60 वर्षों से अधिक समय से अफ्रीकी देशों को गुलाम बना रखा है। अफ्रीकी नौजवानों ने पूरे साहस के साथ इस नव–औपनिवेशिक जुए के खिलाफ संघर्ष किया। गिनी, माली, चाड, बुर्किना फासो और नाइजर जैसे अफ्रीकी देशांे में साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोह भी हुए। इससे जाहिर है कि अफ्रीकी जनता की लोकतान्त्रिक स्वशासन की चाहत खत्म नहीं हुई है।

‘ऑपरेशन बरखाने’ की विफलता के कारण अफ्रीका में दूसरी बार विद्रोह हुआ है। ‘ऑपरेशन बरखाने’ फ्रांसीसी साम्राज्यवाद द्वारा अफ्रीका के साहेल क्षेत्र को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने के नाम पर शुरू किया गया था। जैसे ही 2011 में नाटो द्वारा लीबिया में हस्तक्षेप किया गया तो उसका नतीजा बहुत भयावह हुआ। नाटो को तीखे विरोध का सामना करना पड़ा। इसी समय प्रतिरोध माली से बुर्कीना फासो और नाइजर तक बहुत तेजी के साथ फैल गया, जिसने हिंसक रूप अख्तियार कर लिया और कहीं–कहीं आतंकवाद की ओर मुड़ गया। इसकी कीमत अफ्रीका की गरीब जनता को भी चुकानी पड़ी। दमघोंटू ‘फ्रेंकाफ्रिक’ प्रणाली भी अब अफ्रीकी जनता को स्वीकार्य नहीं है जो लगभग पिछले 60 सालों से उन पर थोप दी गयी है। 1960 के दशक की स्वतन्त्रता लहर के बाद से ही फ्रांसीसी साम्राज्यवाद परोक्ष तौर से अपने पूर्व के उपनिवेशों पर आधिपत्य जमाये बैठा है।

अफ्रीका में राष्ट्रीय मुक्ति की लहर

द्वितीय विश्व युद्ध में फ्रांस की रक्षा के लिए भारी संख्या में अफ्रीकी सैनिकों को मोर्चे पर भेजा गया था। मोर्चे पर सैनिकों ने फ्रांस के पक्ष में लड़ते हुए अपनी जान गँवायी। 1944 में फ्रांस से लौटने के बाद अफ्रीकी देश सेनेगल के सैकड़ों सैनिकों ने वेतन की माँग उठायी, उन पर गोलियाँ चलाकर बर्बरतापूर्वक दमन कर दिया गया। इस घटना के बाद से सेनेगल में राष्ट्रीय मुक्ति की माँग ने तेजी पकड़ ली। 8 मई 1945 को अल्जीरिया के सेटिफ शहर में नाजीवाद से फ्रांस की मुक्ति का जश्न मनाया जा रहा था जिसे वहाँ के स्थानीय नागरिकों ने फ्रांसीसी साम्राज्यवाद से मुक्ति में बदलने की कोशिश की। फ्रांसीसीयों द्वारा चलायी गयी गोलियों से लगभग 40,000 अल्जीरियाई नागरिक मारे गये।

फ्रांस एक तरफ फासीवाद, नाजियों के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई लड़ने का हिमायती होने का ढोंग कर रहा था, वहीं दूसरी ओर अपने उपनिवेशों में किसी भी प्रकार के समतावादी अधिकार, आजादी, लोकतांत्रिक अधिकार माँगने वालों पर खुलेआम गोलियाँ बरसा रहा था। फ्रांस सरकार के इस रवैये का न केवल अफ्रीका बल्कि खुद फ्रांस के लोगों द्वारा भी विरोध किया जाने लगा। दुनियाभर की प्रगतिशील ताकतों ने इसका खुलेआम विरोध किया।

फ्रांसीसी जनरल द गॉल स्वतन्त्रता के धुर विरोधी थे। 1954 में द गॉल के नेतृत्व में फ्रांस की सेना को वियतनाम द्वारा धूल चटायी जा चुकी थी। इस जबरदस्त हार से फ्रांस भयावह हताशा का शिकार था। इसी हताशा के दौरान अल्जीरियाई जनता ने फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह की मशाल उठा ली। अल्जीरियाई क्रान्ति से फ्रांसीसी साम्राज्यवादी भयभीत हो गये। 1950 के दशक के अन्त तक द गॉल ने यह समझ लिया था कि “अफ्रीकी उपनिवेशों को खोने के बजाय, उन्हें कागजों पर थोड़ी बहुत रियायत दे देना ही उचित है और उन्हांेने कहा कि ये देश अभी तक खुद पर शासन करने में परिपक्व नहीं है। हमें उन्हें सभ्य और परिपक्व बनाना है, लेकिन उनकी मुख्य चिन्ता थी–– दो महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध से विभाजित दुनिया में फ्रांस के साम्राज्य को संरक्षित करना।

उपनिवेशों को मिली औपचारिक स्वतन्त्रता में पर्दे के पीछे साम्राज्यवादी हित

जब अफ्रीकी देशों को फ्रांसीसी साम्राज्यवाद से औपचारिक स्वतन्त्रता मिलने की शुरूआत हुई तो, फ्रांस ने उनके सामने लम्बे–चौड़े समझौतों के दस्तावेज हस्ताक्षर करने के लिए रख दिये। साम्राज्यवादी जुए को झेल रहे अफ्रीकी देश उन पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर थे। इन समझौतों ने फ्रांस के आर्थिक, मौद्रिक, सामरिक प्रभुत्व को संरक्षित रखा। अफ्रीकी देशों के हिस्से आजादी का केवल छलावा ही आया, पर्दे के पीछे से फ्रांस पुलिस प्रबन्धन, खुफिया विभाग, और सैन्य अड्डे मजबूत करता रहा। कमाल की बात तो यह है कि फ्रांस के द्वारा किये गये समझौतों में फ्रांस को अफ्रीका की आन्तरिक सुरक्षा बहाल करने के लिए सैन्य रूप से हस्तक्षेप करने की छूट थी। इसके अलावा अफ्रीका में फ्रांस की भाड़े की ताकतवर सेना भी थी, जो फ्रांस के इशारे पर कहीं भी तबाही मचा सकती थी।

फ्रेंकाफ्रिक का सच कितना डरावना है

फ्रांकोइस मितराँ 1981 से 1995 तक फ्रांस के राष्ट्रपति रहे हैं। इन्हांेने फ्रेंकाफ्रिक नीति का विचार दिया और उसे तेजी से अफ्रीकी देशों पर लागू करने की शुरूआत भी कर दी। इसके चलते अफ्रीकी देशों को स्वतन्त्र रूप से कोई भी फैसला लेने का अधिकार नहीं था। वास्तविकता यह है कि फ्रेंकाफ्रिक का केवल 10 फीसदी हिस्सा ही आज तक उजागर हो सका है। इसका 90 फीसदी हिस्सा बेहद भयावह और अमानवीय है। फ्रांस्वा जेवियर वर्शावे ने फ्रेंकाफ्रिक प्रणाली पर द लांगेस्ट स्कैंडल ऑफ द रिपब्लिक नाम की एक पुस्तक भी लिखी थी। फ्रेंकाफ्रिक प्रणाली सम्प्रभुता को पूरी तरह से हाशिये पर धकेलने का एक जोरदार तरीका है। इसमें अफ्रीकी देशों में गुप्त फ्रांसीसी हस्तक्षेप, गुप्त समीतियाँ, दमन, अफ्रीकी तख्तापलट और अफ्रीकी नेताओं की हत्याएँ तक शामिल हैं। यह सब कुछ छिपाकर रखा गया है। रवाण्डा नरसंहार, अल्जीरियाई युद्ध में यातना, थॉमस शंकारा जैसे लोकप्रिय नेताओं की हत्याओं में फ्रांस की मिलीभगत के दस्तावेज भी मौजूद हैं जिनको फ्रांस किसी भी कीमत पर सार्वजनिक नहीं होने देना चाहता है।

हाल ही में गैबान में हुई तख्तापलट के बाद गैबान के राष्ट्रपति अली बोंगो के बेटे के घर से अफ्रीकी नकदी से भरे दर्जनों बैग मिले हैं। इस तरह इनके घर से सूटकेस पाया जाना कोई खास बात नहीं है, बल्कि यह दशकों से शासन कर रहे इन तानाशाहों के लिए आम बात है जो दिखाता है कि ये साम्राज्यवादियों के हाथों बिके हुए लोग हैं।

अफ्रीका की बदहाली

19 वीं शताब्दी के उपनिवेशवाद को खत्म कर देशों ने अपने–अपने देशों के प्राकृतिक संसाधनों, राजनीतिक, आर्थिक नीतियों के बारे में खुद फैसला लेना शुरू कर दिया था। बाद में इन्हीं देशों को नव–उपनिवेश और आर्थिक नव–उपनिवेश बना दिया गया। अफ्रीका के पूर्व–फ्रांसीसी उपनिवेशों की सत्ता में फ्रांसीसी प्रशासनिक अधिकारियों के बजाय अफ्रीकी मूल के नेताओं ने ले ली है। इसके बावजूद आज भी फ्रांस का उन पर आर्थिक वर्चस्व बना हुआ है।

इनमें से अधिकतर देशों में आज भी फ्रांस की सैन्य ताकत मौजूद है। ये देश आज भी फ्रांस के साथ एक मुद्रा यूनियन समझौते में बँधे हुए है। इस आर्थिक गुलामी के चलते यहाँ भयावह बेरोजगारी, कम मजदूरी, औद्योगीकरण का भयावह अभाव, आयात पर–निर्भरता बनी हुई है। ये देश पिछड़ेपन, अन्धविश्वास, अशिक्षा, अज्ञानता, कुपोषण, पीने योग्य पानी के घोर अभाव और गरीबी की स्थिति में हैं। अफ्रीकी देश रवाण्डा में “केवल दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी करने वाले मजदूरों की भारी भीड़ देखी जा सकती है”। सोचने वाली बात यह है कि इन देशों के विदेशी मुद्रा संचित कोष का लगभग आधा हिस्सा फ्रांस में रखा जाता है। मतलब इन देशों के हाथों से आर्थिक विकास करने का आखिरी हथियार भी छीना जा चुका है। इन देशों की इस हालत को अनेक राजनीतिक उपायों से बनाये रखा गया है, जिनमें झूठे जनतंत्र का सहारा लेकर धाँधलीपूर्ण चुनाव कराये जाने से लेकर, तख्ता पलट तथा नेताओं की हत्याएँ कराने तक के षडन्त्र शामिल हैं।

साम्राज्यवाद के चाटुकार अफ्रीकी राजनीतिज्ञों ने फ्रांसीसी सरकार और पूँजीपतियों के साथ मिलीभगत से दौलत का पहाड़ इकठ्ठा कर लिया है। इसके बदले इन्होंने फ्रांसीसी पूँजीपतियों के लिए अपने देश के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का सारा रास्ता खोल दिया है। उदाहरण के लिए नाइजर में यूरेनियम के विशाल भण्डार हैं, जिनकी फ्रांस को बिजली पैदा करने के लिए जरूरत है। अफ्रीका में एक कहावत है कि “फ्रांस में जलने वाले हर बल्ब में अफ्रीका की धातु का तार है ”। यहाँ के नेता बेईमानी से इकठ्ठा की गयी इस अकूत सम्पदा के दम पर ही चुनाव जीतने में भी कामयाब हो जाते हैं। इसीलिए हैरानी की बात नहीं है कि नाइजर में हुए तख्तापलट का स्थानीय जनता ने पुरजोर स्वागत किया है। गिनी, बर्किना फासो और माली ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर नाइजर के खिलाफ साम्राज्यवादियों द्वारा कोई सैन्य हस्तक्षेप होता है, तो वे भी नाइजर की नयी सरकार के पक्ष में सैन्य हस्तक्षेप करेंगे। इन देशों में सेना के कुछ खास हिस्से देशभक्त हैं।

लेकिन, इस सब के बावजूद फ्रांस नाइजर की सीमाओं पर सेनाएँ जमा कर रहा है। स्पष्ट है कि फ्रैंच–भाषी अफ्रीका इस समय युद्ध के कगार पर है। लेकिन, अगर वहाँ युद्ध होता है तो वह एक खतरनाक साम्राज्यवादी युद्ध होगा।

फ्रांसीसी साम्राज्यवाद को कड़ी टक्कर

फ्रांस का वर्तमान नव–उपनिवेशवाद अफ्रीकी देशों से लगातार धकियाया जा रहा है। इसके पैर अफ्रीका की जमीन से उखड़ते जा रहे हैं। फ्रांस अफ्रीका पर अपना आर्थिक नियंत्रण खोता जा रहा है। हालाँकि साहेल क्षेत्र में फ्रांस ने अभी तक अपनी सैन्य शक्ति को पूरी तरह गँवाया नहीं है, लेकिन वह कमजोर हुआ है क्योंकि माली, बुर्कीना फासो, नाइजर में एक के बाद एक तीन तख्तापलट हुए हैं, जिनका वहाँ के स्थानीय लोगों द्वारा पुरजोर समर्थन किया गया है। वहाँ की जनता आजादी और सम्प्रभुता चाहती है। वे देश का खुद अपने हाथों से विकास करना चाहते हैं। वे अपने व्यापारिक साझेदारों और सहयोगियों को खुद चुनना चाहते हैं। इसका साफ मतलब है कि अफ्रीकी जनता अब बुनियादी मानवीय जरूरतों के भयावह अभाव को नहीं झेलना चाहती जिसे वह सालों से झेलती आ रही हैं।

यूरोप में चल रहे यूक्रेन युद्ध से रूस और चीन मजबूत हुए हैं और वे अमरीका और पश्चिमी यूरोप को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। रूस और चीन के नये गिद्ध अफ्रीका के मांस को नोचने के लिए तैयार हैं। देखना यह है कि अफ्रीका की जनता पुराने गिद्धों के साथ नये गिद्धों से कैसे मुकाबला करेगी।

Leave a Comment