दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

आईपीसीसी की जलवायु संकट पर नयी रिपोर्ट: विनाश की ओर बढ़ती मानव जाति

जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के कारण हमारी धरती और पूरी मानव सभ्यता पर तबाही का खतरा मंडरा रहा है। पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर ऊपर उठ रहा है। पीने का पानी जहरीला होता जा रहा है। भारी वर्षा और सूखा दुनिया भर में तबाही मचा रहे हैं। खेती उजड़ती जा रही है। जीवों की कई प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर आ गयी हैं। यदि यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब पूरी मानव सभ्यता बर्बाद हो जायेगी।

8 अक्टूबर 2018 को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी नयी रिपोर्ट जारी करके चेतावनी दी। इस रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक दुनिया का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री तक बढ़ जायेगा। तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से एक डिग्री पहले ही बढ़ गया है। जिसके परिणाम पूरी दुनिया में देखने को मिल रहे हैं। आर्कटिक सागर की बर्फ तेजी से पिघल रही है। समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है। 90 फीसदी ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे है। इस वर्ष जून और जुलाई महीनों में केवल कैलिफोर्निया के वनों में 140 बार आग लगी। ग्रीस में जंगलों में लगी आग से 80 लोग मारे गये। यूरोप गरम हवाओं से तपता रहा। भारत में बिना मौसम के आये धूल के तूफानों ने 500 से अधिक लोगों की जान ले ली। दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में सूखे में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। जापान, भारत, अमरीका तथा अन्य जगहों पर बेतहाशा बारिश होने से फसल और घर नष्ट हो गये। ये सारी घटनाएँ असामान्य हैं। आने वाले दिनों में अजीबोगरीब मौसम की यह तीव्रता और अधिक बढ़ने वाली है। यदि मौसम से जुड़ी ऐसी घटनाएँ एक डिग्री पर महसूस की जा रहीं हैं जो कि औद्योगिक युग के पूर्व का स्तर है, तो 1.5 डिग्री की वृद्धि पर तो परिस्थितियाँ असहनीय हो जायेंगी।

आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार तापमान को पूर्व औद्योगिक स्तर के ऊपर अधिकतम 1.5 डिग्री तक रखना होगा। यदि तापमान इससे अधिक हो गया तो भारतीय उप महाद्वीप में भी इसके घातक परिणाम देखने को मिलेंगे। आईपीसीसी और दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन मानवनिर्मित है। रिपोर्ट के अनुसार यदि दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री से अधिक बढ़ा तो भयानक गर्मी और लू की चपेट में आकर 35 करोड़ लोग मारे जायेंगी। भयानक सूखा, बे मौसम बारिश, बाढ़, तूफान आदि बढ़ेंगे। कई जीव-जन्तु विलुप्त हो जायेंगी। यदि तापमान दो डिग्री को पार करता है तो स्थिति और विनाशकारी हो जायेगी। समुद्र तटीय इलाके समुद्र में डूब जायेंगी जिससे करोड़ों लोग बेघर हो जायेंगी। एशिया और अफ्रीका की कृषि अर्थव्यवस्थाएँ अधिक प्रभावित होंगी। फसल की पैदावार में गिरावट और जलवायु अस्थिरता के कारण 2050 तक गरीबों की संख्या कई अरब के आँकड़े तक पहुँच जायेगी। यदि वर्तमान गति से पर्यावरण प्रदूषण जारी रहा तो आने वाले 75 वर्षों में पृथ्वी के तापमान में 3 से 6 डिग्री की वृद्धि हो सकती है। इसके चलते बर्फ के पिघलने से समुद्री जल–स्तर में एक से 1.2 फीट तक की वृद्धि हो सकती है और मुम्बई, न्यूयार्क, पेरिस, लन्दन, मालदीव, हालैण्ड और बांग्लादेश के अधिकांश भूखण्ड समुद्र में जलमग्न हो सकते हैं। इन घटनाओं के कारण भुखमरी गरीबी, असमानता, बीमारी तेजी से बढ़ेगी। पूरी मानव सभ्यता अस्त–व्यस्त हो जायेगी।

पर्यावरण प्रदूषण का कारण वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि है। पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा को अवशोषित करने वाली गैसें ग्रीन हाउस गैस कहलाती हैं। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन और जलवाष्प शामिल हैं। ये गैसें सूर्य की ऊर्जा को अन्दर आने देती हैं परन्तु बाहर नहीं जाने देती हैं। वायुमण्डल में जब इन गैसों की मात्रा बढ़ जाती है तो पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगता है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पैदा होती है।

औद्योगिक क्रान्ति के बाद से विकास की जो तीव्र प्रक्रिया अपनायी गयी है उसमें पर्यावरण की अवहेलना की गयी, जिसका परिणाम आज पारिस्थितिकीय असन्तुलन और पर्यावरणीय संकट के रूप में हमार सामने उपस्थित है। आज विश्व के विकसित देश हो या विकासशील देश, कोई भी पर्यावरण प्रदूषण के कारण उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से अछूते नहीं हैं।

1990 के दशक में पूरी दुनिया व्यापार समझौतों से एक सूत्र में बँधने लगी थी और उत्पादों की स्वतंत्र तथा निर्बाध आवाजाही के लिए नियम बनाये गये। वैश्वीकरण ने एक ऐसी अन्तर्निर्भर दुनिया बनाने की कोशिश की जिसमें सस्ते श्रम का इस्तेमाल कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए किया जाने लगा। अगले दो दशकों में चीन वैश्विक बाजार के लिए उत्पादों का आपूर्तिकर्ता बनकर सामने आया और उपभोग भी खूब बढ़ा। 1990 के दशक में ही दुनिया ने जलवायु परिवर्तन को सीमित दायरे में रखने पर भी सहमति जतायी थी। यह आर्थिक भूमंडलीकरण के बरक्स पारिस्थितिकीय भूमंडलीकरण था लेकिन यह अपना मकसद हासिल करने में नाकाम साबित हुआ है।

व्यापार ने जलवायु को पीछे छोड़ दिया जबकि उत्सर्जन नियंत्रण पर उपभोग भारी पड़ गया। आर्थिक भूमंडलीकरण की सफलता उत्सर्जन स्तर में बढ़ोतरी के रूप में दिखने लगी। समृद्ध देशों ने कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले उत्पादों का इस्तेमाल कम नहीं किया बल्कि उलटा ही इन देशों का उत्सर्जन स्तर बढ़ गया। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारी धरती एक जलते तवे की तरह हाती जा रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण कार्बन का उत्सर्जन है। अमरीका चीन के बाद सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जित करता है। रिपोर्ट में कार्बन उत्सर्जन को 2050 तक शून्य करने के लिए कहा गया है परन्तु क्या पूँजीवादी व्यवस्था में यह सम्भव है? कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कई अन्तरराष्ट्रीय वार्ताएँ की गयी। क्वेटो प्रोटोकॉल के तहत यह कानून बनाया गया कि औद्योगिक देशों को ग्रीन हॉउस गैसों के उत्सर्जन में 2008–2012 तक 5.2 फीसदी कमी करनी है जिसमें से यूरोपीय संघ को 8 फीसदी, अमरीका को सात फीसदी और जापान को सात फीसदी कमी लानी थी। साम्राज्यवादी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती से बचने के लिए उत्सर्जन परमिट की अदला–बदली करने का नया तरीका सुझाया जिसका मुख्य उद्देश्य था–– अमीर देशों के उत्सर्जन को बरकरार रखना। अमरीका हमेशा कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने से बचता रहा है। 2007 में बाली सम्मेलन में अमरीका ने क्वेटो प्रोटोकॉल के लक्ष्य को गिराकर उत्सर्जन कटौती की समय सीमा को बढ़ाकर 2012 से 2020 तक करने और न्यूनतम तापमान औद्योगिक क्रान्ति के स्तर से दो डिग्री तक अधिक रखने का सुझाव दिया। 2009 में कोपेनहेगेन सम्मेलन में भी अमरीका और उसके पिछलग्गू देश बेहद षड़यंत्रकारी तरीके से अपने आप को उत्सर्जन कटौती से बचाने में सफल हो गये। उत्सर्जन में कटौती के लिए उठाये जाने वाले कदमों को लेकर सारी दुनिया लुकाछिपी खेल रही है। उत्सर्जन स्तर में कटौती सम्बन्धी वैश्विक समझौतों को इस प्रकार तैयार किया गया है कि वे जलवायु परिवर्तन को नकार रहे हैं। जब भी कोई रिपोर्ट अमरीका के हितों से टकराती है अमरीका या तो उसमें बदलाव करवा देता है या उसे मानने से इनकार कर देता है। अमरीका ने जलवायु परिवर्तन समझौते को इस तरह लिखने के लिए बाध्य कर दिया कि उसके लक्ष्य वैज्ञानिक मानकों पर न होकर स्वैच्छिक कदमों पर आधारित थे। हरेक देश को अपने हिसाब से लक्ष्य तय करने की छूट दी गयी। इससे आवश्यक कदम उठाने में कमजोरी आयी। ऐसा लगता नहीं है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर भी सीमित रखा जा सकेगा, 1.5 डिग्री सेल्सियस तो बहुत दूर की बात है। पेरिस समझौते ने बुनियादी तौर पर देशों की जवाबदेही को बहुत कम कर दिया है। यह समझौता अमरीकी सरकार को खुश करने के लिए किया गया था।

सच्चाई यही है कि अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देश मिलकर ऐसी नीतियाँ बनवाने में सफल हो जाते हैं जो उनके हित में हो। ये देश किसी भी कीमत पर अपने मुनाफे में कमी नहीं आने देना चाहते हैं। दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन चीन करता है जो 2015 में कुल वैश्विक उत्सर्जन का 29.51 प्रतिशत था। अमरीका 14.34 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर तथा भारत 6.81 प्रतिशत के साथ चौथे स्थान पर था। लेकिन चीन और भारत की जनसंख्या बहुत अधिक है, लिहाजा 2015 में चीन का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 7.7 टन और भारत का 1.9 टन सालाना था। इस हिसाब से दुनिया के इन तीन शीर्ष देशों में उत्सर्जन कम करने में अमरीका की जिम्मेदारी अधिक बनती है। लेकिन अमरीका कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं करना चाहता क्योंकि ऐसा करने से उसके मुनाफे में कमी आ जायेगी। बाली सम्मलेन से पहले अमरीका के येल विश्वविद्यालय ने एक सर्वे कराया था, जिसमें 68 प्रतिशत अमरीकी नागरिकों ने इस राय से सहमति जताई थी कि अमरीका वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 90 प्रतिशत तक की कटौती करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर करे। फिर भी अमरीकी सरकार ने ऐसा नहीं किया क्योंकि अमरीकी सरकार बहुराष्ट्रीय एकाधिकारी पूँजीपतियों के लिए काम करती है जो पृथ्वी को तबाही की ओर ले जा रहे हैं। वे केवल अपने मुनाफे के बारे में सोचते हैं। वे अपने मुनाफे की हवस में इतने अँधे हो गये हैं कि पर्यावरण की समस्या मानने से भी इनकार कर रहे हैं। अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी जलवायु परिवर्तन की समस्या से ही इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि अमरीका को और अधिक कोयला खनन करने और बिजली सयंत्र बनाने की जरूरत है ताकि उत्पादन को और अधिक बढ़ाया जा सके। ऐसे में अमरीका से ये उम्मीद करना कि वह जलवायु परिवर्तन की समस्या के बारे में गम्भीरता से सोचेगा मूर्खता होगी। यदि दुनिया अमरीका के रास्ते पर चली तो ग्रीन हॉउस गैसों का उत्पादन और बढ़ेगा जिसका असर दुनिया की उस भोली–भाली गरीब जनता पर पड़ेगा जो इस सबके लिए जिम्मेदार भी नहीं है और उससे बचने का उसके पास कोई उपाय भी नहीं है।

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