मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

चिकित्सा उपकरण कम्पनियों की लूटपाट 

चिकित्सा उपकरणों के बाजार में कमाई की दरिया बह रही है। लेकिन यह कमाई गड़बड़ी वाले उपकरणों की खरीद–बिक्री के जरिये हासिल की जा रही है। कई बार मरीजों और उनके परिजनों को जानकारी दिये बिना ही तकनीकी गड़बड़ी वाले उपकरण लगा दिये जाते हैं। निजी क्लीनिकों और अस्पतालों में उपयोग किये जाने वाले आधे से अधिक पुराने चिकित्सा उपकरण आयात किये जाते हैं। इनका सटीकता और सुरक्षा के स्तर पर कोई आकलन नहीं किया जाता है। जिन उपकरणों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उनमें से कई दुनियाभर में प्रतिबन्धित कर दिये गये हैं। एक ही उत्पाद का नाम, क्वालिटी और कीमत अलग–अलग देशों में अलग–अलग है। चिकित्सा उपकरणों के मामले में कहीं कोई आम सहमति नहीं है कि कौन सा उपकरण मरीज के लिए सुरक्षित है और कौन सा नहीं। इस मामले में न तो कहीं कोई चेतावनी प्रणाली है और न ही कोई नियामक संस्था। इन उपकरणों को बनाने वाली कम्पनियाँ उपकरणों की डिजायन तैयार करती हैं और उनकी आयु का फैसला खुद ही करती हैं। लेकिन वे इनकी कमियों को छुपा लेती हैं, जिसकी कीमत भोले–भाले लोगों को चुकानी पड़ती है। कई बार तो तकनीकी खामियों वाले उपकरणों के प्रत्यारोपण से मरीजों की मौत हो जाती है। पिछले एक दशक के दौरान पूरी दुनिया में 82 हजार लोगों की मौत हो चुकी है और 17 लाख मरीज घायल हो चुके हैं। धन के अभाव में भी कुछ लोग अपने जीवन की पूरी जमा पूँजी इलाज में इसलिए खर्च कर देते हैं कि वे ठीक हो जायेंगे। लेकिन ये कम्पनियाँ डॉक्टरों के साथ मिलकर सारा पैसा लूट लेती हैं और बदले में दे देती हैं जीवनभर की अपंगता।

चिकित्सा उपकरणों की धाँधली एक ऐसी समस्या है, जो पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती है। यह चिकित्सा उपकरण बनाने वाली कम्पनियों को कटघरे में खड़ा करती है। दुनिया में चिकित्सा उपकरणों को बेचने का एक बड़ा अनियंत्रित चिकित्सा बाजार है। भारत में चिकित्सा उपकरणों का बाजार 35 हजार करोड़ रुपये का है, जिसको 2025 तक 50 लाख करोड़ रुपये तक लाने की योजना है। भारत के चिकित्सा उपकरणों का उद्योग एशिया में चैथे स्थान पर है। इसमें पहले स्थान पर जापान, दूसरे स्थान पर चीन और तीसरे स्थान पर दक्षिण कोरिया है।

ज्यादातर चिकित्सा उपकरण बनाने वाली कम्पनियाँ अमरीका की हैं, जिनमें से जॉन्सन एंड जॉन्सन, मेडट्रानिक, स्ट्राइकर, एवट और वायर मुख्य हैं। ये कम्पनियाँ दुनियाभर के देशों में चिकित्सा उपकरणों को बेचने का कारोबार करती हैं और अकूत मुनाफा कमाती हैं। स्ट्राइकर इंडिया के  दिल्ली, एनसीआर, मुम्बई, चेन्नयी और कोलकाता में कार्यालय हैं। इस कम्पनी का 2017–18 का वार्षिक कारोबार 30 करोड़ रुपये था। स्ट्राइकर इंडिया का मुनाफा मुख्यत: घुटना प्रत्यारोपण और न्यूरो सर्जरी के लिए चिकित्सा उपकरणों की बिक्री से होता है।

ये कम्पनियाँ गुणवत्ताहीन उपकरणों को बाजार में बिना रोक–टोक बेच रही हैं। इनमें से अधिकतर उपकरण कोरोनरी स्टैंड, पेसमेकर, ब्रेस्ट, कूल्हों और घुटनों से सम्बन्धित हैं। ये सभी कम्पनियाँ बड़े–बड़े डॉक्टरों को पैसा देकर अपने उपकरणों को प्रोत्साहित कराती हैं। इन कम्पनियों ने भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में दलालों का जाल बिछा रखा है। इस लूट के तंत्र में ना केबल छोटे डॉक्टर बल्कि बड़े–बड़े कॉरपोरेट अस्पताल और सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर भी सामिल है। इन बिचैलियों और भारी कमीशन की वजह से स्टेंट और पेसमेकर की कीमत मरीज तक पहुँचने पर मूल कीमत से कई गुना ज्यादा हो जाती है।  ये कम्पनियाँ दोषपूर्ण उपकरणों को बेचने के लिए सभी नियमों की न सिर्फ अनदेखी करती हैं बल्कि इन्हें तोडती भी है। हाल ही में अमरीका के शीर्ष वित्तीय नियामक प्रतिभीति और विनिमय आयोग (एमईसी) ने दुनिया की अग्रणी हड्डियों में प्रत्यारोपित करने वाले उपकरणों का निर्माण करने वाली कम्पनी स्ट्राइकर पर नियमों का उल्लंघन करने के लिए लगभग पचपन करोड़ से अधिक का जुर्माना लगाया था। इस कम्पनी ने भारत, चीन और कुबैत में नियमों का उल्लंघन किया था।

ये कम्पनियाँ सरकारी और निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से सांठगांठ करके खरीदे गये उपकरणों के बिलों में न सिर्फ  हेरा–फेरी करती हैं बल्कि दोषपूर्ण और अनावश्यक उपकरणों को भी बेचती हैं और भारी मुनाफा कमाती है। ऐसी ही एक हेरा–फेरी साल 2012 में एम्स और सफदरजंग अस्पताल दिल्ली में उपकरण बेचने के लिए की गयी जिसमें निविदाओं में तीन करोड़ की हेरा–फेरी की गयी थी। इसमें स्ट्राइकर के अलावा दो अन्य फार्मा कम्पनियाँ भी शामिल थी।

इन कम्पनियों के द्वारा बनाये गये उपकरणों की  गुणवत्ता और कीमत की कोई जाँच नहीं की जाती और न ही इस बात की जाँच की जाती की ये उपकरण शरीर में जाकर ठीक से काम करेंगे या नहीं। इस प्रकार के उपकरण अधिकतर निजी अस्पतालों में प्रयोग किये जाते हैं। मरीजों को विज्ञापनों के माध्यम से सस्ते इलाज का झांसा देकर फसाया जाता है। ये अस्पताल गरीब लोगों को इलाज के लिए लोन भी दिलाते हैं। भोलेभाले लोग लोंन के जाल में फंस जाते हैं सस्ते उपकरण महंगे दामों में उन्हें लगाये जाते हैं। बाद में जब मरीजों को दक्कत होती है तब उन्हें दोबारा सर्जरी के लिए बोला जाता है। जो लोग दूसरी सर्जरी का खर्च उठा सकते हैं वो दूसरी सर्जरी करा लेते हैं। बाकी लोगों की हालत पहली सर्जरी की किस्त चुकाने की भी नहीं होती। इस सब में अस्पतालों और उपकरण बनाने वाली कम्पनियों को दोहरा फायदा होता है। पहला फायदा रोगियों को सस्ते उपकरणों को  महंगे दामों पर  बेचकर होता है। दूसरा फायदा लोन और बीमा कम्पनियों के द्वारा होता है।

 देश में चिकित्सीय उपकरणों की गुणवत्ता और जाँच पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। बारह साल पहले पहली बार इससे सम्बन्धित कानून का मसौदा तैयार किया गया था, लेकिन उसे लागू नहीं किया गया। सरकार ने अब तक इस पर निगरानी या नियमन की दिशा में कोई पहल नहीं की है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि किसी उपकरण की तकनीकी खामियों के चलते मरीज को नुकसान होने की स्थिति में सरकार के पास सम्बन्धित दवा कम्पनी को मुआवजे का निर्देश देने का न तो कोई अधिकार है और न ही इसके लिए अब तक कोई कानून बनाया जा सका है। चिकित्सा उपकरणों की खरीद और बिक्री में एक संगठित गिरोह काम कर रहा है। कीमतों का नियमन और निगरानी करने के लिए कोई ठोस कानून न होने की वजह से निर्माता कम्पनियाँ और निजी अस्पताल बीमा कम्पनियों और लोन देने वाली कम्पनियों के साथ मिलकर भोली–भाली जनता को लूट रहे हैं और अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं।

 
 

 

 

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