मई 2024, अंक 45 में प्रकाशित

मेडिकल कोलेज में दाखिले से लेकर स्वास्थ्य सेवाएँ तक पूँजीवादी असमानता का शिकार

पिछले 3 दशकों से भारत में स्वास्थ्य शिक्षा का भारी निजीकरण किया गया है। 2024 में अब तक का परिणाम यह है कि कुल एमबीबीएस सीटों में से लगभग आधी सीटें निजी मेडिकल कॉलेजों के हाथों में हैं। इन कॉलेजों में एमबीबीएस उम्मीदवार के लिए औसत वार्षिक पढ़ाई फीस प्रति वर्ष 15 लाख रुपये से 20 लाख रुपये तक है, छात्रावास शुल्क, कैंटीन शुल्क और अन्य शुल्क जोड़ें तो निजी मेडिकल कॉलेज से स्नातक करने के लिए आवश्यक कुल राशि 1 करोड़ से अधिक है। इस डेटा की तुलना सरकारी मेडिकल कॉलेजों की फीस से करें, जिनकी पढ़ाई फीस 5000 रुपये से 1 लाख रुपये प्रति वर्ष के बीच है।

आवधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण 2019–20 के अनुसार, अगर एक आदमी 25,000 रुपये कमाता है तो वह भारत में सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों में शामिल है। अब इस आँकड़े की तुलना निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस से करके देखें। जो लोग डॉक्टरी की भारी–भरकम फीस भर सकते हैं, वे निश्चित रूप से आबादी के शीर्ष 2 प्रतिशत लोगों में से होंगे। दूसरे शब्दों में, भारत में शीर्ष 2 प्रतिशत आबादी का लगभग 50 प्रतिशत निजी सीटों पर एकाधिकार है। आधे डॉक्टर निजी कालेजों के जरिये शीर्ष 2 प्रतिशत धनाढ्य वर्ग से आते हैं। भारत में मेडिकल की कुल सीट में आधी सीटों पर महज 2 प्रतिशत लोग ही कम्पटीशन करते हैं, जबकि बाकी आधी सीटों के लिए 98 प्रतिशत आबादी अंधी प्रतियोगिता में शामिल होती है।

चूँकि भारत में बेहतर शिक्षा एक विशेषाधिकार है, इसलिए बची हुई आधी सीटों में से भी अधिकांश सीटें विशेषाधिकार प्राप्त लोगों द्वारा ली जाती हैंय जिनके लिए अच्छे स्कूलों और कोचिंग्स की फीस चुकाना आसान है। इनके घेरे में शिक्षित मंडलियों और सामाजिक कनेक्शन वाले लोग भी होते हैं जो उन्हें उच्च शिक्षा के लिए बेहतर दिशा में मार्गदर्शन करते हैं, और अन्तत:, मजदूर वर्ग के पास मेडिकल कॉलेज में चुने जाने की बहुत कम सम्भावना बचती है। यह मौका इतना कम होता है कि इसकी तुलना किसी भ्रम या सपने से की जा सकती है। मजदूर वर्ग को फिर यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती है कि उसकी विफलता केवल उसकी अपनी गलती के कारण है। उसकी लगन और मेहनत में कुछ कमी रह गयी। इस तरह पूँजीवादी सामाजिक भेदभाव का मानसिक बोझ मजदूर वर्ग के कन्धों पर आ टिकता है।

यह स्पष्ट है कि मजदूर वर्ग के बेटे या बेटी के पास अपने समकक्ष की तुलना में मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाने की सम्भावना नगण्य है। इसी तरह की असमानताएँ पोस्ट ग्रेजुएट, विशेषज्ञों और पैरा मेडिकल और नर्सिंग इत्यादि पाठ्यक्रमों में भी मौजूद हैं।

इस भेदभावपूर्ण प्रणाली का एक प्रमुख पहलू है–– विभिन्न भौतिक स्थितियों और परिस्थितियों के लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता–– गरीब मजदूर बनाम अमीर पूँजीपति, उत्पीड़ित जाति के व्यक्ति बनाम उत्पीड़क जाति, ग्रामीण आबादी बनाम शहरी आबादी, पुरुष बनाम महिलाएँ, परिवार की रोटी कमाने वाला बनाम परिवार के आश्रित सदस्य और इसी तरहय संक्षेप में, जो लोग स्वास्थ्य सेवा के लिए भुगतान कर सकते हैं बनाम जो लोग भुगतान नहीं कर सकते हैं।

मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली की भेदभावपूर्ण प्रकृति की बेहतर समझ के लिए भारतीय चिकित्सा प्रणाली का विश्लेषण करना होगा। इसके लिए हमें इस स्वास्थ्य प्रणाली को स्वास्थ्य शिक्षा सेवाओं और स्वास्थ्य वितरण सेवाओं में वर्गीकृत करना चाहिए। स्वास्थ्य शिक्षा सेवाओं में मेडिकल कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज और पैरामेडिकल कॉलेज शामिल हैं जो जमीन पर, असल में रोगी की चिकित्सा के लिए उपयुक्त श्रम शक्ति तैयार करते हैं। स्वास्थ्य वितरण प्रणाली में अस्पताल और क्लीनिक शामिल हैं।

देश में आजादी के बाद से ही कल्याणकारी नीतियाँ धीरे–धीरे धीरे खत्म होने लगीं। 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के बाद पूँजीवाद का सबसे नग्न रूप देखा गया जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे विश्व बाजार के लिए खोल दिये और पहले से ही चली आ रही आर्थिक असमानता को बढ़ा दिया। कभी प्रमुख विपक्ष रहने वाली समाजवादी पार्टियाँ धीरे–धीरे पूँजी के बोझ के नीचे ढह गयीं और उनकी जगह मध्यमार्गियों और नफरत फैलाने वाली दक्षिणपंथी पार्टियों ने ले ली।

अब हम पूरी तरह से पूँजीवाद के भारतीय संस्करण में रहते हैं, जिसके स्वभाव में ही असमानता, अन्याय, क्रूरता और भेदभाव है। भारत को पश्चिमी पूँजीवादी राष्ट्रों की तरह साम्राज्यवाद और नस्ल के विशेषाधिकार का लाभ नहीं मिला। बल्कि भारतीय पूँजीवाद, असफल और निचले स्तर का पूँजीवादी समाज बना हुआ है जो मुख्य रूप से तकनीकी सामग्री और सेवाओं के लिए विशेषाधिकार प्राप्त राष्ट्रों पर निर्भर है। इस असमानता को सावधानीपूर्वक दूर करना होगा और समाज की बेहतर समझ के लिए इसके हर पहलू को गहराई से समझना होगा। तभी हम इस समस्या का स्थायी हल ढूँढ पायेंगे।          

   –डॉ आदिल

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