सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन किसके हित में

5 जून को सरकार एक पुराने कानून ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन सहित दो नये कानून लेकर आयी है। दो नये कानूनों–– फार्मर एम्पावरमेण्ट एण्ड प्रोटेक्शन एग्रीमेण्ट ऑन प्राइस एश्युरेंस एण्ड फार्म सर्विसेज आर्डिनेंस (एफएपीएएफएस–2020) और द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स प्रमोशन एण्ड फेसिलिटेशन, (एफपीटीसी–2020) को उसने अध्यादेश के जरिये लागू किया है। इन अध्यादेशों को लागू करते समय कहा गया कि इससे किसानों को उनकी उपज के सही दाम मिलेंगे और उनकी आय में बढ़ोत्तरी होगी।

अगर इन अध्यादेशों से किसानों का ही फायदा है तो क्यों देश भर के किसान संगठन, मण्डी समितियों में काम करने वाले छोटे व्यापारी और कर्मचारी इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं और इसे रद्द करने की माँग कर रहे हैं? और क्यों कृषि उत्पाद के व्यापार में लगे बड़े सरमायेदार इस अध्यादेश के लिए सरकार की तारीफ कर रहे हैं? दरअसल, सरकार ने जो कानून बनाये हैं, उनसे किसानों से ज्यादा बड़े व्यापरियों और निजी कम्पनियों को लाभ होगा। विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों का कहना है कि सरकार जिस ठेका खेती को कानूनी जामा पहनाकर उसे हमारे फायदे का बता रही है, दरअसल वह हमें अपने खेत में ही बँधुआ मजदूर बना देने की गहरी साजिश है। अगर यह कानून लागू हो गया तो हम अपनी पसन्द से फसल नहीं उगा सकेंगे, बल्कि उद्योगपतियों के लिए कच्चे माल पैदा करेंगे और वह भी उनकी कीमत तथा शर्तों पर। जब उन्हें जरूरत नहीं होगी तो वे हमारी फसल खरीदने से इनकार कर देंगे। ऐसी हालत में हम अपनी फसल को कहाँ ले जाएँगे? ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है, जब कम्पनियों द्वारा फसल खरीदने से पीछे हटने पर किसान बर्बाद हो गये।

सरकार की तरफ से जारी विज्ञापनों में सबसे ज्यादा प्रचार तीसरे कानून एफपीटीसी–2020 का किया जा रहा है। विज्ञापनों में इसे ‘एक राष्ट्र–एक बाजार’ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। सरकार की तरफ से कहा गया है कि पहले “किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए यहाँ–वहाँ भटकना पड़ता था। अब ऐसा नहीं होगा। किसान अब अपनी फसल देश के किसी कोने में, जहाँ बेहतर दाम मिलें, वहाँ बेच सकते हैं। इस कानून से भी बड़ी कम्पनियों व व्यापारियों, बड़े फार्मरों और धनी किसानों का ही फायदा है क्योंकि सारे सीमा शुल्क हटा दिये गये हैं। एक मध्यम या गरीब किसान अपना 10–20 कुन्तल अनाज लेकर पंजाब से महाराष्ट्र बेचने तो जाएगा नहीं, क्योंकि न तो उसके पास ढुलाई का किराया देने के पैसे हैं और न ही उसके पास इतना फालतू समय। उनकी फसल देश के दूसरे हिस्से में कम्पनियों व व्यापारियों द्वारा ही पहुँचाई जा सकेगी, इससे मध्यम या गरीब किसान उन पर निर्भर हो जायेंगे और उनका शोषण बढ़ जाएगा। जाहिर है कि ‘एक राष्ट्र–एक बाजार’ किसके लिए बनाया जा रहा है।

सच्चाई यह है कि यह अध्यादेश केन्द्र सरकार के द्वारा कोरोना काल में लोगों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए देशी–विदेशी सरमायादारों, सट्टेबाजों और जमाखोरों के हित में लाये गये हैं। इसका पूँजी के वैश्वीकरण के इस दौर में एक राष्ट्र, एक बाजार जैसे जुमले की आड़ में सरकार अपने असली मंसूबे को छिपा रही है। इसका असली मकसद किसानों की कठिन मेहनत से पैदा होने वाली उपज की खरीद–बिक्री और सट्टेबाजी करके बेहिसाब मुनाफा कमाना है।

इन कानूनों से देश के संघीय ढाँचे को चोट पहुँचेगी और केन्द्र व राज्य के रिश्ते में राज्य को कमजोर कर दिया जाएगा। खेती से जुड़े फैसले व नियमों पर राज्य की जगह केन्द्र को बढ़त मिलेगी। केन्द्र से राज्य को राजस्व नहीं मिलेगा। इससे किसानों की आवाज सीधे सरकार तक नहीं पहुँच सकेगी। ऐसे कानूनों से किसानों की आमदनी दुगनी होने से तो रही, उल्टा पहले से भी कम हो जायेगी।

किसानों की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका मतलब साफ है कि आज किसानों की ऐसी कोई देशव्यापी पार्टी या संगठन नहीं है जो उनके हक–हुकूक के लिए पूरे देश में अपनी आवाज बुलन्द कर सके। ऐसे में आज किसानों के सामने दो ही रास्ते हैं। या तो वे बदहाली से तंग आकर खुद को कोसते रहें या फिर अपने बेहतर भविष्य के लिए एकजुट होकर बदलाव के लिए संघर्ष करें।

“जब साहित्य का काम केवल मन–बहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियाँ गा–गाकर सुलाना, केवल आँसू बहाकर जी हलका करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका गम दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो–– जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहींय क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”

(साहित्य का उद्देश्य, प्रेमचन्द)

 
 

 

 

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