अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र : मौत का कारखाना

हाल ही में भारत सरकार ने अमरीकी मूल की सामाजिक कार्यकर्ता कासा एलिजाबेथ को कुडानकुलम पर कला प्रदर्शनी लगाने के आरोप में देश से निकाल दिया और दुबारा भारत आने पर रोक तक लगा दी।

एलिजाबेथ पिछले 14 सालों से तमिलनाडु के पांडिचेरी में रह रही थी। वह ‘पांडीआर्ट’ नाम से एक एनजीओ चलाती हैं, जिसमें वह विभिन्न सामाजिक विषयों पर कला प्रदर्शनी आयोजित करती हैं। कुछ समय पहले उन्होंने कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र के दुष्प्रभावों पर एक कला प्रदर्शनी आयोजित की थी जिसके बाद से वह सरकार के निशाने पर आ गयीं, उनके वीजा को गैर–कानूनी घोषित कर दिया गया। यहाँ तक कि उनके भारत आने पर एयरपोर्ट से ही उन्हें वापस जाने को विवश कर दिया गया। जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चेर्नाेविल, थ्रीमाइल आइलैंड और फुकोसिमा जैसे भयंकर नाभिकीय हादसों की अनदेखी कर कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र की प्रशंसा करते हुए इसे देश को समर्पित कर रहे हों, तो ऐसे में विरोध के स्वर कैसे बर्दास्त किये जाएँगे।

कुडानकुलम, तमिलनाडू में स्थित भारत का सबसे बड़ा नाभिकीय परमाणु संयंत्र केन्द्र है। इसे ऊर्जा क्षेत्र में एक क्रान्ति की तरह पेश किया जा रहा है। कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र को शुरू हुए पाँच साल से भी अधिक समय हो गया है पर इसकी सफलता और असफलता की कहीं कोई चर्चा नहीं होती है। इसे अत्याधुनिक तकनीक द्वारा निर्मित बताया जा रहा है जिसमें हादसा होने की कोई सम्भावना नहीं है। क्या वास्तव में ऐसा है? या फिर देश को किसी बहुत बड़े परमाणु ज्वालामुखी की ओर धकेला जा रहा है जो कभी भी लाखों लोगों की जिन्दगी निगल सकता है। अरबों डॉलर खर्च करने और लाखों लोगों की जिन्दगी दाँव पर लगाने के बाद भी देश की बिजली आपूर्ति में नाभिकीय ऊर्जा अब तक मात्र 3.5 प्रतिशत योगदान दे पायी है जो पवन ऊर्जा से भी आधा है। आखिर यह परियोजना किसके फायदे के लिए है?

कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र का इतिहास लगभग 30 साल पुराना है और इतना ही पुराना इसके खिलाफ उठा संघर्ष भी है। 1988 में सोवियत रूस और भारत के बीच दो नाभिकीय रिएक्टर के निर्माण का समझौता हुआ था, जिसे आसपास के मछुआरों और आम लोगों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था। सोवियत रूस के टूटने के बाद लगभग एक दशक तक यह स्थगित रहा और 2002 में भारी विरोध के बावजूद इसका निर्माण कार्य शुरू किया गया। जिस समय नाभिकीय दुर्घटनाओं को बीते जमाने की बातें कहकर सरकार इसके पक्ष में तर्क दे रही थी उसी समय पूरी दुनिया के सामने फुकोसिमा नाभिकीय दुर्घटना एक भयावह सच्चाई बन गयी। जहाँ हजारों लोग विकिरण की चपेट में आ गये और उन्हें बचाने के सारे उपाय विफल साबित हुए। आज तक खतरनाक विकिरण   के प्रभाव को कम करने का कोई तरीका नहीं खोजा जा सका है। फुकोसिमा की नाभिकीय दुर्घटना ने कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र के खिलाफ लोगों के संघर्ष को और तेज कर दिया। पहले प्रदर्शनकारियों में मछुआरों की संख्या सबसे अधिक थी, क्योंकि संयंत्र से निकलने वाला गरम पानी उनके मछली पालन के रोजगार को खत्म कर देता और वे भूखे मरने को विवश हो जाते।

2012 संघर्षों का साल था। सरकार ने दमन का रास्ता अपनाया। लगभग 5 हजार विशेष पुलिस बल पूरे क्षेत्र में लगा दिये गये। हजारों आन्दोलनकारियों पर आसूँ गैस के गोले दागे गये। लाठीचार्ज किया गया और देशद्रोह का मुकदमा लगाकर उन्हें अनियतकालीन समय के लिए जेल में बन्द कर दिया गया। लेकिन विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला निरन्तर चलता रहा। सरकार की मनमानी का विरोध जताने के लिए 117 लोग भूख हड़ताल पर बैठ गये और नारा दिया “हमारी बस एक माँग, इस परियोजना को बन्द करो”। उनको आसपास के गाँवों से हजारों लोगों का समर्थन मिलने लगा। आन्दोलन को बढ़ता देख तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता उनसे मिलने गयीं और उन्हें आश्वस्त किया कि संयंत्र पूरी तरह सुरक्षा मानकों से बना है और अगर कोई दिक्कत होगी तो वह बिल पास करके इसका विरोध करेंगी। उन्होंने लोगों को इसकी सफलता के लिए सरकार का साथ देने की अपील की। भूख हड़ताल वापस ले ली गयी। अचानक तीन दिन बाद जयललिता अपनी बात से पलट गयीं और खुद को असहाय बताकर इस मामले को केन्द्र सरकार के अधीन बताया। विरोध करने वालों का आरोप था कि सरकार की तरफ से कभी किसी तरह की बातचीत की पहलकदमी नहीं हुई। आखिरकार 2013 में तमाम विरोधों को कुचलते हुए संयंत्र की पहली इकाई शुरू कर दी गयी और 2017 तक दूसरी, तीसरी और चैथी इकाइयों को भी शुरू कर दिया गया। अगली दो इकाइयों के लिए रूस से नया करार भी कर लिया गया।

कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र को लेकर पूरे देश में तमाम तरह के भ्रम भी फैलाये गये। एक नामी हस्ती ने इसे खुशहाल भविष्य का रास्ता बताया। न्यूक्लियर पावर कोर्पाेरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के चेयरमैन ने कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र में उपयोग किये गये रूसी रिएक्टरों को दुनिया की सबसे उन्नत तकनीक वाला बताया। लेकिन इन दावों की पोल जल्दी ही खुलने लगी, साल 2018 में हुई एनपीसीआईएल की मीटिंग में यह स्वीकार किया गया कि पिछले 5 सालों में नाभिकीय संयंत्र का शायद ही कोई उपकरण बचा होगा जो खराब न हुआ हो। खराबी बेहद संवेदनशील उपकरणों में भी देखने को मिली। इसका सबसे बड़ा उदहारण रिएक्टर–1 का एक पम्प है, जिसमें लगातार दिक्कत बनी रही, यह पम्प रिएक्टर से ऊष्मा को बाहर निकालने का काम करता है। अगर इसके काम करने में दिक्कत आ जाये तो तापमान बढ़ने की वजह से पूरा रिएक्टर फट सकता है और हानिकारक विकिरण बाहर आकर लाखों लोगों को अपनी चपेट में ले सकता है। लेकिन यह बात सरकार ने गुप्त रखी।

भारत में रूस से मँगाये गये नाभिकीय उपकरणों की खराबी की शुरुआत बहुत पहले ही हो गयी थी, 2011 में इसके परिक्षण के दौरान ही एक विस्फोट हुआ था जो आसपास के गाँवों तक सुनायी दिया था। अधिकारियों ने इसे केवल भाप का रिसाव बताकर मामला शान्त कर दिया था। 2008 में रूस ने जब यही रिएक्टर चीन को दिये थे, तब भी ऐसी ही दिक्कत आयी थी। लेकिन यह जानकर हैरानी होती है कि जहाँ चीन ने अपने सारे रिएक्टर वापस कर दिये थे और पूरे प्रोजेक्ट को 3 साल के लिए स्थगित कर दिया था, वहीं भारत में इतनी गम्भीर समस्या को नजरंदाज कर दिया गया और कुछ ही महीनों में उसे दुबारा चालू कर दिया गया। परिणाम यह कि 2011 से लेकर 2018 के बीच पम्प की 8 बार मरम्मत कराने की जरूरत पड़ी। याद रहे, इन्हें मरम्मत कराने के लिए रूस की मदद लेनी पड़ती है जिसके कारण लाखों डॉलर खर्च होते हैं। यह समस्या केवल पम्प तक ही सीमित नहीं है बल्कि “रिएक्टर प्रेशर वेसल”, जो बहुत नाजुक उपकरण है, उसमें भी खराबी आने के चलते उसे 2013 में मरम्मत कराना पड़ा था जिसके लिए जर्मनी से विशेषज्ञ बुलाने की जरूरत पड़ी थी।

नाभिकीय संयंत्र में ‘हीटर्स’ का काम मुख्य होता है। यह रिएक्टर के दाब को कम करके पानी को उबालता है। अगर किसी वजह से यह काम करना बन्द कर दे तो उच्च दाब के कारण पूरा नाभिकीय संयंत्र एक बम में तब्दील हो सकता है। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि संयंत्र के 27 हीटर्स में से 18 में गम्भीर गड़बड़ियाँ पायी गयीं। एनपीसीआईएल ने जल्दबाजी में इन्हें मरम्मत के लिए गुजरात की एक कम्पनी को भेजा लेकिन निराशा हाथ लगी। रूस से आये इंजीनियर भी इसे ठीक नहीं कर पाये। बाद में यूक्रेन की एक कम्पनी ने इसे ठीक किया। इसमें करोड़ों रुपये तो खर्च हुए ही, साथ ही साथ इसने निकट भविष्य में होने वाली किसी बड़ी दुर्घटना की सम्भावना को भी प्रमाणित कर दिया।

पिछले पाँच सालों में टरबाइन जनरेटर को 27 बार मरम्मत की जरूरत पड़ी। पूरी दुनिया में यह अपनी तरह का अलग ही मामला है, जब इतनी दिक्कतों के बाद भी नाभिकीय संयंत्र को बन्द करने के बजाय उसे और आगे बढ़ाया जा रहा है।

1988 में इकाई–1 और इकाई 2 की सम्भावित कीमत 6 हजार करोड़ रुपये आँकी गयी थी, जिसके कुछ समय बाद इसे दुगुना बताया गया और साल 2011 में रूस ने इसकी कीमत 13,171 करोड़ तक बढ़ा दी। इतना ही नहीं, इतनी बड़ी कीमत चुकाने के लिए खुद रूस ने भारत को कर्ज दिया, जिसके एवज में भारत से हजारों करोड़ रुपये ब्याज के रूप में वसूल लिये गये। चैंकाने वाली बात यह है कि नाभिकीय र्इंधन की वास्तविक कीमत मात्र 2,129 करोड़ रुपये बतायी जा रही है। इससे कहीं आगे बढ़कर तीसरी और चैथी इकाई के लिए भारत सरकार ने इसके लिए 39,747 करोड़ रुपये चुकाये। इस पूरी परियोजना में रूस ने भारत को अपना नाभकीय कबाड़ बेचकर हजारों करोड़ कमा लिये और बदले में भारत सरकार ने अपनी जनता के लिए मौत को दावत दे दी।

रूस के रिएक्टर दुनिया के जिस भी कोने में गये, वहाँ यही समस्या देखने को मिली। लेकिन इतनी लापरवाही के साथ अपने देश की जनता को मौत के मुँह में धकेलने का काम शायद ही कहीं और देखने को मिले। दरअसल रूस ने भारत को ‘26वीवीर–1000’ रिएक्टर दिये हैं। यह वही रिएक्टर है जो 1986 में चेर्नाेविल नाभिकीय दुर्घटना के समय सोवियत रूस में प्रयोग किये जा रहे थे। इस दुर्घटना में विकिरण की चपेट में आने से हजारों लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी और जो बच गये, वे भयंकर बीमारियों से तिल–तिल मरने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इसके बाद सोवियत रूस में हर जगह इसके काम को रोक दिया गया। आज रूस में इस नाभिकीय संयंत्र के पूरी तरह काम करने की स्थिति में होते हुए भी इसे एक संग्राहलय में तब्दील कर दिया गया है।

भारत सरकार ने देश के करोड़ों लोगों की जिन्दगी को खतरे में रखकर रूस में बेकार पड़े नाभिकीय कबाड़ को भारत लाने की अनुमति दे दी। जहाँ एनपीसीआईएल से लेकर प्रधानमंत्री तक ने इन रिएक्टरों की प्रमाणिकता की कसमें खायी थीं, जबकि तथ्यों से साफ पता चलता है कि रिएक्टर सुरक्षित नहीं हैं। दरअसल रिएक्टरों में 4 “स्टीम जनरेटर” उपयोग किये जाते हैं जिनकी मुख्य भूमिका होती है। इन्हें बनाने वाली ‘जैयो–पोडोइस्क’ नामक एक रूसी कम्पनी है, इस कम्पनी के मालिक को फरवरी 2012 में ‘फेडरल सर्विस ऑफ रसिया’ ने भ्रष्टाचार के मामलें में गिरफ्तार किया था। बाद में इस कम्पनी के कई घोटाले पकड़े गये थे। साफ है कि इस कम्पनी के बने उपकरणों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत सरकार ने इसे नजरअन्दाज कर दिया और सभी जनरेटर इसी कम्पनी से खरीद लिये। याद रहे एक एफिडेविट में सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने इस जनरेटर को सही बताया था, जबकि ‘एटॉमिक एनर्जी लेबोरेटरी, इंडिया’ द्वारा इनकी जाँच की गयी तो उसमें 7 ट्यूब खराब मिली जो किसी भी बड़े हादसे के लिए जिम्मेदार हो सकती थी। अपनी जाँच–पड़ताल में उन्होंने स्वीकार किया कि 2 रिएक्टरों में तो भीषण खराबी है। इसके चलते मई 2014 में कुडानकुलम संयंत्र में एक हादसा भी हो चुका है जिसमें 6 कर्मचारियों को गम्भीर चोटें आयी थीं। विशेषज्ञों ने इस घटना का कारण 1986 में ‘सर्री नाभिकीय दुर्घटना’ के कारण से मिलता जुलता बताया, जिसमें लगभग 320 कर्मचारी मारे गये थे। 

एनपीसीआईएल ने हर कदम पर देश की जनता से झूठ बोला। उसने पहले भी किसी भी तरह की जाँच–पड़ताल नहीं की बल्कि लगातार बड़ी–बड़ी कमियाँ सामने आने पर भी उन्हें नजरअन्दाज किया। उपकरणों की खामियों को छिपाने के साथ ही सरकार ने स्वास्थ्य सम्बन्धित मामलों में भी आस–पास के लोगों को गुमराह किया। डॉ मंजुला दत्ता ने अपने सर्वे में पाया कि नाभिकीय संयंत्र के 10 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों में खतरनाक बदलाव देखने को मिले हैं। कैंसर के मरीजों की संख्या में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुयी। जहाँ पूरे देश में प्रति लाख पर 2 लोगों को कैंसर की सम्भावना रहती है, वहीं इसके आसपास के इलाकों में यह सम्भावना 600 प्रतिशत से अधिक मिली। सबसे ज्यादा नुकसान 5 साल तक के बच्चों में देखने को मिला। इनमें ब्लड कैंसर (लयूकेमिया) नामक बिमारी के लक्षण दिखे। यह बिमारी सबसे पहले जर्मनी के नाभिकीय संयंत्र के आसपास रहने वाले बच्चों में पायी गयी थी। कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र के 30 किलोमीटर के दायरे में लगभग 10 लाख लोग रहते हैं जिनके स्वास्थ्य को लेकर भारत सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। भारत की जनता को इस परियोजना से कभी भी आ धमकने वाली मौत के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं होगा जबकि रूस इस नाभिकीय समझौते के चलते मालामाल हो गया।

यह कहानी केवल एक नाभिकीय संयंत्र की नहीं है बल्कि भारत में ऐसे 27 संयंत्र खोलने की पेशकश की जा रही है। साल 2018 में भारत और फ्रांस के बीच हुए समझौते में नाभिकीय समझौता महत्त्वपूर्ण है, जिसमें महाराष्ट्र के जैतापुर में दुनिया का सबसे बड़ा नाभिकीय संयंत्र लगाने का करार हुआ है।

आज जर्मनी की सरकार यह निश्चय कर चुकी है कि 2022 तक वह अपने सभी नाभकीय संयंत्रों को बन्द कर देगी। स्विट्जरलैंड ने भी ऐसी ही घोषणा की है। जापान और इटली में भारी विरोध के कारण वहाँ की सरकारों ने नये संयंत्र लगाने से अपने कदम पीछे हटा लिये हैं। खुद रूस और अमरीका ने अपने देश में पिछले 2 दशकों से कोई नाभिकीय संयंत्र नहीं लगाया है। आज पूरी दुनिया के लोग इसके विनाशकारी नतीजों को समझ चुके हैं लेकिन इस नाभिकीय कबाड़ के कूड़ाघर के रूप में आज भारत विश्व पटल पर उभरता नजर आ रहा है। भारत सरकार इस काम में रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी और अमरीकी साम्राज्यवादियों का पूरा साथ दे रही है और उनके मुनाफे की भूख को शान्त करने के लिए देश के करोड़ों निर्दाेष लोगों और भावी पीढ़ियों को मौत का निवाला बनाने से भी कोई परहेज नहीं कर रही है। हमें “संघर्ष या मौत” के नारे के साथ लोगों को एकजुट कर इन देशी–विदेशी मौत के सौदागरों से लोहा लेना होगा। एकमात्र यही विकल्प आज हमारे जिन्दा रहने की शर्त है।

 
 

 

 

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