जून 2021, अंक 38 में प्रकाशित

गाजा पर इजरायल का हमला : दक्षिणपंथी सरकारों का आजमाया हुआ पैंतरा

गाजा पट्टी की फिलिस्तीनी जनता के उपर 11 दिनों तक मिसाइलों, बमवर्षकों, तोपों से गोले दागने के बाद 21 मई को इजराइल युद्ध विराम के लिए राजी हुआ। इस युद्ध में एक तरफ अमरीका से मिली जेडीएएम (ज्वांइट डायरेक्ट अटैक म्यूनेशन) तकनीकी सहायता, 3.8 बिलियन डॉलर (26,600 करोड़ रुपये) प्रति वर्ष की आर्थिक सहायता और तमाम अत्याधुनिक सैन्य साजो सामानों से लैस इजरायल था और दूसरी तरफ थी गाजा पट्टी की फिलिस्तीनी जनता जिसकी दो तिहाई आबादी बतौर शरणार्थी दर्ज है, जिसके 6 लाख लोग शरणार्थी शिविरों में कैद हैं और जिसकी बेरोजगारी दर 50 प्रतिशत इसलिए है क्योंकि इजरायली नाकेबन्दी ने उसे दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल में तब्दील किया हुआ है। वहाँ की आधी आबादी बाहर से मिलने वाली खाद्य सहायता पर निर्भर है।

जेडीएएम तकनीक का इजरायली सेना ने बखूबी इस्तेमाल करके रिहायशी इमारातों, स्वास्थ्य केन्द्रों, कोविड टेस्टिंग प्रयोगशाला, शरणार्थी शिविरों, पानी–बिजली आपूर्ति और यहाँ तक कि एक पुस्तकालय को मटियामेट कर दिया। गाजा के अधिकारियों के मुताबिक इस हमले में उनकी 1500 रिहाइशी इकाइयाँ तबाह हो गयीं। गाजा औद्योगिक क्षेत्र की ज्यादातर फैक्ट्रियों को इजराइली सेना ने निशाना बना कर बर्बाद कर दिया। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 50 प्रतिशत जल आपूर्ति इस हमले में ध्वस्त हो गयी।

इजरायल का दावा है कि उसने हमास के 225 कमाण्डरों और सैनिकों को मार डाला, गाजा के स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि मरने वालों की संख्या 248 है जिसमें 66 बच्चे भी शामिल हैं। इस हमले में 1900 फिलिस्तीनी लोग घायल हुए। गाजा पट्टी से दागे गये रॉकेटों से इजरायल के 12 नागरिकों की भी मौत हो गयी।

सबसे जघन्य बात यह रही कि हमला ऐसे समय में हुआ जब क्षेत्र कोविड–19 महामारी से जूझ रहा था। इजराइल ने क्षेत्र में एकमात्र कोविड परीक्षण केन्द्र पर बमबारी की। क्षेत्र पर कब्जा करने के बावजूद, इजराइल ने गाजा को कोई टीका उपलब्ध नहीं कराया। इजरायल की बमबारी के कारण गाजा को भीड़–भाड़ वाले बम आश्रयों बंकरों और स्कूलों में शरण लेनी पड़ी। वहाँ ऐसे समय में महामारी फैलने का डर बढ़ गया है जब क्षेत्र घायलों की देखभाल करने और बुनियादी ढाँचे को हुए जबरदस्त नुकसान की मरम्मत करने की सख्त कोशिश कर रहा है। पानी की आपूर्ति प्रणाली और बिजली ग्रिड, जो इस समय सबसे जरूरी साधनों में से थे, बम विस्फोटों में एक बार फिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गये हैं।

इजराइल जंग क्यों चाहता है ?

अगर प्रचार को तथ्य की तरह न स्वीकारा जाये और घटनाओं के सिलसिले पर गौर करें तो साफ मालूम हो जाता है कि इजरायल किस कदर एक जंग चाहता था। फिलिस्तीनी जनता पर इजराइल के हालिया हमले को इजराइल में जारी राजनीतिक संकट की रोशनी में भी समझा जा सकता है।

इजरायल में पिछले दो सालों में चार बार हुए चुनाव इस बात की व्याख्या कर सकते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री नेतन्याहू सरकार बनाने के लिए जरूरी सीटें नहीं जीत सके। मार्च 2020 में उनकी लिकुड पार्टी को 120 सदस्यीय कैसेट (इजरायल की संसद) में महज 36 सीटें मिली थीं, मार्च 2021 में हुए चुनावों में सीटें घटकर 30 रह गयीं। नेतन्याहू की सत्ता से बेदखली तय थी। इजरायल के राष्ट्रपति रिवलिन नेतन्याहू को 4 मई तक बहुमत साबित करने का मौका दिया था। नेतन्याहू के लिए कुर्सी पर बने रहना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था कि उन पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप हैं जिनके चलते मुमकिन है कि उन्हें जेल भी हो सकती है। नेतन्याहू ने सत्ता पर बने रहने के लिए हर आजमाइश की। धुर विरोधी विचारों वाली अरब पोलिटिकल पार्टी तक से समर्थन माँगा लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। ऐसे मौकों पर अन्धराष्ट्रवाद, धर्मान्धता, दंगे और साम्प्रदायिकता की आग को हवा देना दक्षिणपंथी सरकारों की खास रणनीति रही है। चुनावों से पहले इस तरह की रणनीति का गवाह खुद भारत भी रहता आया है।

युद्धविराम के पाँच दिन बाद 16 मई को अल जजीरा ने एक रिपोर्ट जारी की जो इसकी तस्दीक करती है–– “23 मार्च के चुनावों के तुरन्त बाद, यायर लैपिड ने रक्षा मंत्री और व्हाइट एण्ड ब्लू गठबन्धन के अध्यक्ष बेनी गैंट्ज से मुलाकात की और हारेत्ज के लेखक योसी वर्टर के अनुसार, उन्हें यह बात बतायी–– ‘एक बात है जिस पर आपको विचार करने की जरूरत है। अगर नेतन्याहू को लगता है कि सरकार उनकी उँगलियों से फिसल रही है, तो वह एक सुरक्षा का मामला गढ़ने की कोशिश करेंगे। गाजा या उत्तरी सीमा में। अगर वह सोचते हैं कि उन्हें बचाने का यही एकमात्र तरीका है, तो वह एक पल के लिए भी ऐसा करने से नहीं झिझकेंगे।’”

13 अप्रैल को रमजान के शुरुआती दिन, इजरायली सुरक्षा बल अल अक्सा मस्जिद में घुसे और वहाँ के तार काट दिये जिनका बन्दोबस्त मस्जिद के बाहर नमाज पढ़ने वालों के लिए किया गया था। अल अक्सा मस्जिद मुस्लिम समुदाय के तीन सबसे पवित्र स्थानों में से एक है।

21 अप्रैल को अल अक्सा की घटना के बमुश्किल एक हफ्ते बाद, नेतन्याहू ने कैसेट सदस्य इतामार बेन ग्विर का समर्थन माँगा। ग्विर वास्तव में बारूक गोल्डस्टीन के प्रशंसक हैं, जिसने 1994 में एक मस्जिद में नमाज पढ़ रहे 29 फिलीस्तीनियों को मार डाला और 125 को घायल कर दिया था। ग्विर ने पूर्वी यरुशलम में एक उपद्रवी जुलूस निकाला, जो दशकों से शेख जर्राह में रह रहे फिलिस्तीनियों को निकालने के कारण पहले से ही तनावपूर्ण था। पुलिस की नजरों के सामने ग्विर के अनुयायी “अरबों को मौत” का नारा लगा रहे थे।

4 मई को नेतन्याहू ने राष्ट्रपति को बताया कि वह बहुमत हासिल नहीं कर सके। हालाँकि, उन्होंने सत्ता छोड़ी नहीं। वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में बने रहे। 5 मई को राष्ट्रपति ने यायर लैपिड को 28 दिनों के भीतर सरकार बनाने का जिम्मा सौंपा। तब तक 56 विधायक राष्ट्रपति से कह चुके थे कि वह लैपिड का समर्थन करेंगे।

7 मई को इजरायली सुरक्षा बल अल अक्सा मस्जिद में घुसे और वहाँ नमाज पढ़ रहे लोगों पर हथगोले और रबर की गोलियों से हमला किया, जिसमें 53 लोग घायल हो गये।

गाजा में हमास के नेतृत्व ने नेतन्याहू की दक्षिणपंथी सरकार को चेतावनी दी थी कि अगर फिलिस्तीनियों को रमजान के पवित्र महीने के दौरान यरुशलम में अल अक्सा मस्जिद में शान्तिपूर्वक नमाज अदा करने की इजाजत नहीं दी गयी और अगर इजरायल राज्य पूर्वी यरुशलम और इजराइल के अन्य हिस्सों और कब्जे वाले क्षेत्रों में फिलिस्तीनी आवासीय क्षेत्रों को जबरन कब्जाना जारी रखता है तो वह निष्क्रिय नहीं रहेगा।

इजराइली सरकार ने अल अक्सा मस्जिद में अपनी उत्तेजक कार्रवाइयों के बाद प्रतिष्ठित दमिश्क गेट को बन्द कर दिया, जो यरुशलम में मुख्य प्रवेश द्वारों में से एक है। यहाँ फिलिस्तीनी रमजान के दौरान अपना रोजा खोलने के लिए इकट्ठा होते हैं। इसके साथ ही शेख जर्राह के पूर्वी यरुशलम के इलाके में शेष फिलिस्तीनी निवासियों को बेदखल करने के लिए इजरायल के अधिकारियों द्वारा एक और कदम उठाया गया था। जिस पर इजरायल की सर्वाेच्च अदालत में मई के मध्य में सुनवाई होनी थी लेकिन गाजा पर हमले और इजरायल में हुई दंगों की घटनाओं के चलते इसे टाल दिया गया।

इजराइली कानून यहूदियों को 1948 में यहूदी राज्य की स्थापना से पहले उनके पूर्वजों के स्वामित्व वाली भूमि पर दावा करने की इजाजत देते हैं। इसके चलते लाखों फिलिस्तीनियों को जबरन उस जमीन से बेदखल कर दिया गया था जिसमें वह पैदा हुए और जो अब इजरायल है। कानून उन्हें उस भूमि पर वापस लौटने की इजाजत नहीं देते।

इजराइल के भीतर भी, नेतन्याहू ने ‘तोराह न्यूक्लियस’ आन्दोलन जैसे चरम दक्षिणपंथी समूहों को उन शहरों और कस्बों में आक्रामक रूप से हमले करने के लिए भड़काया, जिनमें अच्छी खासी तादात में फिलिस्तीनी आबादी बसती है। लोद जैसे शहरों में हिंसा भड़क उठी और यहूदी भीड़ ने फिलीस्तीनियों पर खुलेआम हमले किये। गाजा पर हमला शुरू होने के बाद मॉब लिंचिंग के मामले भी सामने आये।

4 मई को हमास के सैन्य प्रमुख, मोहम्मद दीफ ने शेख जर्राह के लोगों के खिलाफ “हमलों को रोकने” के लिए इजराइल को “अन्तिम चेतावनी” जारी की। इजराइल ने चेतावनी को नजरअन्दाज कर दिया।

हमास उस राजनीतिक शून्य में भी कदम रख रहा था जिसे महमूद अब्बास के नेतृत्व में फिलीस्तीनी अथॉरिटी (पीए) ने अपनी अयोग्यता और अवसरवाद से पैदा किया था। फिलीस्तीनी अथॉरिटी के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने, हमास के हाथों हार के डर से, कब्जे वाले क्षेत्रों में इस साल अप्रैल में होने वाले आम चुनावों को एक मामूली बहाने से रद्द कर दिया था। यह चुनाव 15 साल बाद होने वाले थे। जनवरी 2006 में हुए चुनावों में हमास की जीत हुई थी। हमास ने वेस्ट बैंक और गाजा में 132 में से 74 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था। आर्थिक और अन्य तरीकों से इजरायल और अमरीका द्वारा समर्थित राष्ट्रपति अब्बास की फतह पार्टी को हार का सामना करना पड़ा था। यूरोपीय संघ ने घोषणा की थी कि यह चुनाव उसके कुछ सदस्य राज्यों के चुनावों से बेहतर थे। इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद का भी आकलन था कि फतह पार्टी जीत जायेगी। लेकिन लोकतंत्र की स्थापना कराने वाले स्वनामधन्यों ने हमास को जीत की सजा दी। इजराइल और उसके समर्थकों, अमरीका और यूरोप ने हमास के नेतृत्व वाली सरकार से वित्तीय सहायता वापस ले ली और अब्बास की मेहरबानी से प्रधान मंत्री को बर्खास्त कर दिया गया। गाजा में मजबूत समर्थन आधार वाले हमास ने वहाँ का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और इजराइल ने गाजा पट्टी पर शिकंजा कसकर इसे खुली जेल में बदलकर बदतर बना दिया।

इजराइल के पीछे अमरीकी ताकत

नवनिर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति जो बायडन प्रशासन ने इजरायल के “खुद का बचाव करने के अधिकार” के तौर पर गाजा पट्टी पर हुए हमलों को जायज ठहराया। सिनेटर रहते हुए बायडन का दावा था कि यहूदी राज्य को मिलने वाली सालाना सैनिक सहायता वाशिंगटन द्वारा इस क्षेत्र में किया गया सबसे अच्छा निवेश है जिसको लेकर शर्मिदा होने की कोई जरूरत नहीं है। गाजा पर हमले से एक हफ्ते पहले बायडन प्रशासन ने इजरायल को 73.5 करोड़ डॉलर के हथियार बेचने की भी घोषणा की थी।

इजरायल कोई गरीब देश नहीं है। संयुक्त राष्ट्र में शामिल 193 देशों में प्रति व्यक्ति जीडीपी रैंकिंग में वह 19वें स्थान पर है। इजरायल की प्रति व्यक्ति जीडीपी 46,376 डॉलर है। इस मामले में वह जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और साउदी अरब से आगे है। इसके बावजूद अमरीका हर साल इजरायल को 3.8 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता देता है। इस सहायता का भारी हिस्सा वापस अमरीकी हथियारों को खरीदने में किया जाता है।

वित्तीय और सैन्य सहायता के अलावा, पिछले 70 सालों में 42 बार अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इजरायल से सम्बन्धित प्रस्तावों पर वीटो का इस्तेमाल कर उसे बचाया है। इसके अलावा वह इजरायल को बड़ा राजनीतिक समर्थन भी देता है।

जैसे ही इजराइल ने गाजा पर हमला तेज किया और नागरिक हताहत हुए, बायडन ने नेतन्याहू के साथ टेलीफोन बातचीत में, “अन्धाधुन्ध रॉकेट हमलों से खुद को बचाने के लिए इजराइल के अधिकार को अपना दृढ़ समर्थन दोहराया”। बायडन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में युद्धविराम के चीन और रूस के प्रयासों को 10 से भी ज्यादा दिनों तक रोके रखा।

अमरीका के लिए इजरायल के महत्त्व को, जिसे बायडन इस क्षेत्र में सबसे अच्छा निवेश होने का दावा करते हैं, डी येरगिन ने अपनी किताब ‘द प्राइज : द इपिक क्वेस्ट फॉर आयल, मनी एण्ड पावर’ में कुछ इस तरह से दिखाया है–– 1944 में एक ब्रिटिश राजदूत के लिए अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट के मन में क्या था–– “फारसी तेल––– तुम्हारा है। हम इराक और कुवैत के तेल को बाँट लेते हैं। जहाँ तक सऊदी अरब के तेल की बात है, यह हमारा है।”

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन का सूरज डूब गया था और अमरीका एक नयी साम्राज्यवादी ताकत बनकर उभरा था। इजरायल ही मध्य पूर्व के क्षेत्र में अमरीका की सबसे मजबूत चैकी हो सकता था जो वह आज है और अमरीका के भू राजनीतिक हितों को साधता है। इजरायल के सहारे ईरान को काबू में करने की वह लगातार कोशिश करता है।

दुनिया भर में इजरायल के हमलों का विरोध

लेकिन इस बार फिलिस्तीन पर इजरायली हमलों का दुनिया भर में बहुत व्यापक स्तर पर विरोध हुआ। दुनिया भर में लाखों लोग इजरायली हमले और फिलिस्तीन की घेराबन्दी के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। भले ही अमरीका, कनाडा और अधिकांश यूरोपीय राष्ट्रों ने फिलिस्तीन राज्य के निर्माण को लेकर हुए ओस्लो समझौते को लागू करने से इनकार करने के बाद भी इजरायल का समर्थन करना जारी रखा है, लेकिन इन देशों में जनता की राय तेजी से यहूदी राज्य के खिलाफ होती जा रही है। युद्ध विराम की घोषणा के बाद से ही न्यू यॉर्क, पेरिस, बर्लिन फ्रेकफर्ट मेलबर्न जैसे पश्चिमी शहरों में भारी तादाम में जनता ने फिलिस्तीन के समर्थन में फिलिस्तीनी झण्डा लेकर प्रदर्शन किये। “आजाद फिलिस्तीन” और इजरायल को युद्ध अपराधी घोषित करने के नारे लगाये गये। लन्दन में 2 लाख से अधिक लोगों ने प्रदर्शन में भाग लिया। फ्रांसीसी सरकार शुरू में महामारी का बहाना बनाकर इस एकजुटता प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहती थी। लेकिन आखिरकार वह ऐसा कर न सकी। प्रदर्शकारी नारे लगा रहे थे–– “हम सभी फिलिस्तीनी हैं” और “इजराइल हत्यारा है, मैक्रोन उसका सहयोगी है।”

अमरीका में यहूदियों का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग अब आँख बन्द करके इजराइल का समर्थन नहीं करता है। नेतन्याहू सरकार की नीतियों की आलोचना में उदारवादी यहूदी समूह जैसे जेस्ट्रीट, इफनॉट नाउ और यहूदी वॉयस फॉर पीस जैसे समूह खुल कर सामने आये हैं। “ब्लैक लाइव्स मैटर” आन्दोलन जिसने अमरीका में भारी राजनीतिक महत्त्व पाया है, ने भी फिलिस्तीन की माँग का समर्थन किया है।

अप्रैल में अमरीकी कांग्रेस के 75 डेमोक्रेटिक सदस्यों ने अमरीकन इजरायल पब्लिक अफेयर कमेटी द्वारा तैयार किये गये एक पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया, जिसमें माँग की गयी थी कि इजराइल को “बिना शर्त” सालाना 4 बिलियन डॉलर का सहायता पैकेज दिया जाये। डेमोक्रेटों का यह धड़ा ‘प्रोग्रेसिव डेमोक्रेट’ के नाम से जाना जाता है जिसका नेतृत्व बर्नी सैण्डर्स कर रहे हैं। गाजा पर हुए हमलों के बाद डेमोक्रेट पार्टी फिलिस्तीन के सवाल पर खुलेआम बँट गयी है।

न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखते हुए, सैण्डर्स ने कहा कि अमरीका को “इजरायल को अपनी रक्षा करने का अधिकार है” की रट लगानी बन्द कर देनी चाहिए और इसके बजाय “फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों” पर भी ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा कि शेख जर्राह के पूर्वी यरुशलम उपनगर से फिलिस्तीनी परिवारों की निरन्तर बेदखली जैसी घटनाएँ “राजनीतिक और आर्थिक उत्पीड़न की एक व्यापक प्रणाली का हिस्सा हैं”।

अमरीकी कांग्रेस के 25 से अधिक डेमोक्रेटिक सदस्यों ने राज्य सचिव एंटनी ब्लिंकन को पत्र लिखकर बायडन प्रशासन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों को जबरन बेदखल करने से रोकने का आग्रह किया। पत्र में बताया गया है कि इजराइल 1967 से पूर्वी यरुशलम में 5,000 से अधिक फिलिस्तीनी घरों को ध्वस्त कर चुका है। इसमें कहा गया है–– “पूर्वी यरुशलम वेस्ट बैंक का हिस्सा है और अन्तरराष्ट्रीय कानून के तहत, यरुशलम नगरपालिका के भीतर अवैध ढंग से पूर्वी यरुशलम का समावेश करने के बावजूद इजराइल इस क्षेत्र पर सैन्य कब्जा जमाये बैठा है।”

युद्धविराम लागू होने के बाद गाजा का दौरा करने वाले फिलिस्तीन के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानवीय समन्वयक लिन हेस्टिंग्स ने कहा कि इस क्षेत्र पर इजरायल की नाकेबन्दी को तुरन्त हटा दिया जाना चाहिए और इस क्षेत्र को बाकी फिलिस्तीन के साथ जुड़ने की इजाजत दी जानी चाहिए।

भारत का ढुलमुल रवैया

इजरायल को नयी दिल्ली में इजरायली दूतावास खोलने की इजाजत आजादी के 45 साल बाद जाकर मिली। भारत जबरन एक यहूदी राष्ट्र के निर्माण की अवधारणा के ही खिलाफ था और फिलिस्तीन के साथ सैद्धान्तिक एकजुटता रखता था। नरेन्द्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री थे जो राजनयिक सम्बन्धों की 25 वीं वर्षगाँठ मनाने के लिए 4 जुलाई 2017 को इजराइल के शहर तेल अवीव पहुँचे। इन 25 वर्षों में इजरायल भारत का रक्षा भागीदार बनकर उभरा है और भारत इजरायल के सबसे बड़े रक्षा बाजार के रूप में सामने आया है, वह अपने हथियारों का 41 प्रतिशत यहीं निर्यात करता है। भारत सरकार ने इजरायल–फिलिस्तीन मसले पर पहले तो युद्ध विराम का आह्वान करने से परहेज किया लेकिन कुछ दिनों बाद जब यह तय हो गया कि खुद अमरीका युद्ध विराम की पैरवी कर रहा है तो वह इसमें शामिल हो गयी।

भारत सरकार ने 27 मई को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के उस प्रस्ताव पर वोट करने से खुद को दूर कर लिया जिसके तहत गाजा, इजराइल और आक्यूपाइड वेस्ट बैंक में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर एक स्थायी आयोग का गठन किया जाना था। अमरीका और उसके दुमछल्लों के विरोध के बावजूद एक आसान बहुमत से यह प्रस्ताव पारित हो गया। यह पहली बार था कि “राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय और धार्मिक पहचान के आधार पर व्यवस्थागत भेदभाव और दमन सहित, बार—बार होने वाले तनाव, अस्थिरता और संघर्ष के फैलाव के सभी अन्तर्निहित मूल कारणों को देखने के लिए एक अन्तरराष्ट्रीय जाँच आयोग की स्थापना” की जा रही थी।

भारत के लिए गुनाह बेलज्जती की हालत यह थी कि इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने उसका साथ देने वाले देशों का शुक्रिया अदा किया लेकिन जाने क्यों भारत को इससे अलग रखा। हद तो तब हो गयी जब हिन्दू–मुस्लिम करने में माहिर देश की गोदी मीडिया बेशर्मी से इजरायल की पैरवी करने लगी और आईटी सेल के धुरन्धर नेतन्याहू को टैग करते हुए इजराइल के साथ खड़े होने की कसमें खाने लगे।

इस बीच, उत्तर प्रदेश पुलिस ने आजमगढ़ से 32 वर्षीय एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया, जिसका नाम संयोग से यासर अराफात था। (ज्ञात हो कि यासर अराफात फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष के एक बड़े और लोकप्रिय नेता थे।) यासर ने अपने फेसबुक पेज पर फिलिस्तीन समर्थक तस्वीर और टिप्पणियाँ पोस्ट की थी। उन्हें “शान्ति भंग करने” के लिए गिरफ्तार किया गया था। अराफात ने अपने पोस्ट में कहा था कि इजरायल की आक्रामकता के प्रतिरोध के प्रदर्शन में फिलिस्तीनी झण्डे हर घर, वाहन और कार्यालय पर फहराएँगे। यू–पी– पुलिस ने कहा कि पोस्ट से आजमगढ़ में साम्प्रदायिक तनाव फैल गया था। बाद में अराफात को रिहा कर दिया गया।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एक यहूदी राज्य की स्थापना के खिलाफ थे। 1934 में लिखे अपने एक लेख ‘इसाइयत के अछूत’ में उन्होंने लिखा–– “यहूदियों की ‘अपना राष्ट्रीय घर’ की माँग मुझे जँचती नहीं है। इसके लिए बाइबल का आधार ढूँढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फिलिस्तीनी इलाके में लौटने की बात उठायी जा रही है। लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहाँ जन्मंे हैं और जहाँ से अपनी रोजी–रोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें ?––– फिलिस्तीनी जगह उसी तरह अरबों की है जिस तरह इंग्लैण्ड अंग्रेजों का है या फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाये। उचित तो यह होगा कि यहूदी जहाँ भी जन्में हैं और कमा–खा रहे हैं वहाँ उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो। अगर यहूदियों को फिलिस्तीनी जगह ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाये जहाँ वे आज हैं ? या कि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं ? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था।”

इजराइल फिलिस्तीन के बीच 11 दिनों तक चले युद्ध के बाद संघर्ष विराम की घोषणा भले ही तात्कालिक शान्ति का भरोसा जताती हो लेकिन दोनों पक्ष जानते हैं कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा।

अमरीकी साम्राज्यवाद और यहूदी राष्ट्र का स्वप्न लिए इजरायल शान्त नहीं बैठेगा और फिलिस्तीनी जनता पर कहर ढाने से बाज नहीं आयेगा। अपनी जमीन, अपनी आजादी के लिए लड़ रही फिलिस्तीनी जनता कभी हार नहीं मानेगी।

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