अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

गहराता कश्मीर संकट

एक पुरानी अरबी कहावत है कि बादल वादे की तरह होते हैं और बारिश उनका पूरा होना। कश्मीर की सियासत पर बादल तो बहुत छाये लेकिन बारिश का इन्तजार करती आवाम आसमान को ही ताकती रह गयी। 19 जून को भाजपा–पीडपी का अपवित्र गठबन्धन टूट जाने के बाद जम्हूरियत के बादलों के रहे–सहे टुकड़ों ने भी इस अशान्त राज्य से मुँह फेर लिया। सियासत में पहले आओ पहले पाओ का लाभ उठाते हुए भाजपा ने गठबन्धन से हाथ खींच लिए और महबूबा मुफ्ती के सियासी कोकून को मसल कर रख दिया।

तीन साल पहले जम्मू कश्मीर राज्य में हुए चुनावों ने राज्य की जो भू–राजनीतिक तस्वीर बनायी थी उसके मुताबिक मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी और आसपास के क्षेत्र से भाजपा के राष्ट्रवाद के घोर विरोध पर जनता ने मुफ्ती सईद की पीडीपी को स्पष्ट बहुमत दिया जबकि दूसरी तरफ हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र में राष्ट्रवाद के समर्थन में भाजपा को स्पष्ट बहुमत सौंप दिया। भाजपा इसी कोशिश में लगी थी कि जम्मू–कश्मीर राज्य जम्मू और कश्मीर में बँट जाय और यही हुआ।

गठबन्धन की समाप्ति के बाद फिलहाल राज्य में राष्ट्रपति शासन कायम है और इसे इस तरह समझने में कोई मुश्किल नहीं कि अप्रत्यक्ष रूप से केन्द्र का भाजपा शासन राज्य में स्थापित हो चुका है। कश्मीर के मसले पर भाजपा शुरू से ही सैनिक ताकत के जोर पर अमल करती आयी है। गठबन्धन की समाप्ति के बाद इसे और मजबूती से लागू किया जा रहा है।

गठबन्धन की समाप्ति से 5 दिन पहले यानी 14 जून 2018 को मानवाधिकार के लिए संयुक्त राष्ट्र के हाई कमीश्नर कार्यालय ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की जिसका शीर्षक था ‘‘कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति पर एक रिपोर्ट : भारतीय राज्य के जम्मू और कश्मीर में जून 2016 से अप्रेल 2018 के बीच विकास और आजाद जम्मू और कश्मीर तथा गिलगिट–बाल्टिस्तान में मानवाधिकार की सामान्य स्थिति’’। रिपोर्ट के प्रकाशन के तत्काल बाद ही भारतीय सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकर कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति को स्वतंत्र रूप से मानवाधिकारों के मामलों की जाँच के लिए अनुमति ही नहीं दी। आखिकरार रिपोर्ट को सरकारी बयानों, दस्तावेजों, मीडिया रिपोर्टों और नागरिक संगठनों के दस्तावेजों के आधार पर तैयार किया गया।

रिपोर्ट कहती है कि ‘‘मानवाधिकारों के उल्लंघनों में दंडमुक्ति और न्याय पाने में कमी भारतीय राज्य के जम्मू और कश्मीर में प्रमुख मानवाधिकार चुनौतियाँ हैं। राज्य में आर्म्ड फोर्स (जम्मू और कश्मीर) स्पेशल पावर एक्ट, 1990 (आफ्स्पा) और जम्मू एंड कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट, 1978 (पीएसए) जैसे विशेष कानूनों ने एक ऐसा ढाँचा निर्मित किया है जिसने सामान्य कानून को बाधिक किया है, जवाबदेही को रोका है और मानवाधिकार उल्लंघन के पीड़ितों के लिए सुधार के अधिकार को खतरे में डाला है।’’ (रिपोर्ट पेज नम्बर 4.5) रिपोर्ट बताती है कि मार्च 2016 से अगस्त 2017 के बीच पीएसए के तहत 1000 से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया जा चुका है जिसमें बच्चे भी शामिल हैं। मध्य जुलाई 2016 से मार्च 2018 तक सुरक्षा बलों के हाथों 130 से 145 सामान्य लोगों की मौतें हो चुकी हैं। जम्मू कश्मीर की पूर्व सरकार ने 8 जुलाई 2016 से 27 फरवरी 2017 तक 51 लोगों की मौत और 9042 लोगों के घायल होने की जानकारी दी थी। हालाँकि इससे पहले सरकार ने ही 2016 में 78 लोगों, जिनमें 2 पुलिसकर्मी भी शामिल हैं, की मौत की जानकारी दी थी।

जम्मू कश्मीर में लम्बे समय से आफ्स्पा कानून को हटाये जाने की माँग की जाती रही है। यूनिवर्सल पिरियोडिक रिव्यू 2017 (यूपीआर) के तीसरे चक्र में भारत सरकार ने स्वीकार किया था कि आफ्स्पा के बारे में सरकार की चिन्ता बढ़ती जा रही है और इस विषय में गम्भीर राजनीतिक विचार–विमर्श जारी था कि आफ्स्पा को हटा दिया जाये या इसे जारी रखने के अधिकार को मंजूरी दे दी जाये। लेकिन मार्च 2018 में गृहराज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने कहा कि आफ्स्पा को हटाने के सम्बन्ध में कोई प्रस्ताव नहीं था। हालाँकि आफ्स्पा 1958 को प्रभावकारी रूप से लागू करने और मानवीय बनाने का प्रस्ताव विचाराधीन है।

जबकि रिपोर्ट बताती है कि आफ्स्पा 1990 की धारा 7 सुरक्षा बलों पर तब तक किसी कार्रवाही को निषिद्ध करती है जब तक कि भारत सरकार कोई पूर्वअनुमति या कार्रवाई की मंजूरी न दे। पिछले 28 सालों से जब से आफ्स्पा लगा है, केन्द्र सरकार ने एक भी मामले में कार्यवाही की मंजूरी नहीं दी है। इसके बाद भी भारत सरकार मानवाधिकारों के उल्लंघन के ममालों में जीरो टॉलरेन्स का दावा करती है। 1 जनवरी 2018 को केन्द्रीय रक्षामंत्री ने राज्य सभा में बताया कि आफ्स्पा 1990 में लागू होने के बाद से जम्मू कश्मीर की सरकार से कार्रवाई करने की 50 दरखास्तें प्राप्त हुर्इं जिनमें से 47 को खारिज कर दिया गया और 3 मामलों पर फैसला आना अभी बाकी है।

रिपोर्ट को खारिज करना भारतीय सरकार के कश्मीर के प्रति रवैये को दर्शाता है। मानव के अधिकारों को कुचल कर शान्ति कभी कायम नहीं की जा सकती। कश्मीर की समस्या कानून व्यवस्था की समस्या नहीं बल्कि एक पेचीदा राजनीतिक समस्या है। भारतीय राज्य आज कश्मीर में जो संकीर्ण और दमनात्मक तौर–तरीके अपना रही है, आने वाले समय में देश को उसकी भारी कीमत चुकानी होगी। 

 
 

 

 

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