मई 2024, अंक 45 में प्रकाशित

हसदेव वन क्षेत्र बचाओ आन्दोलन

हसदेव वन क्षेत्र, छत्तीसगढ़ के तीन जिलों सूरजपुर, सरगुजा और कोरबा में 170,000 हेक्टेयर यानी 1700 वर्ग किलोमीटर भूमि में फैला हुआ है। तीन हजार किस्म के दुर्लभ औषधीय पेड़–पौधे से समृद्ध यह वन, महुआ, साल, तेंदूपत्ता जैसे वन सम्पदाओं से भी भरा है। इसके किनारे से कल–कल करती हसदेव नदी बहती है। प्रकृति की यह खूबसूरत गोद अपने पास हजारों तरह के पशु–पक्षियों के साथ ही गोंड, ओरांव और अन्य जनजातियों के 10,000 आदिवासियों का घर है।

कुछ धन्नासेठों के मुनाफे के लिए प्रकृति की यह गोद उजाड़ी जा रही है। इस जंगल में हजारों पेड़ काटे जा चुके हैं और इसे तबाह किया जा रहा है। सरगुजा जिले के उदयपुर तहसील का खूबसूरत गाँव हरिहरपुर, जो एक समय हरियाली और पेड़–पौधों से भरा नजर आता था। वहाँ की हवा में अब गंधक की बदबू समा गयी है।

दरसल, देश के एक ताकतवर पूँजीपति की नजर यहाँ के जंगलों के नीचे दबे हुए लाखों टन कोयले पर पड़ गयी है और एक बार फिर वही सिलसिला दोहराया जा रहा है कि उद्योगपति पहले सरकारों से जंगल तबाह करने की अनुमति माँगता हैं, फिर जंगल को वीरान धूल के गुबार में तब्दील करने लगता है। जब पेड़–पौधों, पशु–पक्षियों की आवाजें नहीं सुनी जातीं, तब आदिवासी अपनी आवाज बुलन्द करते हैं। इसपर उनके घरों को जलाया जाता है, उनपर गोलियाँ चलाई जाती हैं और उन्हे जेलों में बन्द कर उन पर विकास विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है और इस तरह विकास की गंगा बहाई जाती है। यही सिलसिला राज्य में भाजपा सरकार के आने के बाद हसदेव वन क्षेत्र में चल रहा है।

इस जंगल के चारों ओर एक बड़ी कोयला खदान है, जो धीरे–धीरे हरिहरपुर गाँव की तरफ बढ़ रही है। इस गाँव की 65 साल की एक महिला सम्पत्तिया बाई का संघर्ष सोशल मीडिया पर खूब देखा जा रहा है। वह पिछले 2 साल से हर रोज हरिहरपुर में मौजूद धरनास्थल पर आती हैं, दिनभर धरने पर बैठकर फिर वापस चली जाती हैं। उनका कहना है कि यह गाँव उनके और आदिवासियों के इन संघर्षों से ही बचा हुआ है, नहीं तो उनका हरिहरपुर नहीं बच पाता। सिर्फ आन्दोलन से ही अभी हम बचे हुए हैं। खदान से बेरोक–टोक कोयला निकाले जाने से गाँव के लोगों में कम्पनी के प्रति बहुत ज्यादा गुस्सा है। वे भावुक होकर कहती हैं कि वे अपनी जमीन कभी नहीं देगीं।

यहाँ के ढाई लाख से अधिक पेड़ काटने की मंजूरी दी जा चुकी है। यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ के वन विभाग के अधिकारियों ने तो पन्द्रह हजार से अधिक पेड़ कटवा भी दिये हैं। यहाँ साल और महुआ जैसे आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण पेड़ बड़ी संख्या में हैं, जो स्थानीय लोगों की अजीविका का भी साधन हैं। आदिवासी परिवारों को इससे सालाना साठ से सत्तर हजार रुपये तक की आमदनी होती है। आदिवासी इन पेड़ों को अपने देवता के रूप में पूजते हैं और इनकी देखभाल करते हैं।

हसदेव के जंगल में सतह से बहुत कम गहराई पर कोयला मौजूद है। इस जंगल के पेड़, परसा पूर्व और कान्ता बसन (पीईकेबी) कोयला खदान के लिए काटे जा रहे हैं। परसा पूर्व और कान्ता बसन (पीईकेबी) कम्पनी समूह अडानी का है। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के सत्तासीन होते ही अडानी समूह की जैसे मनोकामना पूरी हो गयी और वह अपने पिछले कई सालों की हवस पूरी करने के लिए आतुर है।

भाजपा ने छत्तीसगढ़ में अपने चुनावी घोषणापत्र में हसदेव में कोयला खनन की अनुमति को आदिवासियों के साथ धोखा कहा था। आज उसी भाजपा ने शासन में आते ही अपने घोषणापत्र को कचरे के डब्बे में डाल दिया है। अडानी ने देखते ही देखते खदानों के लिए पेड़ों की कटाई तेज कर दी और उसकी पसन्दीदा पार्टी की सरकार उसकी पूरी मदद कर रही है।

आदिवासियों को यह तबाही हरगिज मंजूर न थी। उन्होंने अडानी समूह के खिलाफ आन्दोलन का रास्ता अख्तियार किया। आदिवासियों ने हमेशा ही शोषक और लुटेरी सत्ताओं को आड़े हाथों लिया है। हाल ही में भाजपा सरकार और अडानी समूह ने पाँच सौ पुलिसबलों की तैनाती की और तीन दिनों तक आस–पास के आदिवासी गाँव के सरपंच और नौजवानों की उठती आवाजों को दबाने के लिए उन्हे बंधक बनाकर हजारों पेड़ काटे।

हसदेव के जंगलों में खनन के मामले में कांग्रेस और भाजपा, दोनों सरकारों का रवैया एक जैसा रहा है। पिछली भूपेश–बघेल की कांग्रेसी सरकार ने जहाँ खनन के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पास किया और केन्द्र की मोदी सरकार ने इसका बाँहे फैलाकर स्वागत किया। हालाँकि पिछली कांग्रेस सरकार आदिवासियों के संघर्ष के दबाव के चलते इस परियोजना को परवान नहीं चढ़ा पायी, लेकिन अब अडानी की चहेती भाजपा सरकार इस परियोजना को किसी भी कीमत पर अपने मुकाम तक पहुँचाने पर उतारू है।

आदिवासियों का जीवन जंगलों पर निर्भर है, उन पर सरकारों ने गीली लकड़ी काटने पर जुर्माना लगाते हुए गोली तक मारने का आदेश दे दिया है। एक तरफ तो पेड़ काटना पूरी तरह से गैर कानूनी है, वहीं दूसरी तरफ मोदी सरकार ने अडानी समूह को पूरे के पूरे जंगल साफ करने की खुली छूट दे दी है। ये मोदी सरकार का अडानी के लिए विशेष प्रेम नहीं तो और क्या है? यह तो वही बात हुई कि “कानून उस व्यक्ति को सजा देता है जो बागीचे से बत्तख चुराता है, लेकिन वही कानून दूसरे व्यक्ति को स्वतंत्र छोड़ देता है जो बत्तखों से पूरा बगीचा ही चुरा लेता है।” यह लोकतंत्र नहीं, अमीरों के लिए अमीरों द्वारा चलाया जा रहा अमीरतंत्र है।

हसदेव के आदिवासी समाज का यह आन्दोलन बीते तेरह सालों से लगातार चल रहा है, वे छत्तीसगढ़ के अपने जंगल अडानी को कभी नहीं देंगे। आन्दोलन के दौरान ही हसदेव क्षेत्र के तीस गाँवों के लोगों ने कुछ सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ का गठन किया और खनन के खिलाफ संघर्ष करना शुरू कर दिया। इस समिति का आरोप है कि साल 2010 तक इस इलाके में खनन की अनुमति नहीं थी, साल 2011 में जब इस इलाके में खनन की अनुमति पहली बार दी गयी थी, तब ही भारत सरकार और पर्यावरण मंत्रालय ने स्पष्ट कहा था कि इन परियोजनाओं के अलावा यहाँ किसी और खनन परियोजना को मंजूरी नहीं दी जायेगी। लेकिन ऐसा हुआ, नहीं।

मई 2022 में जारी दो अध्ययन ये साफ तौर पर बताते हैं कि किस तरह इन परियोजनाओं ने जैव विविधता को नुकसान पहुँचाया है और छत्तीसगढ़ में वन्य जीवों के निवास स्थान को तबाह किया है। इसने जंगल में रहने वाले हाथियों और आदिवासियों के बीच संघर्ष बढ़ा दिया है।

आज भी स्थानीय आदिवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का हसदेव में खनन की परियोजना के खिलाफ संघर्ष जारी है। आदिवासियों का संघर्ष छत्तीसगढ़ के साथ–साथ पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश तक फैल गया है। 7 जनवरी को आदिवासियों की रैली तमाम गिरफ्तारियों और सरकार की तानाशाही के बावजूद जोरदार तरीके से हुई। वे इसलिए आन्दोलन कर रहे हैं और कह रहे हैं कि सरकार के अडानी समूह के हित में लिये गये इन फैसलों से पर्यावरण को बहुत बड़ा नुकसान होगा, लेकिन सरकार है कि उसके कान में जूँ तक नहीं रेंगती। इस कटाई से आदिवासियों में लगातार गुस्सा बढ़ता जा रहा है, उनका कहना है कि वे जंगल नहीं अपनी जिन्दगी बचा रहे हैं।

प्रकृति के खिलाफ यह छेड़–छाड़ केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश और दुनिया में बदस्तूर जारी है। एक तरफ पूँजीवादी शोषण ने दुनिया भर की मेहनतकश आवाम को तबाही के कगार पर पहुँचा दिया है, तो दूसरी तरफ इन पूँजीपतियों ने कच्चे मालों की लूट के लिए पर्यावरण को नष्ट कर पृथ्वी को तबाह कर दिया है। सतत विकास को इन पूँजीपतियों और इनकी सरकारों ने ढकोसला बना दिया है। आज हसदेव मर रहा है और शासक उसकी मौत के तमाशे से मुनाफा कमा रहा है। वो दिन दूर नहीं जब आदिवासियों का यह आन्दोलन देश और दुनिया की मेहनतकश जनता के साथ जुड़ जाएगा और एक नया समाज आकार लेगा, तब तमाशा करने वाला खुद इतिहास के किसी तमाशे का पात्र बन जाएगा।

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