सितम्बर 2024, अंक 46 में प्रकाशित

भाजपा राज में गायब होते जंगल

देहरादून के रायपुर क्षेत्र में सौंग परियोजना का रिजरवॉयर और ट्रीटमेंट प्लांट बनाना प्रस्तावित हुआ है। इसके चलते 2000 पेड़ों को कटान के लिए चिन्हित किया गया है। स्थानीय लोगों में इसको लेकर भारी नाराजगी है। उनका कहना है कि इस तरह से जंगल को काट कर मुनाफे की प्यास बुझाना सही नहीं है। कटान को लेकर स्थानीय लोगों में आक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा है।

एक तरफ जहाँ उत्तराखण्ड के जंगलों में पिछले साल नवम्बर से अब तक आग लगने की 900 से ज्यादा घटनाएँ सामने आयी हैं, वहीं दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की वजह से लू (हीट वेव) लगातार बढ़ती जा रही है। फिर भी वहाँ सौंग परियोजना के लिए 2000 पेड़ कटे जा रहे हैं। खलंगा गाँव के जंगलों हजारों की संख्या में पाये जाने वाले शाल के पेड़ भी काट दिये जायेंगे। ये पेड़ पर्यावरण को नियंत्रित करने, मिट्टी के कटाव को रोकने और पानी के स्रोतों को बचाने के लिए बहुत जरूरी हैं। यहाँ रहने वाले लोग इस परियोजना के खिलाफ हैं। वे पेड़ों पर रक्षा सूत्र बाँधकर अपना विरोध जता रहे हैं और हर हालत में इस परियोजना को रोकना चाहते हैं।

खलंगा गाँव में तापमान पहले देहरादून से 5 डिग्री कम रहता था, अब यह अन्तर घटकर 2 डिग्री रह गया है। अगर इस जंगल को काटा गया तो लोगों का यहाँ रहना बेहद मुश्किल हो जाएगा।

फॉरेस्ट टेंपरेचर डाटा संस्था के अनुसार पिछले 20 सालों में उत्तराखण्ड का 50 हजार हेक्टेयर फॉरेस्ट एरिया खत्म कर दिया गया है। बढ़ती गर्मी, जंगलों की आग और लगातार बढ़ते प्रदूषण ने उत्तराखण्ड को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। कुछ वर्ष पहले देहरादून के सहत्रधारा रोड के चैड़ीकरण में 2000 पेड़ काटे गये थे। इन पेड़ों को काट कर देहरादून–मसूरी के बीच की दूरी कम किया गया था। सिर्फ यही नहीं दिल्ली–देहरादून एक्सप्रेस–वे के 16 किलोमीटर के रास्ते के लिए 7500 पेड़ काटे गये। यही कारण है कि देहरादून का तापमान पहले ही 40 डिग्री के पार जा चुका है। यही हाल अल्मोड़ा जिले में है, जहाँ एक रोड प्रोजेक्ट के लिए 1000 से ज्यादा पेड़ काटे जाने हैं।

आज उत्तराखण्ड का एक बड़ा वन क्षेत्र कंक्रीट के जंगल में बदल गया है, चाहे वह ऑल वेदर रोड का प्रोजेक्ट हो या फिर टनल, होटल, डैम जैसी बड़ी परियोजनाएँ। ये सभी निर्माण पेड़ों और जंगलों को काटकर, वहाँ के लोगों और जंगली जानवरों को दरकिनार कर किये जा रहे हैं।

जंगलों की कटाई का सिलसिला यहीं नहीं रुक रहा है, इस साल जुलाई के महीने में दिल्ली हरिद्वार कावड़ मार्ग के विस्तार के लिए यूपी सरकार ने 33000 पेड़ काटने की मंजूरी दे दी है। गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर के 111 किलोमीटर लम्बे कावड़ मार्ग के लिए पेड़ काटे जाएँगे।

इसी मानसून सत्र में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने संसद में बताया कि हसदेव अरण्य में अब तक 94,460 पेड़ काटे जा चुके हैं और 2–73 लाख पेड़ और काटे जाने हैं। यह सब बेहद डरावना है।

मार्च 2023 में ‘द हिन्दू’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट में ये बताया गया कि भारत में 1990–2000 के बीच 3,84,000 हेक्टेयर जंगलों को काट दिया गया और 2015–2020 के बीच मात्र पाँच सालों में यह आँकड़ा बढ़कर 6,68,400 हेक्टेयर हो गया। दुनिया में ब्राजील के बाद सबसे ज्यादा जंगलों का विनाश भारत में हो रहा है। इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश राज्य के क्षेत्रफल के बराबर वन क्षेत्र आज देश के नक्शे से लापता है। 

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कहा है कि पूँजीपतियों के साथ पहले हुए समझौतों को फिर से देखा जाएगा और आदिवासी इलाके में 28 नये पुलिस कैंप खोले जाएँगे। इसका मतलब साफ है कि पूँजीपतियों के लिए सरकार अब जबरन जमीन पर कब्जा कराएगी, पेड़ कटवाएगी और आदिवासी जब जंगल बचाने के लिए विरोध करेंगे तो पुलिस द्वारा उनका दमन किया जाएगा। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड सहित पूरे देश में पूँजीपतियों की गिद्ध दृष्टि संसाधनों को ज्यादा से ज्यादा लूटने पर टिकी है। इसके लिए नियम–कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। हसदेव, खलंगा सहित इसके खिलाफ सभी राज्यों में जनता के आन्दोलन चल रहे हैं।

पिछले कुछ सालों की पर्यावरण रिपोर्टों पर नजर डालें तो पता चलता है कि वन क्षेत्र लगातार कम हो रहे हैं, जिसकी वजह से बिना मौसम के बारिश, गर्मी और ग्लेशियर पिघलने से बाढ़ जैसे हालात सामने आ रहे हैं। इससे जंगली जानवरों का जीवन खतरे में है।

पेड़ों को खोने की कीमत उत्तराखण्ड अच्छी तरह जानता है। केदारनाथ में आयी आपदा भुलाये नहीं भूलती। सरकारें जितनी शिद्दत से दुष्प्रभावों को नजन्दाज करके इन परियोजनाओं कोे पूरा करने में लगी हुई हंै, इससे साफ जाहिर है कि इनका दीन–ईमान, खुदा और पैगम्बर सब पूँजीपतियों का मुनाफा ही है। ये बात किसी से छुपी नहीं है कि पूरी दुनिया में पेड़ पर्यावरण के सन्तुलन के लिए कितने जरूरी हैं। आज हमारी पृथ्वी इस लूट के चलते आग का गोला बनती जा रही है, जिसका सबसे घातक परिणाम समाज के सबसे निचले हिस्से को झेलना पड़ रहा है। एक ओर कुछ मुट्ठीभर लोगों के लिए पर्यावरण की लूट अपार पूँजी जुटाने का साधन है, वहीं दूसरी ओर मेहनतकश जनता बाढ़, लू, भूस्खलन, बढ़ते तापमान और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में असमय ही काल के गाल में समा रही है। पर्यावरण, माँ की वो गोद है जहाँ मानव सभ्यता विकसित होकर आज आधुनिक पूँजीवादी समाज तक पहुँची है। मुनाफे की हवस और सनक में अन्धे पूँजीपतियों और उनकी सरकारों के चलते आज यह धरती नष्ट होने के कगार पर पहुँचती जा रही है। इस सनक का अन्त करना और सतत विकास मॉडल को लागू करवाना आज सभी प्रकृति–प्रेमी और इनसानियतपसन्द लोगों का कर्तव्य है। अगर यह लड़ाई हमारी पीढ़ी ने नहीं लड़ी, तो आने वाली पीढ़ी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी।

––सूरज गुप्ता

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