भारत पर बढ़ता विदेशी कर्ज
भारत का विदेशी कर्ज 629–1 अरब डॉलर पार कर गया है। भारत को कभी आत्मनिर्भर बनाने की तो कभी विश्वगुरु बनाने की झूठी होड़ के बीच यह कामयाबी हासिल की गयी है। इसका खुलासा भारतीय रिजर्व बैंक ने इसी साल जून के महीने में जारी किया। इसका मतलब हुआ कि भारत सरकार ने देश के हर नागरिक पर करीब 37,211 रुपये का विदेशी कर्ज लाद दिया है।
इस बात को ज्यादा समय नहीं हुआ है जब हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका इस कदर कंगाल हो गया कि अपने लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे अमरीका और यूरोप के सामने हाथ फैलाकर भींख माँगनी पड़ी। यह भीख भी उसे कर्ज के रूप में बड़ी कठिनाइयों के बाद मिली। श्रीलंका का यह हाल उसके शासकों द्वारा अपनायी गयीं उन आर्थिक नीतियों का अवश्यम्भावी परिणाम है जिनकी सच्चाई को उन्होंने देश की जनता से हमेशा छुपाये रखा। भारत के शासक भी श्रीलंका के शासकों की तरह ही आगामी संकट को नजरन्दाज करने और जनता से छुपाने की साजिश रच रहे हैं।
भारत को आत्मनिर्भर बनाने की डींग हाँकनेवाले नकली राष्ट्रवादी यह बताना अक्सर भूल जाते है कि लगातार बढ़ते विदेशी कर्ज को कम क्यों नहीं किया जा रहा है? यह जगजाहिर है कि विदेशी मुद्रा भंडार से ही कोई देश अपने लिए दूसरे देशों से जरूरी वस्तुओं को खरीदता है। फिर आज देश की विदेशी मुद्रा भंडार से अधिक विदेशी कर्जों पर क्यों बात नहीं हो रही है। हर साल अरबों डॉलर का मोटा ब्याज इस विदेशी कर्जे पर चुकाना पड़ रहा है।
सरकार के आर्थिक कार्य अनुभाग के आँकड़ों के अनुसार 1991 में भारत पर विदेशी ऋण 83–8 अरब डॉलर था जो कि तीन दशकों तक लगातार बढ़ता हुआ इस साल लगभग 8 गुना हो गया। यह हाल श्रीलंका की तरह भारत के शासकों द्वारा अपनायी गयी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप हुआ है।
आजादी के बाद हमारे देश के शासकों ने काफी हद तक आत्मनिर्भर भारत के विकास का रास्ता चुना था जिसमें जरूरी चीजों का अपने देश में ही उत्पादन करने का और कम से कम आयात करने का निर्णय लिया गया था, जिससे ज्यादा से ज्यादा विदेशी मुद्रा बचायी जा सके और अन्य देशों के हस्तक्षेप से बचा जा सके।
1990 के बाद भारत के शासकों ने इस रास्ते को पूर्णत: त्याग दिया और अमरीका की चौधराहट वाली विश्व बैंक, अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं का दामन थाम लिया। इन संस्थाओं का मकसद गरीब देशों पर अपनी नवउदारवादी नीतियों का शिकंजा कसकर अमरीका और मुट्ठीभर विकसित यूरोपीय देशों को ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुँचाना था। इसने गरीब देशों की अर्थव्यवस्था को मुट्ठीभर देशों की अर्थव्यवस्था के रहम–ओ–करम पर छोड़ दिया। साथ ही वित्तीय सहायता पहुँचाने के बदले गरीब देशों को जन–विरोधी नीतियाँ लागू करने के लिए विवश किया। भारत में भी शिक्षा और स्वास्थय का बजट घटाने, कृषि उत्पादों पर सब्सिडी काम करने, कॉर्पाेरेट टैक्स घटाने, एमएनसी को भारी छूट देने आदि के लिए बाध्य किया गया। साथ ही सरकार द्वारा उत्पादक गतिविधियों पर निवेश न करके गैर–उत्पादक गतिविधियों में पैसे लगाने को विवश किया गया। इसके चलते समय समय पर भारत को लगातार अपनी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए विदेशी कर्ज लेते रहना पड़ा जो कि कठोर से कठोरतम शर्तों पर दिया जाता रहा। इसी से विदेशी कर्ज बढ़ता गया।
भारत की सभी संसदीय पार्टियों ने इन नवउदारवादी नीतियों का समर्थन ही किया है। उनके पास इसका कोई विकल्प नहीं है। उल्टा स्थिति ये है कि आज सत्तारूढ़ पार्टी के नेता इन सभी सच्चाईयों को झुठला कर, कभी भारत को तीसरी सबसे बड़ी तो कभी पाँचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का ढोल पींटते फिर रहे हैं। आँकडों की हेराफेरी कर नये–नये जुमले उछाल रहे हैं। यह ज्यादा दिन की बात नहीं है जब भारत का हाल श्रीलंका से भी बदतर हो जाएगा। इसलिए समय रहते सम्हल जाना बुद्धिमानी होगी।
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