10 सालों में रोजगार और वेतन में भारी गिरावट
18वें लोकसभा चुनाव शुरू होने से ठीक एक महीने पहले मार्च में तीन ऐसी रिपोर्टें आयी हैं, जो भारत में रोजगार और वेतन में गिरावट की भयावह स्थिति को उजागर करती हैं और 10 सालों से केन्द्र में सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार के दावों की हकीकत को जनता के सामने लाती हैं। ये रिपोर्टें हैं–– अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी) द्वारा जारी की गयी ‘इंडिया एम्पलॉयमेंट रिपोर्ट 2024’य भारत में आर्थिक असमानता पर ‘वर्ल्ड इनइक्वैलिटी डेटाबेस’ का पेपरय और चिन्ताशील नागरिकों और संगठनों के साझा मंच–– बहुत्व कर्नाटक द्वारा जारी ‘रोजगार, वेतन और असमानता रिपोर्ट’।
इन रिपोर्टों में खुलासा किया गया है कि 2011–2012 से लेकर 2022–2023 के बीच के 10 सालों में कुल रोजगार में औपचारिक रोजगार की हिस्सेदारी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। दूसरी ओर स्व–रोजगार करने वाले व्यक्तियों की संख्या में भारी वृद्धि देखने को मिली है। यहाँ औपचारिक रोजगार से मतलब उन नौकरियों से है जिनमें श्रमिकों को पर्याप्त वेतन के साथ–साथ सरकार और कम्पनी द्वारा सामाजिक सुरक्षा के रूप में पेंशन, महँगाई भत्ता, छुट्टियाँ, बीमा आदि भी मिलता है। स्व–रोजगार का काम करने वालों में ठेला–खोमचा लगाने वाले, टेलर, नाई, पिंचर लगाने वाले आदि लोग शामिल हैं। ये सभी प्रकार के काम बिना सामाजिक सुरक्षा वाले, अनियमित और बहुत कम कमाई वाले काम होते हैं जिनको श्रम कानूनों के दायरे से बाहर रखा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा सरकार अपने वादों के विपरीत औपचारिक रोजगार पैदा करने में पूरी तरह विफल रही है और हर साल 2 करोड़ रोजगार और सबका साथ, सबका विकास जैसे दावें जुमला बनकर रह गये हैं।
नियमित तनख्वाह पाने वालों के बारे में लोग सोचते हैं कि वह तो अच्छी कमाई कर लेते होंगें। इसके विपरीत, आँकड़ों के अनुसार 2012 में नियमित कर्मचारियों की महीने की औसत वास्तविक मासिक कमाई 12,100 रुपये थी, जो 2022 में घटकर 10,925 रुपये रह गयी। इसी तरह स्व–रोजगार में लगे व्यक्तियों की वास्तविक कमाई 2019 में 7,017 रुपये प्रतिमाह से घटकर 2022 में करीब 6,843 रुपये प्रतिमाह रह गयी। यहाँ वास्तविक कमाई का आँकलन महँगाई (मुद्रास्फीति) के आधार पर किया गया है। इससे यह नतीजा निकलता है कि भाजपा के 10 साल के शासन काल में हर प्रकार के भारतीय श्रमिकों की आय में गिरावट आयी है और अच्छे दिन आयेंगे की बात धोखा साबित हुई है।
इन तीनों रिपोर्ट को तैयार करने में भारत सरकार द्वारा हाल में जारी किये गये आवधिक श्रम बाल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आँकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। सरकार द्वारा एक दिन की राष्ट्रीय न्यूनतम दिहाड़ी 375 रुपये प्रस्तावित की गयी थी। महीने के हिसाब से यह 12,200 रुपये थी। पिछले 10 सालों में रोजमर्रा की जरूरत की वस्तुओं के दाम बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढ़े हैं। इस महँगाई में एक परिवार का 12,200 रुपये महीने में गुजारा चल ही नहीं सकता, इस पर भी जो सच्चाई सामने आयी है वह चौका देने वाली है। 2022–23 में 19 राज्यों में, 21 प्रतिशत परिवारों को 375 रुपये की भी दिहाड़ी नहीं मिली। छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में तो 100 में 50 से ज्यादा घरों की यह हालत है। इस तरह भारत में हर 2 में से 1 नियमित वेतन पाने वाला श्रमिक, हर 10 में से 9 आकस्मिक श्रमिक और हर 5 में से 3 स्व–रोजगार श्रमिक 375 रुपये से कम दिहाड़ी पाते हैं। मोदी जी जो बड़े ही करुणा भाव के साथ बताते हैं कि एक समय वह खुद चाय बेचते थे और इसलिए गरीबों के दुख–दर्द से वे खास हमदर्दी रखते हैं, उन्होंने और उनकी पार्टी ने इन तथ्यों पर अपना मुँह–सी लिया है।
अपने दूरदराज के गाँव से काम की तलाश में शहर आने वाला युवा या अपने आस–पास के तमाम सामाजिक बंधनों से संघर्ष करते हुए पढ़ने वाली युवती तमाम तरीके के रंग–बिरंगे सपने बुनते और सजोते हैं कि वह जल्द ही अपने पैरों पर खड़े हो जायेंगे और अपने परिवार, गाँव, देश और समाज के लिए कुछ करने में समर्थ बन जायेंगे। लेकिन जैसे ही यह युवा काम की तलाश में दर–दर की ठोकर खाते हैं और बेइज्जत होते हैं तो उनको एहसास होने लगता है कि उनके सपनों का गला घोंटा जा चुका है। फिर भी वह खुद को इस भ्रम में रहकर कि शायद उनमें ही कोई कमी है वे परेशान होते फिरते हैं और आत्महत्या तक के खयालों से जूझते हैं। रिपोर्ट बताती हैं कि भारत में इनकी हालत बेहद खराब है। कुल बेरोजगार लोगों में 83 प्रतिशत युवा हैं।
आमतौर पर अधिक शिक्षा हासिल करने से रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं। लेकिन भारत के अन्दर अमृतकाल में उलटी गंगा बहायी जा रही है। 25 साल से कम उम्र के 42 फीसदी स्नातक बेरोजगार हैं। यहाँ बेरोजगारी दर निरक्षर व्यक्तियों की तुलना में स्नातक पढ़े हुए युवाओं में नौ गुना और माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा पूरी किये हुए युवाओं में 6 गुना ज्यादा है। अगर महिलाओं की बात की जाये तो पुरुषों की तुलना में उनकी स्थिति और भी अधिक भयावह है, खासकर पढ़ी–लिखी महिलाओं की।
कोई भी समस्या तुरन्त ही पैदा नहीं हो जाती, बल्कि कुछ समय के साथ उभर कर सामने आती है। ऊपर दिये इन आँकडों से दिखायी दे रही भारत की मेहनतकश जनता की भयावह तबाही उन नीतियों का परिणाम जिन्हें हमारे देश के शासकों ने बड़ी बेशर्मी के साथ 1990 में डबल्यूटीओ और आईएमएफ जैसी अमरीका परस्त संस्थाओं के आगे समर्पण कर जनता के ऊपर थोपा है और जिन्हें टॉप गीयर मेंं लागू करने के लिए सरमायादारों ने मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बनाया था।
कुछ और आँकड़ों से रिपोर्ट द्वारा पेश की गयी स्थिति और भी पुख्ता हो जाती है। आज देश के सबसे अमीर दस फीसदी लोगों की सम्पत्ति कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 64–5 फीसदी हो गयी है। भारत दुनिया के उन चुनिन्दा देशों में पहुँच गया है, जहाँ टॉप एक फीसदी आबादी की आमदनी का स्तर सबसे ऊँचा है। इसने आर्थिक असमानता में दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और अमरीका जैसे देशों को पीछे छोड़ दिया है।
व्यवस्था के संकट ने सर्वव्यापी रूप धारण कर लिया है। यह हम भारत में विभिन्न तबकों और अर्थव्यवस्थाओं के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले तथ्यों को सरसरी तौर पर देखकर समझ सकते हैं। कृषि क्षेत्र जिसमें अभी आबादी का विशाल हिस्सा लगा हुआ है और जो लम्बे समय से ठहराव का शिकार है, बड़ी संख्या में युवा अन्य काम छोड़ खेतीबाड़ी की ओर वापिस लौट रहे हैं। 2022 में 62 प्रतिशत अकुशल आकस्मिक कृषि श्रमिकों और निर्माण क्षेत्र में 70 प्रतिशत श्रमिकों को निर्धारित दैनिक न्यूनतम मजदूरी तक नहीं मिली थी। इसके अलावा महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न भी बीते वर्षों में बढ़ा है। पिछले 10 सालों में बेहतर रोजगार की कमी के चलते अपने पारिवारिक व्यवसाय या खेती में अवैतनिक श्रम करने वाली महिलाएँ 25 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत हो गयी हैं।
मौजूदा सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार अनन्ता नागेश्वरण ने कह दिया कि सरकार सभी सामाजिक, आर्थिक समस्याओं जैसे बेरोजगारी को हल नहीं कर सकती। प्रधानमंत्री मोदी या उनके किसी मंत्री ने आर्थिक सलाहकार के दावे का विरोध न करके उसकी सच्चाई पर मुहर लगायी है। आज शासकों से कोई उम्मीद रखना बेवकूफी होगी। अब जरूरत है कि चाहे युवा हो, या छात्र हो, या महिला या अन्य कोई भी मानसिक–शारीरिक श्रम करने वाला श्रमिक वे सभी तरह के भ्रम–जालों से छुटकारा पाये और हर हाथ को काम तथा काम का वाजिब देने वाली व्यवस्था के निर्माण के बारे में सोचें क्योंकि शासक अपनी व्यवस्था की सीमाएँ साफ–साफ बता चुके हैं।
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