नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

धड़ल्ले से बढ़ता नकली दवाओं का कारोबार

भारत में नकली दवाओं का कारोबार तेजी से बढ़ता जा रहा है। हाल ही में खबर आयी कि दिल्ली एनसीआर, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित देश भर में सात करोड़ रुपये की नकली दवाएँ मेडिकल स्टोरों को सप्लाई की गयी हैं। यह दवाएँ मुख्यत: बीपी, सुगर, दर्द आदि सामान्य बीमारियों की हैं। इसमें यह भी पता चला कि 2022 में दिल्ली में और उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के भगवानपुर इलाके में नकली दवाएँ बनाने की कम्पनियाँ खोली गयी थीं, जहाँ से दवाओं की सप्लाई उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, लखनऊ, बरेली, सहारनपुर आदि शहरों में तथा उत्तराखंड के देहरादून और हरिद्वार जैसे बड़े जिलों के साथ देश में कई अन्य जगहों पर भी की जाती थी। यह सोचने की बात है कि आज कैसे इतने बड़े पैमाने पर हमारे देश में नकली दवाइयों की धड़ल्ले से सप्लाई हो रही है।

भारत में नकली दवाओं का कारोबार आज से ही नहीं बल्कि लम्बे समय से फल–फूल रहा है। साल 2012 में नकली सिरप की सप्लाई और सितम्बर 2013 में फार्मा कम्पनी रेन वैक्सिंग पर नकली दवाओं के उत्पादन के लिए पाँच सौ मिलियन अमेरिकी डॉलर की पेनल्टी लगायी गयी थी। इसके साथ 2014 में जर्मनी ने अस्सी भारतीय दवाई निर्माता कम्पनियों को निलम्बित किया था। यह सब बातें बताती हैं कि ये नकली दवाओं का कारोबर काफी पुराना और फैला हुआ है।

अगर नकली दवाओं के चलन की बात की जाये तो यह इतना बढ़ गया है, कि जेनेरिक दवा जैसे पेन किलर, एंटीबायोटिक, हृदय की दवा, और कैंसर जैसी गम्भीर बीमारियों की भी नकली दवाएँ आज बाजार में उपलब्ध हैं। डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के बाजारों में उपलब्ध दस प्रतिशत दवाएँ नकली हैं। यानि हर दस में से एक दवा नकली है। वहीं एसोचैम का कहना है कि बाजार में पच्चीस प्रतिशत दवाएँ नकली हैं। इन नकली दवाओं के व्यापक प्रभाव के बारे में हाल ही में आया एक सर्वे बताता है, कि भारत में लाखों–करोड़ों लोग हर रोज ऐसी दवाइयों का सेवन कर रहे हैं, जिनसे या तो उनकी बीमारी जस की तस बनी रहती है या फिर बढ़ जाती है। इनके सेवन से मौत तक हो जाने के कई गम्भीर मामलें भी सामने आते रहे हैं।

आज एक ओर सर्दी–जुकाम, बुखार और दर्द से निजात दिलाने वाली दवाएँ सर्वाधिक खराब और बेअसर साबित हो रही हैं जिसके चलते इलाज लम्बा खिच जा रहा है और छोटी–छोटी बीमारियाँ घातक रूप ले ले रही हैं। वहीं दूसरी ओर इन नकली दवाओं की कम्पनियों का प्रभाव इस कदर बढ़ गया है कि कई लालची डॉक्टर इन्हीं की दवाएँ लिखते हैं जो उन्हें महँगेे उपहार देती हैं। इसमें सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों के डॉक्टर शामिल हैं।

विश्व बैंक के मापदंड के अनुसार, डेढ़ सौ दुकानों तथा पचास दवा निर्माताओं के बीच एक दवा निरीक्षक होना चाहिए। भारत में यह पैमाना दूर–दूर तक लागू नहीं है। दवाइयों की जाँच प्रयोगशालाओं में मौजूद उपकरणों और रसायनों की दयनीयता का तो कहना ही क्या! नकली दवाओं से मरीज को ऐसी बीमारी हो सकती है जिसका इलाज शायद ही हमारे पास हो।

आज भारत में नकली दवाओं की सप्लाई इतनी बढ़ गयी है कि लाखों–करोड़ों लोगों की जान पर बन गयी है। ऐसी घटनाएँ उस घटिया व्यवस्था की ही देन हो सकती है, जहाँ चन्द बड़ी कम्पनियों के मुनाफा के अलावा कुछ नहीं देखा जाता हो।

स्वास्थ्य विज्ञान ने अपनी उपलब्धियों से जिस मानवता को उसके कष्टों, रोगों, दुखों से मुक्त कराने का रास्ता दिखाया था, उसे आज मुनाफे कमाने के लिए माल में बदल दिया गया है। भारत में भी 1990 के बाद से सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र से सरकार ने अपने हाथ पीछें खींचने शुरू कर दिये थे और जनता को अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया। निजी कम्पनियों को दवाई बनाने–बेचने की खुली छूट दे दी गयी, वे जैसे चाहे जिस भी तरीके से दवाई का उत्पादन करें। इन कम्पनियों के मुनाफे के लिए जरूरी मानकों में भी लगातार ढील दी गयी। भ्रष्ट सरकारी अफसरों, मौकापरस्त डॉक्टरों और मुनाफाखोर दवा कम्पनियों के मालिकों की साँठ–गाँठ ने जनता को पीड़ित रखने, लूटने और उसकी जान से खेलने का पूरा खेल खेला जा रहा है।

Leave a Comment