दिल्ली की अनाज मण्डी अग्निकाण्ड से उपजे सवाल
8 दिसम्बर 2019 की सुबह दिल्ली की अनाज मण्डी के पास एक कारखाने में हुए अग्निकाण्ड ने सभी दिल्लीवासियों को स्तब्ध कर दिया। यह हादसा इतना भयावह था कि इसने 43 मजदूरों की जिन्दगी निगल ली और 63 मजदूरों ने जैसे–तैसे यहाँ तक कि छत से कूदकर अपनी जान बचायी। आग पर काबू पाने के लिए आये दमकल कर्मचारियों में से एक नौजवान कर्मचारी की भी मौत हो गयी।
इस हादसे में दो सगे भाइयों को भी जिन्दगी से हाथ धोना पड़ा, जिन पर अपनी चार बहनों की शादी करने की जिम्मेदारी थी। उनके पिता की शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे घर खर्च के लिए काम कर सकें। इसका सहज अन्दाजा लगाया जा सकता कि इस परिवार पर क्या गुजर रही होगी। इसी हादसे में जान गँवाने वाले एक नौजवान मजदूर की कुछ समय पहले ही शादी हुई थी। उसकी पत्नी ने हाल ही में एक बच्चे को जन्म दिया था। वह फैक्ट्री से अपना काम खत्म करके अपने बच्चे से मिलने के लिए जाने वाला था लेकिन किसी को क्या पता कि वहाँ उसकी मौत उसका इन्तजार कर रही था।
इस हादसे के दौरान दो दोस्तों की फोन पर बातचीत की एक बड़ी मार्मिक रिकोर्डिंग सामने आयी है। आग से जल चुके मुशर्रफ अली ने अपने दोस्त मोनू अग्रवाल को फोन किया और कहा कि दोस्त, मैं मरने वाला हूँ, यहाँ आग लग गयी है। मेरे बाल–बच्चों का ध्यान रखना। मोनू ने परेशान आवाज में कहा कि फायर ब्रिगेड वालों को फोन करो। मुशर्रफ ने दम घुटती आवाज में कहा है कि अब कुछ नहीं हो सकता है, भाई, मैं खत्म हो जाऊँगा––– पूरी रिकोर्डिंग में मजदूरों के चीखने–चिल्लाने की आवाजें सुनाई देती हैं। यह रिकोर्डिंग हिन्दू–मुस्लिम भाईचारे को तोड़ने वालों की नजरों को भी शर्मसार कर देती है।
उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने इस हादसे से एक सप्ताह पहले ही इस इलाके का सर्वे करवाया था। उनके सर्वे के अनुसार वहाँ कोई कारखाना ही नहीं था, जबकि यह कारखाना 10 साल से चल रहा है। यह खबर उत्तरी दिल्ली में चल रहे किसी गोरखधन्धे की ओर इशारा करती है। दिल्ली सरकार ने इस हादसे की जाँच कराने के आदेश दे दिये हैं। हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि देश भर में ऐसी घटनाएँ लगातार घट रही हैं और हर बार सरकार जाँच कराने की घोषणा करके अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती है। ज्यादा हुआ तो हादसे में मरनेवालों के परिजनों को कुछ मुआवजा देकर मामले को रफा–दफा कर दिया जाता है। लेकिन फैक्ट्री किन हालात में चलायी जा रही थी? वहाँ सुरक्षा के पूरे उपाय क्यों नहीं किये गये थे? सरकार इन सवालों का जवाब क्यों नहीं देती?
विधि एंव न्याय मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2015 तक, ऐसे मामलों के 3–5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे ऐसे थे, जिन पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है या फैसला नहीं आया है। इसमें ऐसे मुकदमे सबसे ज्यादा स्थानीय न्यायलयों के पास लम्बित हैं। इसमें 55 से 60 प्रतिशत आरोपी बरी हो जाते हैं। मजदूरों की आर्थिक हालत उन्हें कोर्ट–कचहरी का चक्कर लगाने नहीं देती। इसलिए उन्हें मजबूरी में हथियार डाल देना पड़ता है। लोग व्यवस्था पर सवाल उठाने के बजाय मजदूरों को ही जिम्मेदार मान लेते हैं कि उन्होंने न्याय की लड़ाई नहीं लड़ी और मजदूरों को भी ऐसा ही लगता है, उनमें न्याय का भ्रम बना रहता है।
ऐसी कम्पनियों में मजदूरों से मनमाने तरीके से काम लिया जाता है। वहाँ कोई श्रम कानून लागू नहीं होता। पुराने श्रम कानून में 8 घण्टे का कार्य दिवस था, महिला मजदूरों से रात में काम लेने की मनाही थी। समुचित वेतन–भत्ते, दुर्घटना से सुरक्षा और इलाज की सुविधा, अवकाश का अधिकार, एक हद तक रोजगार सुरक्षा, विरोध–प्रदर्शन का अधिकार आदि सुविधाएँ मिली थीं। मजदूरों ने अपने संघर्षों से इन्हें हासिल किया था। लेकिन मुठ्ठी भर पूँजीपतियों के फायदे के लिए और उदारीकरण की नीतियों के चलते ऐसे श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया।
जब हम बाजार से कोई सामान खरीदते हैं, तब हमें यह अहसास नहीं होता कि इन सामानों को बनाने वाले मजदूर किन हालात में रहते हैं। दिल्ली के जिस कारखाने में आग लगी थी, वहाँ के मजदूर जैकेट, स्कूल बैग और प्लास्टिक के खिलौने बनाते थे। मजदूर 10–12 घण्टे जीतोड़ मेहनत करते थे। वे वहीं खाना बनाते, खाते और सो जाते। अगर मजदूर वर्ग एक भी दिन काम बन्द कर दे, तो व्यवस्था का पहिया जाम हो जायेगा। यहाँ कार्यरत ज्यादातर मजदूरों को अपने बीवी–बच्चों से महीनों दूर रहना पड़ता था। उन्हें हर महीने 8 से 14 हजार रुपये तक वेतन मिलता था, इससे मुश्किल से ही उनके परिवार का खर्च चलता था। लेकिन परिवार से अब वह सहारा भी छिन चुका है।
कई बार ऐसे बचकाने सवाल पूछ लिए जाते हैं कि मजदूर इतनी बुरी जगह काम ही क्यों करते हैं? या इन गैर–कानूनी कम्पनियों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती। पहली बात, खुद मजदूर ही नहीं चाहते कि गली–मुहल्लों में चलने वाली इन छोटी कम्पनियों को बन्द किया जाये, क्योंकि बेरोजगारी के इस दौर में उनकी रोजी–रोटी का वही एकमात्र सहारा होती हैं। दुर्घटना के बाद मीडिया ऐसी छोटी कम्पनियों को खलनायक की तरह पेश करता है। लेकिन सच यह है कि बड़ी कम्पनियों के सामने होड़ में ये कम्पनियाँ टिक नहीं सकतीं। उदारीकरण के बाद देशी–विदेशी बड़ी कम्पनियों के आगे इन्हें असहाय छोड़ दिया गया, जबकि ज्यादातर मजदूरों की जीविका इन पर निर्भर होती है। छोटी कम्पनियाँ बाजार में टिकने के लिए सुरक्षा सम्बन्धी उपायों में कटौती करती हैं और मजदूरों का बहुत अधिक शोषण करती हैं। इसी के चलते अपने कम गुणवत्ता वाले माल को कम कीमत पर बाजार में बेच पाती हैं। लेकिन सुरक्षा में कटौती इन्हें बड़ी दुर्घटना की ओर ले जाती है। दिल्ली जैसे अग्निकाण्डों की यही असली वजह है। लुटेरी देशी–विदेशी बड़ी कम्पनियों पर लगाम कसे बिना इस समस्या को जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता है।
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