जुलाई 2019, अंक 32 में प्रकाशित

पर्यावरण का विनाश करने वाली वोक्सवैगन माफी के लायक नहीं

भारत ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के लिए बदनाम वोक्सवैगन कम्पनी पर आर्थिक दण्ड के रूप में कानूनी कार्रवाई की थी और इस पर 500 करोड़ का जुर्माना लगाया था। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का हैरान करने वाला फैसला आया। कोर्ट ने 500 करोड़ रुपये के आर्थिक दण्ड पर रोक लगा दी। क्या यह फैसला पर्यावरण और मानव जाति के भविष्य कोे देखते हुए अनुचित नहीं लगता?

5–6 साल पहले पर्यावरण को प्रदूषित करने के लिए कार निर्माता कम्पनी वोक्सवैगन चर्चा में रही थी। इस कम्पनी ने अपनी डीजल कारों में एक ऐसे उपकरण का इस्तेमाल किया था जो कारों से होने वाले हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को कम करके दिखाता था, जबकि वास्तव में उसकी मात्रा तय सीमा से कई गुना ज्यादा थी। इससे पर्यावरण भयानक रूप से प्रदूषित हुआ था। इसीलिए लगभग सभी देशों ने इस कम्पनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की। इस जालसाजी के चलते कम्पनी के कई आला अधिकारियों को कई देशों के न्यायालयों ने जेल की सजा सुनाई और लगभग 33 अरब डॉलर का आर्थिक दण्ड भी लगाया।

ऑटोमोटिव क्षेत्र का यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। वोक्सवैगन को जनरल मोटर्स के नाम से भी जाना जाता है। यह कम्पनी दुनिया के लगभग सभी देशों में अपनी डीजल कार बेचती है। जब यह कारें चलती हैं तब इनसे पर्यावरण और मानव जगत को नुकसान पहुँचाने वाली हानिकारक गैसें निकलती हैं। खासतौर से नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जिसके कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है और आये दिन तमाम तरह की जानलेवा बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। इसलिए पर्यावरण को सन्तुलित और सुरक्षित रखने के लिए गाड़ियों से निकलने वाले उत्सर्जन की सीमा तय कर दी गयी जिससे ज्यादा उत्सर्जन करने वाली गाड़ियों पर रोक लगा दी जाती है।

वोक्सवैगन के डीजल इंजन वाली कारों से तय सीमा से कई गुना ज्यादा उत्सर्जन हो रहा था। यह बात कम्पनी के सीईओ और बड़े अधिकारियों को पता थी। इस उत्सर्जन को कम करने के लिए कम्पनी को शोध पर रुपया खर्च करना पड़ता। लेकिन कम्पनी ने अपने मुनाफे को बरकरार रखने और उसकी रफ्तार बढ़ाने के लिए इस समस्या की अनदेखी की। दुनिया की नजर से इस बात को छिपाने के लिए ऐसे उपकरण लगाये गये जो उत्सर्जन को कम करके दिखाते थे, जिसके चलते इस कम्पनी को सभी देशों की सरकारों ने अनुमति दे दी। इसका फायदा उठाते हुए इस कम्पनी ने 1 करोड़ 11 लाख कारें दुनिया के तमाम देशों में बेच दी।

2013 में जर्मनी में पर्यावरण सुरक्षा से सम्बन्धित मुद्दों पर काम करनेवाली “इंटरनेशनल काउन्सिल” नामक एक गैर सरकारी संस्था ने जनरल मोटर्स का उत्सर्जन से सम्बधित आँकड़ा जुटाया था। कम्पनी की तरफ से हेमन्त कम्पाना को इस संस्था के साथ मिलकर काम करना था। इसी दौरान हेमंत को अपनी कम्पनी के उत्सर्जन से सम्बन्धित मानक पर सन्देह हुआ। उन्होंने और उनकी टीम ने लैब में परीक्षण किये और पाया कि उत्सर्जन की दर बताने वाले जो उपकरण लगाये गये हैं वे उसे कम करके दिखाते हैं। उनकी टीम ने कम्पनी की इस धोखाधड़ी को दुनिया के सामने लाया। यूरोपीय और अमरीकी मीडिया में यह मुद्दा जोर–शोर से उठाया गया। उसके बाद कम्पनी ने हेमंत कप्पान्ना को नौकरी से निकाल दिया। अगर हेमंत और उनकी टीम इस षड़यंत्र का पर्दाफाश न करती तो पर्यावरण को भारी तबाही होती।

यूरोप, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और अमरीकी नागरिकों तथा मीडिया के भारी दबाव के चलते सरकारों को इस कम्पनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी पड़ी। जर्मनी ने इस कम्पनी पर 8,300 करोड़ डॉलर का आर्थिक दण्ड लगाया और कई बड़े अधिकारियों को जेल की सजा भी सुनायी। अमरीकी सरकार ने भी कम्पनी के दो बड़े अधिकरियों को जेल की सजा सुनायी और 32 अरब डॉलर का आर्थिक दण्ड भी लगाया। इसके अलावा अमरीकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को 2.7 अरब डॉलर का मुआवजा चुकाने का आदेश भी दिया। साथ ही, लगभग 5 लाख कार मालिकों से अपनी हानिकारक कारों को वापस लेने और बदले में दूसरी कार या उनकी रकम वापस करने के आदेश भी दिये।

इस कम्पनी की कारों ने यूरोप में तय सीमा से चार गुना और भारत में लगभग ढाई गुना ज्यादा उत्सर्जन किया। यही कारण है कि इस कम्पनी पर अभी भी अमरीकी न्याय विभाग, संघीय अपराध आयोग और दर्जन भर प्रांतीय जाँच एजेंसी द्वारा अपराधिक जाँच का मामला चल रहा है। कम्पनी के खिलाफ बढ़ते जन आक्रोश को देखते हुए कम्पनी के सीईओ मथायस म्यूलर ने अपनी गलती को स्वीकार किया। उन्होंने माना कि उनकी कम्पनी ने सब कुछ जानते हुए भी ऐसे उपकरण लगाये जो वास्तविक उत्सर्जन को कम करके दिखाते थे।

पर्यावरण और दुनिया की आवाम के लिए नाइट्रोजन ऑक्साइड एक जहरीली और जानलेवा बीमारियाँ पैदा करने वाली गैस है। इस गैस का मुख्य स्रोत डीजल है। जब कार इंजन में डीजल का दहन होता है तब यह गैस धुएँ के रूप में बाहर निकलती है और वातावरण की हवा में मिल जाती है। जब हम साँस लेते हैं तब यह फेफड़ों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाती है जिसके चलते फेफड़ों में सूजन, दमा की बीमारी, फेफड़ों और मूत्राशय में कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है। सबसे ज्यादा खतरा महिलाओं के गर्भ में पल रहे बच्चे पर होता है। इससे लोगों की दिमागी सक्रियता भी कम हो जाती है। पेड़–पोधों और वनस्पति पर भी इस गैस का बुरा प्रभाव पड़ता है।

विकसित देशों के नागरिक जागरूक हैं और उन्हें मीडिया का अकसर सहयोग मिल जाता है जिसके चलते सरकारों पर भारी दबावों के कारण ऐसी पर्यावरण विरोधी कम्पनियों पर कुछ कार्रवाई हो जाती है। लेकिन भारत जैसे कम विकसित देशों में ऐसी कम्पनियाँ बेधड़क अपना व्यापार बढाती हैं। जिन राक्षसी कम्पनियों को यूरोप और अमरीका के नागरिकों द्वारा भगा दिया जाता है, उन कम्पनियों के लिए हमारी सरकारें लाल कालीन बिछाकर स्वागत करती हैं और उन्हें हर तरह की छूट देने की भरसक कोशिश करती हैं। यह केवल अकेली घटना नहीं है, असल में इससे ज्यादा भयानक घटनाएँ देर–सवेर हमारे सामने आती रहती हैं।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब पृथ्वी नष्ट हो जाएगी तब हम रहेंगे कहाँ? आज की पूँजीवादी व्यवस्था जो अपनी सनक के आगे पर्यावरण का विनाश करनेवाले आँख मूँद कर इजाजत दे रही है उससे हमें मिल–जुलकर मुकाबला करना होगा। तभी जाकर पृथ्वी सुरक्षित रह सकती है।

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