सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

लोकतंत्र की हत्या के बीच तानाशाही सत्ता का उल्लास

देश में निर्दोष आन्दोलनकारियों पर सरकारी दमन की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बन गयी हैं। विरोध की उनकी आवाज को खामोश करने के लिए पुलिस उन्हें प्रताड़ित कर रही है और झूठे केस में फँसाकर जेल मे बन्द कर रही है। सदफ जफर ने कोर्ट से गुहार लगायी है कि उनके पूरे परिवार को उत्तर प्रदेश पुलिस से खतरा है। उन्होने बताया कि पुलिस किसी भी समय उनके घर आ जाती है और उनके बच्चों से बोलती है कि “तुम्हारी माँ पत्थरबाज है, कहाँ छिपी है वो? उसे बाहर निकालो”। सदफ जफर एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्हांेने सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध किया था। इसके चलते यूपी सरकार ने उन पर 40 केस और 4 एफआईआर दर्ज की हुई हैं। सदफ जफर अकेली नहीं हैं, यूपी सरकार ने पूर्व आईजी एस आर दारापुरी पर एनआरसी कानून के विरोध में शामिल होने और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने का आरोप लगाकर लगभग 64 लाख का हर्जाना ठोक रखा है। हसनगंज में एक गारमेण्ट और जंक स्टोर को तो सरकार ने जबरन कुर्क भी कर लिया है, इनके मालिकों पर भी एनआरसी विरोधी आन्दोलन में शामिल होने का आरोप था। शरजील इमाम, जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र हैं, उन्हें भी शाहीन बाग आन्दोलन में शामिल होने और भाषण देने के जुर्म में जेल मे बन्द किया गया है। डॉ– कफील को पिछले दो सालों से किसी न किसी मुकदमे में फँसाकर बार–बार जेल में बन्द किया जा रहा है, हालाँकि जनता के जबरदस्त दबाव के चलते और कोर्ट के आदेश के बाद डॉ– कफील को रिहा करना पड़ा। यूपी सरकार के दमन की सूची बहुत लम्बी है। एक तरफ तो यूपी सरकार दावा कर रही है कि उसने अभूतपूर्व तरीके से पूरे प्रदेश को अपराधमुक्त कर दिया है, वहीं दूसरी ओर अनेकों जनपक्षधर और समाजसेवी लोगों पर सरकारी दमन बढ़ता जा रहा है। न केवल यूपी सरकार, बल्कि अन्य प्रदेशों की सरकारें और केन्द्र सरकार भी जनपक्षधर लोगों की आवाज को किसी भी तरह कुचलने पर आमदा है।

अपने बेइन्तहा दमन को जायज ठहराने के लिए यूपी सरकार ने एनआरसी विरोधी आन्दोलन को बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया है। याद रहे कि पिछले साल दिसम्बर में देश भर के लाखों लोग एनआरसी और सीएए कानून के विरोध में सड़कों पर उतर आये थे। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों ने जनता के इस आन्दोलन को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस द्वारा लाठी–गोली चलाई गयी। मुस्लिम घरों में भी जबरन घुसकर तोड़–फोड़ और मारपीट की गयी। मेरठ, मुजफ्फरनगर, कानपुर, आगरा आदि शहरों में पुलिस के उत्पीड़न की अनेकों घटनाएँ अखबारों में दर्ज हैं। इससे भी आगे जाकर सरकार ने सारे कानूनों को ताक पर रखकर 53 सामाजिक कार्यकर्ताओं के पोस्टर नाम और पते के साथ सार्वजनिक कर दिये थे। इन पर सरकारी सम्पत्ति का नुकसान पहुँचाने का आरोप लगाकर जुर्माने के रूप में डेढ़ करोड़ रुपये चुकाने को कहा गया था। ऐसा न करने पर इनकी सम्पत्ति को कुर्क करने की धमकी दी गयी थी। अपनी कार्रवाई को सही साबित करने के लिए सरकार ने जिस एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के आदेश का हवाला दिया था, उस आदेश को भी एस आर दारापुरी ने कोर्ट में चुनौती दी है। सनद रहे कि कोर्ट में निलम्बित किसी भी आदेश को वैध नहीं माना जाता, यानी सरकार की दलील निराधार है। लेकिन इसके बावजूद सरकार ने हर्जाना वसूलने के अपने फैसले को वापस नहीं लिया, बल्कि सात दिन के अन्दर वसूली न होने पर सारी सम्पत्ति कुर्क करने के आदेश दे दिये। कोरोना के कारण जब पूरे देश में लॉकडाउन हुआ तो कोर्ट ने हर्जाना भरने की सीमा बढ़ा दी। उसके बाद भी तहसीलदार और एसडीएम सदर उनके घर पर जा कर उनके परिजनों को गिरफ्तार करने और घर को सील करने की धमकी देते रहे।

यूएपीए और एनएसए जैसे काले कानूनों का आज बड़े पैमाने पर इस्तेमाल प्रगतिशील लोगों, मानवाधिकार कार्यकार्ताओं, आन्दोलनकारी छात्रों, राजनीतिक नेताओं और बेकसूर लोगों की आवाज बन्द करने के लिए किया जा रहा है। क्या कानून राज का मतलब लोगों की आवाज दबाना रह गया है? जज्बात, जमीर और इज्जत बेच चुकी मुख्यधारा की मीडिया ने अन्याय–उत्पीड़न की ऐसी घटनाओं पर चुप्पी साध ली है। कई बार वह खुद इसे बढ़ावा देने में सबसे आगे नजर आती है।

क्या ऐसे हालात को ही लोकतंत्र कहते हैं? या फिर हमारे देश में लोकतंत्र की हत्या कर दी गयी है? लोकतान्त्रिक मूल्य–मान्यताएँ और लोकतान्त्रिक राजनीति किसी पैगम्बर या ईश्वरीय वरदान से नहीं पैदा हुए हैं। लोकतंत्र के लिए मध्यकालीन सामन्ती अत्याचार और निरंकुशता के खिलाफ लम्बा संघर्ष चलाया गया है, जिसमे लाखों लोगों ने कुर्बानियाँ दी हैं।

देश के मौजूदा हालात को लोकतंत्र के स्थापित सिद्धान्तों की रोशनी में देखने पर बहुत निराशाजनक तस्वीर सामने आती है। क्या आज राजनेता जनता से किये गये अपने वादे को निभा रहे है? नहीं। आज क्या हो रहा है? रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सुविधाओं सम्बन्धित चुनावी वादे को कभी पूरा नहीं किया जाता। नतीजा, बहुसंख्यक जनता में साल–दर–साल बदहाली और कंगली बढ़ती जा रही है, शिक्षा और चिकित्सा तो आम मेहनतकश लोगों से कोसों दूर कर दी गयी है। हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी दो जून की रोटी कमाना दुभर हो रहा हैं। किसान और नौजवान नाउम्मीद होकर आत्महत्या करने को विवश हो रहे है। आज राजनेता लोकतंत्र के विचारों को त्याग चुके हैं, उन्हांेने वादा खिलाफी करके सामाजिक अनुबन्ध को सिरे से खारिज कर दिया है। आम जनता के प्रति अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लिया है, ऐसे में आम जनता का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए?

लोकतंत्र में अत्यचारी शासन का जवाब निश्चय ही चुप रहना बिलकुल नहीं है। तो क्या ऐसे समय में छात्रों का काम केवल पढ़ना है? क्या किसानों का काम केवल खेती करना है? क्या मेहनतकश लोगों का काम केवल मेहनत–मजदूरी करना ही है? क्या इनका काम निरंकुश शासन का विरोध करना नहीं है? बल्कि ऐसा करना लोकतंत्र का मूल अधिकार है। आज सरकार के गलत कामों की आलोचना को देशद्रोह कहा जा रहा है। उसके गलत कामों का विरोध करने वालों को देशद्रोही और आँख बन्द करके सरकार की हाँ में हाँ मिलानेवालों को देशभक्त कहना कहाँ तक उचित है।

देश भर में सरकारें बिना कोई मुकदमा चलाये खुद न्यायधीश बनकर लोगों को जेल में बन्द कर रही है या फिर सीधे उनका एनकाउण्टर कर रही हैं। जज सत्ता की चापलूसी कर रहे हैं, सरकार के जनविरोधी फैसले पर मुहर लगा रहे हैं।  

भारत जैसे देश में जहाँ समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में ही लोकतान्त्रिक मूल्य मान्यताओं का अभाव है, क्योंकि परिवार के भीतर न तो जीवन साथी चुनने की आजादी है और न ही अपना पेशा। ऐसे देश में शासक वर्ग के लिए लोकतान्त्रिक शासन की हत्या करना बेहद आसान हो जाता है। दरअसल आजादी के बाद भी परिवार की आन्तरिक निरंकुशता बनी रही और समाज में जातियों का उत्पीड़न बरकरार रहा, जिन्होंने कुल मिलाकर लोकतंत्र के दायरे को बहुत छोटा कर दिया था। राजनीति में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट, आरबीआई और कैग जैसी ऑडिट संस्थाएँ सरकार से स्वतंत्र काम करती थीं, जो सरकार के तानाशाहीपूर्ण रवैये पर एक हद तक अंकुश लगाती थीं। लेकिन भाजपा सरकार ने इनकी स्वायत्तता खत्म करके इन पर सरकार का वर्चस्व स्थापित कर दिया है, इससे लोकतांत्रिक संस्थाएँ भी दम तोड़ रही हैं।

लोकतंत्र ईश्वरकेन्द्रित सत्ता को खत्म करके आया था। आज फिर समय के पहिये को पीछे धकेलने की कोशिश की जा रही है। लोगों को धार्मिक आधार पर बाँटकर लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जगह कट्टरपंथ और हिंसक सोच को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे सरकार अपनी जनविरोधी नीतियों के पक्ष में एक अंधी भीड़ जुटा ले। ऐसे में जब देश आर्थिक संकट से जूझ रहा है तो मुनाफाखोर अपने मुनाफे की हवस को शान्त करने के लिए मेहनतकश वर्ग के खून की अन्तिम बूँद तक निचोड़ने को आतुर है। यह काम लोकतंत्र के लबादे में रहकर किया जा रहा है। आज भी सत्ता पक्ष ने अपने लोकतंत्र के चोले को उतार नहीं फेंका है। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार मेहनतकश जनता के हितों को कुचलकर देशी और विदेशी पूँजीपतियों के पाले में खड़ी हो गयी है। इसका कई उदाहरण कोरोना महामारी के समय देखने को मिल रहे हैं। अचानक और बिना तैयारी के लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव मेहनतकश वर्ग पर पड़ा, काम बन्द होने से मजदूरों का सबसे बड़ा और पीड़ादायक पलायन हुआ। लॉकडाउन में सरकार की बदइन्तजामी ने लाखों मजदूर परिवारों को भुखमरी का शिकार बना दिया। कोरोना का फायदा उठाकर एक तरफ तो सरकार ने सभी जनविरोधी कानूनों को पास किया जिससे मजदूरों के बचे–खुचे लोकतान्त्रिक अधिकार खत्म कर दिये गये और बड़े–बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाया गया। दूसरी तरफ सरकार की इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को पहले से ही दबाने का काम शुरू कर दिया गया। ऐसे हालात को तो लोकतंत्र बिलकुल नहीं कहा जा सकता। एक बात और, ऐसा नहीं है कि सरकार को विरोध का सामना नहीं करना पड़ रहा है और वह अजर–अमर है। पूरे देश में मजदूर से लेकर किसान तक और छात्र से लेकर दुकानदार तक हर कहीं और हर व्यक्ति सरकार विरोधी प्रर्दशन में या तो शामिल है या उससे सहानुभूति रखता है। जनता बड़े–बड़े तानाशाहों को मिट्टी में मिला देती है। हम सभी इतिहास के सबक को जानते हैं–– तानाशाहों का अन्त हिटलर और मुसोलिनी जैसा ही होता है। आज लोकतंत्र की हत्या के बीच तानाशाही सत्ता जो उल्लास मना रही है, कहीं यह उसका आखिरी उल्लास न बन जाये।

 
 

 

 

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