जून 2023, अंक 43 में प्रकाशित

कर्नाटक चुनाव में भाजपा की हार, साम्प्रदायिक राजनीति और विरोधी धारा

मई के महीने में कर्नाटक चुनाव सभी प्रमुख अखबारों और मीडिया संस्थानों की सुर्खियों में बना रहा। अखबारों के कुछ स्थानीय संस्करणों को छोड़ दिया जाये तो बाकी मीडिया मोदी और भाजपा का गुणगान और प्रचार करता नजर आया। कर्नाटक के पूरे चुनाव के दौरान भाजपा ने हिन्दुत्ववादी विचारधारा, साम्प्रदायिक राजनीति और अंधराष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक की भाजपा सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर उसकी घेरेबन्दी की। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार के समय कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो वह बजरंग दल और पीएफआई जैसे आतंकी हिन्दुत्ववादी संगठनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी। कांग्रेस ने भाजपा की राज्य सरकार पर ‘40 प्रतिशत कमीशन वाली सरकार’ का आरोप लगाते हुए, भ्रष्टाचार को भी प्रचार का मुद्दा बनाया। इसके जवाब में भाजपा की ओर से खुद प्रधानमंत्री मैदान में उतरे और बजरंगबली के नाम पर अपना चुनावी भगवा कार्ड खेला। उन्होंने कहा, “पहले कांग्रेस ने भगवान राम को बन्द किया और अब वे ‘जय बजरंग बली’ का नारा लगाने वालों को भी बन्द करना चाहती है।” उन्होंने यह भी कहा, “कांग्रेस पार्टी आतंकवादियों के साथ काम कर रही है।” गृहमंत्री अमित शाह उनसे दो कदम आगे बढ़कर बोले, “कांग्रेस जीती तो दंगे होंगे।” यह भाजपा की घृणित साम्प्रदायिक राजनीति का चरम है कि देश के प्रमुख मंत्रियों ने अपने पद की सारी मर्यादाएँ लाँघ दीं, लेकिन इन सबके बावजूद चुनाव आयोग ने इन गैर संवैधानिक बयानबाजियों पर कोई रोक नहीं लगायी और गूँगा तमाशबीन बना रहा।

कर्नाटक चुनाव में भाजपा की शर्मनाक हार ने उसकी सभी राजनीतिक चालों की हवा निकाल दी। विधानसभा की कुल 224 सीटों पर कांग्रेस ने बहुमत के साथ 135 सीटों पर जीत दर्ज की, भाजपा 66 सीटों पर सिमट गयी, जबकि जनता दल (सेकुलर) को मात्र 19 सीटें मिलीं। बंगाल और हिमाचल के बाद कर्नाटक चुनाव में भाजपा की लगातार इतनी बुरी हार कहीं उसकी साम्प्रदायिक और फूटपरस्त राजनीति की हार तो नहीं है? भाजपा का कांग्रेस और विपक्ष मुक्त भारत का सपना कहीं अधर में तो नहीं लटक रहा है? कर्नाटक चुनाव में राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह धूल चाटते नजर आये। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा की हार के प्रमुख कारण हैं–– जनता की भाजपा सरकार के प्रति नाराजगी, कांग्रेस द्वारा उठगा गया भ्रष्टाचार का मुद्दा और कांग्रेस का लोक–लुभावन आश्वासन। कांग्रेस ने गृह लक्ष्मी स्कीम, युवा निधि, अन्न भाग्य, सखी कार्यक्रम और गृह ज्योति का आश्वासन देकर बहुत बड़ी गरीब जनता को अपने पाले में खड़ा कर लिया।

इस चुनाव में दुखद यह रहा कि मजदूर, किसान, दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला और युवाओं की बढ़ती मुसीबतें, बढ़ती महँगाई, रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी और आर्थिक संकट जैसे जमीनी मुद्दे चुनाव में कहीं नजर नहीं आये। हालाँकि इस चुनाव ने भाजपा की हिन्दुत्ववादी और साम्प्रदायिकता राजनीति पर सावलिया निशान जरूर खड़ा कर दिया है। इतिहास देखें तो पता चलता है कि कर्नाटक में जैसे–जैसे हिन्दुत्ववाद का उभार हुआ, साम्प्रदायिक राजनीति का प्रचार–प्रसार हुआ, वैसे–वैसे उसका मुँहतोड़ जवाब देनेवाला प्रगतिशील आन्दोलन भी जारी रहा। वहाँ भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति की मुखालफत करनेवाली एक ऐसी धारा लगातार मौजूद रही जिसने चुनाव में भाजपा की हार की पटकथा लिखी। आइये, इतिहास को खंगालकर इसे देखते हैं।

कर्नाटक हिन्दुत्ववाद की पहली प्रयोगशाला

कोस्टल कर्नाटक का इलाका पश्चिमी घाट की खूबसूरती से सम्पन्न है। यहाँ से सी–फूड, कॉफी और मसालों का देश में ही नहीं विदेश में भी व्यापार होता है। यह भाजपा और आरएसएस के हिन्दुत्ववाद की सबसे पहली प्रयोगशाला बना। उसके बाद इस राज्य की राजनीतिक और सामाजिक तस्वीर उतनी खूबसूरत नहीं रह गयी, जैसे पहले थी। कोस्टल कर्नाटक में घाट (पोर्ट) का इलाका व्यापारिक महत्व के हिसाब से ऐतिहासिक है। जहाँ एक ओर देश के आन्तरिक व्यापार पर सवर्ण हिन्दुओं का प्रभुत्व रहा है, वहीं दूसरी ओर विदेशी व्यापार में मुस्लिमों का। यही कारण था कि जहाँ सेट्टी, गौड़, ब्राह्मण और सारस्वत जैसे सवर्ण हिन्दू समृद्ध और सशक्त बने रहे हैं, वहीं मुस्लिम भी आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत हैं। यही आर्थिक प्रतिस्पर्धा सामाजिक बँटवारे का मुख्य कारण बनी।

इन्हीं का फायदा आरएसएस, विहिप, बजरंग दल जैसे हिन्दुत्ववादी संगठनों ने उठाया और समाज में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की विष बेल रोप दी। 70 के दशक तक आते–आते इस धु्रवीकरण ने सामज और राजनीति में उथल–पुथल पैदा कर दी। इसके दो प्रमुख कारण थे–– पहला तो खाड़ी देशों में बढ़ता पेट्रो डॉलर, जिसने इलाके के मुस्लिमों को और समृद्ध किया क्योंकि इनका विदेशों में व्यापार था और दूसरा लम्बे संघर्ष के बाद 1974 में बना कर्नाटक लैंड रिफॉर्म एक्ट, इसमें पिछड़ी और दलित जातियों को कुछ जमीनें मिलीं जो उन जमीनों पर बरसों से खेती करते आये थे। इन दोनों घटनाओं ने गौंड, सारस्वत ब्राह्मण जैसे स्वर्ण हिन्दुओं के बीच असुरक्षा की भावनाओं को बढ़ावा दिया और इन्होंने खुलकर इन हिन्दुत्ववादी संगठनों को समर्थन देना शुरू किया। इसी का फायदा उठाकर आरएसएस और विहिप जैसे संगठनों ने हिन्दू मठाधीशों से मिलकर बड़े–बड़े सम्मेलन आयोजित किये, जहाँ गौरक्षा, हिन्दू अस्मिता आदि पर भड़काऊ बयानबाजी शुरू हुई और माहौल में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक जहर घोला जाने लगा। अयोध्या राम मन्दिर और रथयात्रा का फैसला भी इसी इलाके के उडुप्पी (मंगलौर) जिले में आरएसएस की धर्म संसद में सबसे पहले हुआ था।

सामाजिक बँटवारा और साम्प्रदायिक हिंसा

लगातार बढ़ते धार्मिक उन्माद और भड़काऊ भाषणों ने सामाजिक बँटवारे की खाई को और चैड़ा किया। डर, भय, असुरक्षा का माहौल बनाकर और दूसरे धर्मों के खिलाफ आग उगलकर इन्होंने साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा दिया। पहली बड़ी घटना 10 सितम्बर 2009 को मंगलौर जिले में हुई जिसमें दो मुस्लिम युवक मोहम्मद आसिफ और मोहम्मद मुस्तफा जो मवेशी खरीदने–बेचने का काम करते थे उनपर गौ–तस्कर का आरोप लगाकर बजरंग दल के कार्यकर्ताओ ने स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर नेत्रवती नदी के पुल पर जानलेवा हमला किया। अपनी जान बचाने के लिए दोनों नदी में कूद गये और नदी से दोनों युवकों की लाश ही बाहर आयी। इसके बाद लगातार ऐसी घटनाओं का सिलसिला बढ़ता गया। बीते साल ही 28 जुलाई 2022 को फाजिल की हत्या सुरतकल मंगलोर में हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा की गयी। इस हत्या को सिर्फ इसलिए अंजाम दिया गया क्योंकि इसके दो दिन पहले एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या की गयी थी, यह उसका बदला था। पिछले साल 24 दिसम्बर को एक व्यापारी अब्दुल जलील की हत्या भी हिन्दुत्ववादी संघटनों ने कर दी। ये सभी हिंसक घटनाएँ सिर्फ मुस्लिमों तक ही सीमित नहीं रहीं, बल्कि हर वह व्यक्ति जो इन हिन्दुत्ववादी संघटनों की राजनीति और विचारधारा से असहमति रखता था उसके खिलाफ इन्होंने सांगठनिक हमला बोला, यहाँ तक कि कई प्रगतिशील लेखकों और पत्रकारों की हत्या भी की गयी। गौरी लंकेश, एम एम कुलबर्गी और गोविन्द पंसारे की हत्या में हिन्दुत्ववादी संघटन हिन्दू जनजागरण समिति शामिल था।

हिन्दुत्ववादी संगठनों और सत्तासीन भाजपा का गठजोड़

कर्नाटक में दो कुरूप चेहरे के जरिये हिन्दुत्ववादी राजनीति परोसी जाती रही है। पहला बजरंग दल और विहिप जो सीधे आरएसएस और भाजपा से जुड़े हैं, जिन्हें भाजपा शासन में पुलिस और प्रशासन का पूरा समर्थन मिला हुआ था। ये भड़काऊ भाषण देने, लोगों को डराने और धमकाने का काम करते हैं। दूसरे वे संगठन जैसे हिन्दू जनजागरण समिति, श्री राम सेने, हिन्दू जागरण वेदिके आदि हैं जो सभी–सीधे आरएसएस और भाजपा से नहीं जुड़े हैं, लेकिन वे भी वही काम करते हैं। इन पर हत्या करने का आरोप भी लग चुका है। इन सभी का भाजपा के साथ चोली–दामन का रिश्ता है। 2019 से 2023 के बीच सत्तासीन भाजपा ने सात आदेश पारित करवाये जिससे इन संगठनों के लोगों से जुड़े 385 आपराधिक मामलों को वापस ले लिया गया। इनमें 182 मामले हेट स्पीच, हिंसा, मॉरल पुलिसींग, गौरक्षा और साम्प्रदायिकता के थे। इस आदेश के बाद हिन्दू जनजागरण समिति, श्री राम सेने, हिन्दू जागरण वेदिके, बजरंग दल के कई कार्यकर्ता और कई भाजपा विधायक बिना किसी कानूनी कार्रवाई के रिहा हो गये।

कर्नाटक में आन्दोलन और संघर्ष की परम्परा

कर्नाटक में सभी सरकारों की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष और आन्दोलनों का एक लम्बा इतिहास रहा है। चाहे वह किसानों का जुझारू संघर्ष हो जिसके दबाव में आकर सरकार को 1974 में कर्नाटक लैंड रिफॉर्म बिल पास कर उनकी माँगें माननी पड़ी हों या फिर महिला कपड़ा मजदूरों द्वारा की गयी ऐतिहासिक हड़ताल हो जिसके सामने मिल मालिकों और सरकार को झुकना पड़ा हो। इसके साथ ही वहाँ साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ भी विरोध की परम्परा रही है।

1992 में रथ यात्रा और बाबरी मस्जिद तबाह और 1997–98 में दरगाह (बाबा बुदन गिरी) के मामले में दंगा फसाद और साम्प्रदायिकता के खिलाफ बड़े पैमाने पर बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक जनता के साथ आये और संघर्ष किया। 2002 में गोधरा, गुजरात हत्याकाण्ड के बाद भाजपा और हिन्दुत्ववादी संगठनों ने तय किया कि कर्नाटक को साउथ का गुजरात बना देंगे और बाबा बुदन गिरी को गोधरा। इसके खिलाफ बाबा बुदन गिरी को प्रोटेक्ट करने और उन्हें मुँहतोड़ जवाब देने के लिए कई सामाजिक संगठन साथ आये और मिलकर संघर्ष किया।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2023 के पहले ही बड़े पैमाने पर कई सामाजिक संगठन साथ आये। सोशल मीडिया मूवमेण्ट और वेक–अप कर्नाटक के नाम से व्यापक अभियान चला कर साम्प्रदायिक राजनीति को बेनकाब किया गया। इन संगठनों में सभी समुदाय और धर्म के लोग शामिल रहे हैं। बीते 5 मार्च को वेक–अप कर्नाटक के नाम से इस आन्दोलन की शुरुआत हुई, जिसमें लैंड रिफॉर्म से जुड़े कई किसान संगठन, दलित संगठन, महिला संगठन और मजदूर यूनियन साथ आये। इस अभियान में पर्चे, पुस्तिकाओं, किताबों के जरिये घर–घर प्रचार और संवाद कायम किया जा रहा है जिससे भाजपा और आरएसएस की राजनीति के खिलाफ एक जन समर्थन तैयार किया जा सके। ऐसा ही अभियान लम्बे समय से पश्चिम बंगाल और देश के कई राज्य में भी हो रहा है। इस अभियान में ‘नो वोट टू बीजेपी’ मुख्य मुद्दा है। पत्रकारों–लेखकों की हत्या, हलाल, हिजाब आदि मामले में व्यापक प्रचार करके इन संगठनों ने भाजपा और हिन्दुत्ववादी संगठनों की साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ जमकर संघर्ष किया।

मजदूर विरोधी चार श्रम संहिताओं जिसे केन्द्र सरकार ने पारित किया है, उससे पहले ही कर्नाटक की भाजपा सरकार ने श्रम कानूनों पर कई हमले किये थे। उसके खिलाफ संयुक्त मराठा कर्नाटक के परचम तले लम्बा संघर्ष किया गया। मजदूर विरोधी इन चार श्रम संहिताओं, जिसमें 12 घण्टे कार्यदिवस और महिलाओं को रात में भी काम करने को बाध्य किया गया है इसके खिलाफ गारमेण्ट फैक्ट्री और एप्पल फैक्ट्री की महिला मजदूरों ने हल्ला बोल रखा है। मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान ने सयुक्त मोर्चा के बैनर तले श्रम संहिताओं के खिलाफ कर्नाटक के साथ देश भर में कई विरोध–प्रदर्शन किये हैं। बीते साल बैंगलुरू में भी इस मोर्चे ने श्रम संहिताओं के खिलाफ विशाल रैली निकाली थी। श्रम संहिताओं के खिलाफ असंगठित क्षेत्र के मजदूर लगातार संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें सफाई कर्मचारी, आँगनवाड़ी वर्कर्स, कॉफी प्लाण्ट्स के मजदूर, कंस्ट्रक्शन मजदूर आदि शामिल हैं।

ये सभी अभियान, आन्दोलन, हड़ताल और प्रदर्शन एक ऐसी धारा बन रहे हैं जो चुनावी राजनीति से अलग प्रगतिशील राजनीति की एक व्यापक जमीन तैयार कर रहे हैं, जहाँ से सही नेतृत्व और राजनीतिक दिशा से भविष्य में कोई किरण फूट सकती है। भाजपा की हिन्दुत्ववादी और साम्प्रदायिक राजीनीति के खिलाफ यह धारा लगातार सक्रिय है, हालाँकि फौरी तौर पर कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा हुआ है। भाजपा के चुनाव हारने की असली वजह यही है।

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