मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की वापसी के निहितार्थ

हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अफगानिस्तान से सात हजार सैनिकों को वापस बुलाने का फैसला लिया है। सक्रिय सैन्य कार्रवाई में शामिल अमरीकी सेना का यह आधा हिस्सा है। ऐसा लग रहा है कि 18 सालों से जारी अमरीकी इतिहास का सबसे लम्बा युद्ध अब समाप्ति की ओर है। इस युद्ध में एक तरफ दुनिया की महाशक्ति अमरीका है, जिसके पास अत्याधुनिक हथियार और विशाल सैन्य ताकत है, वहीं दूसरी ओर आर्थिक रूप से बेहद कमजोर पश्चिम एशिया का एक ऐसा देश, जो पिछले चार दशक से युद्ध की भूमि बना हुआ है। इतने लम्बे युद्ध के बावजूद अब तक निर्णायक नतीजा नहीं निकल पाया। यह घटना दुनिया की महाशक्ति होने के अमरीकी अहंकार पर सवाल खड़ी करती है। आखिर अमरीका ने इस युद्ध से क्या हासिल किया, जिसके चलते 4 हजार अमरीकी सैनिकों की जान गयी और 20,00,000 करोड़ डॉलर से भी अधिक का खर्चा आया, जिसे अमरीकी जनता पर कर का बोझ लादकर वसूला गया था।

अफगानिस्तान में युद्ध का इतिहास बहुत लम्बा है। 1978 में जब सोवियत समर्थक ‘पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी’ सत्ता में आयी तो उसने व्यवस्था में बदलाव के लिए कई कदम उठाये, जैसे–– सरकार ने लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राथमिकता देते हुए औरतों की पढ़ने की आजादी और रोजमर्रा की जिन्दगी में बराबरी का हक दिलाने के लिए कानून बनाया। लेकिन देश में इस्लामी के कानून के पैरोकार सरकार के खिलाफ हो गये। जमीन के बँटवारे से नाराज बड़े जमींदार भी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाने लगे। अमरीका इस सरकार के रहते अफगानिस्तान में कभी भी अपने साम्राज्यवादी मन्सूबों को पूरा नहीं कर सकता था, इसलिए उसने देश के अन्दरूनी झगड़े का फायदा उठाया। सरकार के खिलाफ लड़ रहे मुजाहिदीन संगठनों को अमरीका ने हथियार मुहैया किया था। उसने अपने मन्सूबों को पूरा करने के लिए अफगानिस्तान कट्टरपंथियों के हवाले कर दिया। सरकार के खिलाफ अनेकों कट्टरपंथी संगठनों ने अमरीका के सहयोग से ताकत हासिल की। आगे चलकर इन्हीं संगठनों में से एक ‘तालिबान’ देश की सत्ता पर काबिज हो गया, लेकिन जल्दी ही यह संगठन अमरीकी मन्सूबों के खिलाफ हो गया और उनकी कठपुतली बनने से इनकार कर दिया।

11 सितम्बर 2001 को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, ट्विन टावर्स और पेंटागन में आतंकी हमला हुआ, जिसमें हजारों बेगुनाह लोग मारे गये। अमरीका की साम्राज्यवादी मीडिया ने इसे लोकतंत्र पर हमला बताया। इस हमले को पूरी दुनिया में आतंकवाद की लहर के रूप में प्रचारित किया गया। तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसका फायदा उठाते हुए अल–कायदा और तालिबान को दोषी करार दिया। अक्टूबर 2001 में अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और सालों चलने वाले युद्ध की शुरुआत कर दी। अमरीका दो महीनों में ही सत्ता से तालिबान को हटाने में तो सफल हो गया, लेकिन अफगानिस्तान पर उसकी पकड़ कम करने में वह आज तक सफल नहीं हो पाया है।

अफगानिस्तान के राष्ट्रपति असरफ घानी के अनुसार, 2015 के बाद से अब तक तालिबानी हमलों में लगभग 28 हजार अफगानी सैनिक मारे जा चुके हैं। यह संख्या पिछले सालों के मुकाबले कई गुना बढ़ी है। उनके अनुसार, अफगानिस्तान के 60 प्रतिशत हिस्से पर तालिबान अपना कब्जा जमा चुका है, जो अमरीकी हमले के समय से भी ज्यादा है। राजधानी के समीप  गजनी शहर पर भी तालिबानियों ने कब्जा कर लिया है। अफगानिस्तान में अफीम की पैदावार आज अपने सबसे उच्चतम स्तर पर है। याद रहे कि तालिबान की आर्थिक जरूरतों का सबसे बड़ा स्रोत अफीम है। तालिबान आज सबसे मजबूत स्थिति में है। अमरीका ने इस युद्ध की शुरुआत के समय दावे किये थे कि वह तालिबान के खात्में के लिए हमला कर रहा है। लेकिन 18 साल लगातार युद्ध के बावजूद अमरीका अपने घोषित उद्देश्य से दूर जा चुका है।

अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ‘अमरीका को दुबारा महान बनाओ’ का नारा दे रहे हैं और युद्ध की समाप्ति को इसी की कड़ी के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन तथ्य इस बात की गवाही देते नजर नहीं आ रहे हैं। ट्रम्प की सरकार ने ही 2017 में यह घोषणा की थी कि वह अफगानिस्तान में 3 हजार अतिरिक्त सैनिक भेजेगी और तालिबान के खिलाफ युद्ध को और तेज करेगी। लेकिन बीेते सालों में तालिबान की स्थिति पहले से कहीं अधिक मजबूत है, जिसके चलते अमरीका तालिबान के साथ युद्ध में किसी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुँच पाया। अफगानिस्तान में मिली लगातार असफलताओं ने अमरीका को तालिबान से बातचीत करके हल निकालने पर मजबूर कर दिया। अमरीकी सैनिकों की वापसी के बारे में ट्रम्प का निर्णय तब आया, जब आबूधाबी में अमरीकी अधिकारी तालिबानी दूतों से बातचीत कर रहे थे। इस मोर्चे पर भी तालिबान झुकता नजर नहीं आया। तालिबान ने अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार को ‘अमरीकी पिट्ठू’ कहकर खारिज कर दिया और किसी भी तरह की बातचीत से साफ मना कर दिया। तालिबान की तरफ से आये प्रतिनिधि ने कहा कि अफगानिस्तान में शान्ति न होने का सबसे बड़ा कारण अमरीकी हस्तक्षेप है। उसने यह भी कहा कि अमरीका अपने विमानों से अफगानिस्तान की धरती पर बम गिराना बन्द करे। अमरीका की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 के शुरुआती 6 महीनों में  अमरीकी विमान बमों से 1,700 निर्दाेष अफगानियों की जान गयी और दोनों तरफ की कार्रवाई में लगभग 4 हजार लोग मारे गये, जिनमें 927 बच्चे भी शामिल थे। अमरीका ने केवल 2018 में ही इतने बम गिराये, जितने पूरे 17 सालों में नहीं गिराये गये। इसके चलते तालिबान का साफ कहना है कि जब तक अफगानिस्तान से एक–एक अमरीकी सैनिक वापस नहीं जाते, वह किसी भी शान्ति समझौते को नहीं मानेगा।

अमरीका ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के चलते दुनियाभर में जितने अत्याचार किये हैं, उसकी सूची बहुत लम्बी और खून से सनी हुई है। ग्वाटेमाला में अमरीका द्वारा स्थापित तानाशाह ने 1954 में हजारों किसानों को मौत के घाट उतार दिया। 1980 में निकारागुआ में 30 हजार नागरिक मारे गये। इराक के 10 लाख लोग, जिनमें 5 लाख बच्चे भी थे, अमरीकी आर्थिक प्रतिबन्ध के चलते भूख और बीमारी से तड़प–तड़प कर मर गये। वियतनाम में उसने जो कहर बरपाया उसे सभी जानते हैं। हालाँकि वहाँ से बुरी तरह हारकर भागा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के पुनर्निमाण के लिए बनी योजना (मार्शल प्लान) में लगे पैसों से भी ज्यादा अमरीका इस युद्ध में झोक चुका है, लेकिन तालिबान को झुकाने में कामयाब नहीं हो सका। दुनिया के सामने अमरीका इस युद्ध की सार्थकता दिखाने के लिए हमेशा झूठ बोलता आया है। 2017 में अमरीकी अधिकारियों ने दावा किया कि उन्होंने अफगानिस्तान सरकार के साथ मिलकर तालिबान के लगभग 13 हजार लडाकों को मार गिराया है या गिरफ्तार कर लिया है। इस झूठ का जल्दी ही पर्दाफाश हो गया। अफगानिस्तान सरकार ने खुद स्वीकार किया कि तालिबानी लड़ाकों की संख्या 77 हजार से भी ज्यादा है। अपने असली मन्सूबों को छुपाकर अमरीका मानवतावादी होने का ढोंग करने से भी नहीं चूकता। अफगानिस्तान युद्ध के विध्वंश को भी वह इसी मानवतावादी लिबास में छुपाना चाहता है। अमरीका दावा करता है कि उसने अफगानिस्तान में जीवन स्तर को बढ़ाया है। इसके लिए उसने अफगानिस्तान में जनता की चेतना ऊपर उठाने और प्रत्यक्षत: कम हुए मातृ मृत्यु दर का हवाला दिया। अमरीकी अधिकारियों के अनुसार, 2002 में प्रति एक लाख माताओं में से 1,600 की मृत्यु हो जाती थी, जो 2010 में मात्र 327 रह गयी। लेकिन यह दावा सच्चाई से कोसांे दूर है। आयरिश और ब्रिटिश संस्थाओं की रिपोर्ट में यह संख्या 1,575 बतायी गयी है। इसी तरह का झूठ अफगानिस्तान में आयु सीमा में हुई बेहिसाब बढ़ोतरी को लेकर बोला गया, जिसकी पोल भी जल्दी ही खुल गयी।

लेकिन अमरीकी हस्तक्षेप की असली वजह एकदम साफ है। पश्चिम एशिया तेल की अकूत सम्पदा से भरा हुआ है, जिस पर अमरीका अपना एकाधिकार कायम करना चाहता है। इसी मकसद से उसने इराक पर हमला किया और यह झूठ फैलाया कि इराक गुपचुप रासायनिक हथियारों का निर्माण कर रहा है, जिससे वह पूरी दुनिया के लिए खतरा बन जायेगा। तालिबानी आतंकवाद और ओसामा बिन लादेन के सफाये के नाम पर अफगानिस्तान में किया गया हमला भी इसी कड़ी का शुरुआती हिस्सा है। उसका मूल उद्देश्य कैस्पियन सागर के द्रोणी क्षेत्र (बेसिन) के विशाल तेल भण्डार तक अपनी पहुँच सुनिश्चित करना है। पश्चिम एशिया के बाद दुनिया का सबसे बड़ा तेल भण्डार कैस्पियन सागर क्षेत्र में ही है, जिसपर अमरीका की गिद्ध–दृष्टि टिकी हुई है। व्यापार करने के लिए उसे अफगानिस्तान की धरती से तेल की पाइप लाइन गुजारनी होगी। इसी कारण अमरीका पिछले 18 सालों से अफगानिस्तान पर अपनी औपनिवेशिक सत्ता थोपने में लगा हुआ है।

लेकिन बार–बार की असफलता के चलते वह हिम्मत हार चुका है। पश्चिम एशिया में उसे जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा है। अब उसकी मन्शा है कि किसी तरह इज्जत बचाकर वहाँ से कैसे भागा जाये।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमरीका के दो लाख से अधिक सैनिक अलग–अलग कारणों से दुनिया के 180 देशों में फैले हुए हैं। लेकिन अत्याधुनिक हथियारों के बावजूद वियतनाम युद्ध से लेकर अफगानिस्तान तक अमरीका को हार का चेहरा ही देखना पड़ा है। आज के दौर की सच्चाई यही है कि किसी एक साम्राज्यवादी देश के द्वारा किसी भी देश को प्रत्यक्ष उपनिवेश बनाकर या कठपुतली शासन कायम करना सम्भव नहीं। देशी–विदेशी पूँजी के गठजोड़ से आर्थिक नवउपनिवेश कायम कर के ही किसी देश की प्राकृतिक सम्पदा और श्रम की लूट सम्भव है। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के इतिहास से सबक लेने के चलते आज किसी भी देश की जनता अपने ऊपर विदेशी शासन को बर्दाश्त नहीं कर सकती।

 
 

 

 

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