जून 2023, अंक 43 में प्रकाशित

जलवायु परिवर्तन और विस्थापन की व्यथा

विस्थापन के सम्बन्ध में वैश्विक स्तर पर काम करने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘आईडीएमसी’ द्वारा हाल ही में ‘आन्तरिक विस्थापन पर वैश्विक रिपोर्ट’ (जीआरआईडी–2023) प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट में बढ़ते जलवायु संकट और उसके दुष्परिणामों से सम्बन्धित चैकाने वाले तथ्य पेश किये गये हैं। इसमें बताया गया है कि पिछले वर्ष 2022 में जलवायु सम्बन्धित आपदाओं के चलते दुनियाभर में 3 करोड़ 26 लाख लोग आन्तरिक रूप से विस्थापित हुए। आन्तरिक रूप से विस्थापन से मतलब उस संख्या से है जो हमें यह बताये कि साल भर में कुल कितनी बार लोगों को अपना मूल निवास छोड़ देश के अन्दर ही विस्थापित होना पड़ा। बीते पूरे दशक में, 2022 में सबसे अधिक लोग विस्थापित हुए और साथ ही इन दस सालों के औसत विस्थापन से इस साल इकतालीस प्रतिशत अधिक विस्थापन हुआ। इन आँकड़ों से हम स्थिति की गम्भीरता का अन्दाजा लगा सकते हैं। 3 करोड़ 26 लाख में से लगभग सारा विस्थापन तीसरी दुनिया के देशों, जिसमें एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के देश आते हैं वहीं हुआ है।

आईडीएमसी की इसी रिपोर्ट में आगे यह भी बताया गया है कि दक्षिण एशिया सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र रहा, जहाँ कुल 1 करोड़ 25 लाख लोग विस्थापित हुए जो कि कुल विस्थापन का 38 प्रतिशत से ज्यादा है। दक्षिण एशिया के लिए यह आँकड़ा पिछले दस सालों के औसत का दोगुना है। पिछले वर्ष बाढ़ के कारण विस्थापनों में इस क्षेत्र में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सबसे अधिक प्रभावित रहे।

पाकिस्तान में रिकॉर्ड तोड़ बारिश और बाढ़ आयी, जिसने बढ़े पैमाने पर घर और खेती को नुकसान पहँुचाया, जिसने भुखमरी, गरीबी और बीमारी को जन्म दिया। उस दौरान एक तिहाई देश पानी में डूब गया और 82 लाख लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। मलेरीया, डाइरीया जैसी जल–जनित बीमारी तेजी से फैल गयी जिसके कारण हजारों लोग असमय काल के गाल में समा गये।

भारत और बांग्लादेश में मानसून के आने से पहले ही बाढ़ जैसी सम्भावनाएँ पैदा हो गयीं। असम में मई और फिर जून के महीने में दुबारा बाढ़ आयी। सतरंग चक्रवात ने भी भारत के ओडीसा और पश्चिम बंगाल राज्यों और बांगलादेश के कई जिलों में हजारों की संख्या में लोगों को बेघर किया। इसके साथ भारत के कुछ हिस्सों में जुलाई महीने में होने वाली वर्षा 122 सालों में सबसे कम रही।

जलवायु सम्बन्धित इन आपदाओं ने जहाँ एक तरफ जान–माल को सीधे तौर पर भारी नुकसान पहुँचाया, वहीं दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र और पशुपालन को भी गहरा धक्का लगा। ज्यादातर लोगों के रोजी–रोटी के साधन पूरी तरह तबाह हो गये। मजबूरन लोगों को अपनी पैतृक सम्पत्ति छोड़ रोजी के नये साधनों की तलाश में जगह–जगह भटकने को मजबूर होना पड़ा। आपदा के बाद विस्थापन के चलते इन लोगों की आर्थिक स्थिति में भारी गिरावट आयी।

आपदा से आनेवाली तबाही में घर–जमीन सम्बन्धी जरूरी कागजात भी तबाह हो जाते हैं जिससे उनके लिए यह साबित करना मुश्किल हो जाता है कि वे देश के नागरिक हैं भी या नहीं। कोई मदद न मिलने पर ये लोग राहत शिविरों में सालों साल जिन्दगी गुजारने को अभिशप्त हुए, जहाँ वे लकड़ी की बनी झुग्गी–झोंपड़ी में सिर छुपाने और शौचालय, बिजली, पीने के पानी की बेहद खराब व्यवस्था का सामना करते हुए जीवन यापन करने को विवश हुए। कई देशों में लोगों को दो या तीन या उससे भी ज्यादा बार लगातार विस्थापन झेलना पड़ा, जिनसे उनकी स्थिति में सुधार की बची–खुची सम्भावनाएँ भी खत्म हो गयीं। कई बार तो सालों–साल सूखा पड़ने, तापमान बहुत अधिक बढ़ जाने के चलते वह स्थान जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानीय समुदायों के लोग निवास करते आ रहे थे, अब आगे किसी के लिए भी रहने योग्य नहीं रह गया।

लगातार बाढ़ या सूखा पड़ने से इन देशों मे खाद्य सामग्री का संकट बढ़ता गया है जिसके चलते व्यापक स्तर पर कुपोषण की भयानक स्थिति पैदा हो रही हैं। इसका प्रभाव सबसे ज्यादा इन विस्थापित लोगों पर पड़ता है जो अधिकतर भुखमरी और बीमारियों से पीड़ित रहते हैं।

 जलवायु परिवर्तन का दंश सभी देशों और लोगों को एक समान नहीं झेलना पड़ता। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु सम्बन्धित आपदाओं के चलते होने वाली 90 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं। इसी के साथ इन देशों के वंचित–शोषित समुदाय और आम जनता आपदा से सबसे अधिक प्रभावित होती है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार इस संकट से निपटने के लिए अगर कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये तो वर्ष 2050 के आते–आते 21 करोड़ 60 लाख लोग विस्थापन के शिकार बन सकते हैं।

जलवायु परिवर्तन के चलते दुनियाभर में बाढ़, तूफान, भूकम्प, भीषण गर्मी और सूखा पड़ने जैसी घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि देखी जा रही है। एक तरफ जहाँ जलवायु परिवर्तन के असल दोषी साम्राज्यवादी देश इन आपदाओं से होने वाली तबाही से अपने को कुछ हद तक उबार लेते हैं वहीं दूसरी तरफ गरीब देशों की जनता इसकी असहनीय मार को बीमारी और मौत के रूप में झेल रही है। ऐसे–ऐसे मंजर सामने आने लगे हैं जो किसी भी संवेदनशील इनसान की रूह कँपा दें। ऐसी एक घटना पिछले साल पाकिस्तान में बाढ़ के दौरान सामने आयी। एक गाँव में लोगों को अपने मृत बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों को दफनाने के लिए जमीन तक नसीब नहीं हुर्इं क्योंकि पूरा का पूरा गाँव ही बाढ़ के पानी में समा गया। स्थिति ऐसी थी कि जिस पानी में मवेशियों की लाश सड़ रही थीं, उसी को लोग पीने को मजबूर थे। जलवायु सम्बन्धित आपदाओं ने पिछले साल भारत के असम, नेपाल, बांग्लादेश समेत अफ्रीका, लातिन अमरीका के कई देशों में अपना कहर ढाया, जिसने लाखों की संख्या में लोगों को अपने देश के अन्दर ही विस्थापित होने को मजबूर किया।

क्या पूँजीपरस्त शासक और साम्राज्यवादी वैश्विक संस्थाएँ मुनाफे पर टिके अपने आर्थिक मॉडल के सामने आ रहे इन नतीजों की जिम्मेदारी भूलकर भी उठायेंगी? ये सभी तथ्य चीख–चीख कर वास्तविकता का बयान कर रहे हैं। शासक वर्ग दशकों से इस पर पर्दा डालता आया है। सच्चाई से मुँह छुपाना या उस पर पर्दा डालना अब अधिक दिनों तक सम्भव नहीं है। ऐसे भयानक हालात मे जवाबदेही तय करना और शासकों से सवाल करना सभी अमनपसन्द और प्रकृति प्रेमियों का कर्तव्य ही नहीं अधिकार भी है। हमें मिलकर तय करना है कि पर्यावरण को तबाह करनेवाले मुनाफे के मद मे चूर लुटेरे शासकों से इनसानियत और पूरी पृथ्वी को कैसे बचायें। 

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