फरवरी 2020, अंक 34 में प्रकाशित

क्या यौन हिंसा को पुलिस हिंसा से खत्म किया जा सकता है?

हैदराबाद में एक पशुचिकित्सक महिला डॉक्टर के साथ सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसको जला दिया गया। इस घटना को लेकर पूरे देश के लोगों में एक आक्रोश व्याप्त था और बलात्कारियों के लिए फाँसी की माँग को लेकर लोग सड़कों पर आ गये। पुलिस ने आनन–फानन में चारों आरोपियों को गिरफ्तार किया और उन्हें गोली मारकर बताया कि वे मुठभेड़ में मारे गये। टीवी चैनलों, अखबारों, सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया कि पीड़िता को सही इनसाफ मिला और पुलिस इंस्पेक्टर की खूब वाह–वाही हुई। क्या हत्या के बदले हत्या वाली इस प्रक्रिया को ठीक कहा जा सकता है? ये तो कबीलाई व्यवस्था–– खून के बदले खून की कार्रवाई है। भारतीय संविधान के अनुसार सजा देने का काम न्यायालय का है। पुलिस का काम उस न्यायालय की प्रक्रिया में सहयोग करना है। यदि पुलिस सजा देने लगेगी तो बिना आरोप सिद्ध हुए भी सजा देगी। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि आरोप गलत होता है, जिसमें सही जाँच के बाद आरोपी को छोड़़ दिया जाता है। कई बार गलत व्यक्ति को फँसा दिया जाता है तो कई बार ऊँचे पद और पुरस्कार के लालच में पुलिसवाले निर्दोष लोगों को फर्जी एनकाउण्टर में मार देते हैं।
हालाँकि हमारे देश में अदालती कार्रवाई की बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है। फैसला आने और आरोपी को सजा मिलने में कई वर्ष लग जाते हैं। लेकिन इसका विकल्प पुलिस एनकाउण्टर नहीं हो सकता।
हमारे देश में बलात्कार की पीड़िता को न्याय मिल पायेगा या नहीं ये इस बात पर निर्भर करता है कि बलात्कार पीड़िता किस सामाजिक आर्थिक हैसियत की है और बलात्कारी किस सामाजिक आर्थिक हैसियत का है। अगर बलात्कारी ऊँची हैसियत का है और पीड़िता निम्न तबके की है तो ऐसे मामलों में पीड़िता को इनसाफ नहीं मिल पाता और बलात्कारी बरी हो जाता है, जैसा कि चिन्मयानन्द के मामले में हुआ। इसमें तो उलटे पीड़िता को ही फँसाया गया और सेंगर ने तो पीड़िता के परिवार को ही खत्म करवा दिया। यानी बलात्कारी दबंग हो, उसकी राजनीति में दखल हो तो पीड़िता को न्याय मिलने की उम्मीद न के बराबर है। अगर पीड़िता ऊँची हैसियत की है और बलात्कारी निम्न तबके का है तो ऐसे में पीड़िता को न्याय मिल जाता है, बलात्कारी को कानून के जरिये सजा मिल जाती है। जैसा निर्भया के मामले में हुआ। 
साम्प्रदायिक राजनीति के पैरोकार बलात्कार की घटना को हिन्दू–मुस्लिम में बाँटने की कोशिश करते हैं। अगर बलात्कारी हिन्दू है या बीजेपी से ताल्लुक रखता है और पीड़िता मुस्लिम या दलित है तो बलात्कारी के समर्थन में बीजेपी समर्थक रैलियाँ तक निकालते हैं, जैसा कठुआ में आसिफा के मामले में किया गया। उन्नाव मामले में कुलदीप सिंह सेंगर के समर्थन में भी बीजेपी के लोगों ने रैलियाँ निकालीं। यदि बलात्कारी मुस्लिम और पीड़िता हिन्दू है तो बीजेपी और आरएसएस के लोग हिन्दू–मुस्लिम दंगे की फिजा बना देते हैं। जैसा कि अलीगढ़ की बच्ची ट्विंकल के मामले में किया गया, जबकि बलात्कारी किसी भी जाति, धर्म, आर्थिक हैसियत या राजनीतिक पहुँच का हो वो सिर्फ एक अपराधी है, उसे भारतीय दण्ड सहिंता के अनुसार सजा मिलनी चाहिए। लेकिन इस देश में ऐसा नहीं होता। भँवरी देवी के मामले में जज ने यह कहकर बलात्कारी को बरी कर दिया कि उच्च जाति का आदमी निम्न जाति की महिला को छू भी नहीं सकता तो बलात्कार कैसे करेगा। जब जातिवादी और पितृसत्तात्मक सोच के लोग पुलिस प्रशासन से लेकर न्यायालयों तक में बैठे हांे तो ऐसे में क्या निम्न सामाजिक आर्थिक हैसियत की पीड़ित महिलाओं को इनसाफ मिल पायेगा?
महिलाओं पर बढ़ती यौन हिंसा के चलते हमारा देश महिलाओं के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित देश की श्रेणी में आ गया है। यूरोप के देश अपने यहाँ की महिलाओं को भारत न जाने की नसीहत देते हैं। भारत छोटी बच्चियों के मामले में एक हत्यारा देश बनता जा रहा है। छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार के बाद उसका अंग–भंग कर देना, गला दबाकर मार देना, जला देना जैसे अमानवीय अत्याचार हो रहें हैं। इस देश में सिर्फ महिलाओं के साथ ही नहीं बल्कि पुरुष, बकरी और कुतिया तक से बलात्कार हो रहा है। समाज मानसिक रूप से कितना विकृत हो गया है! पिछले दो दशकों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार में बढ़ोतरी हुई है। इससे पहले भी बलात्कार की घटनाएँ होती थीं, लेकिन पिछले दो दशकों में हमारे देश में जघन्यतम अपराध को अंजाम देने वाले वहशी लोगों की जमात बढ़ी है। राष्ट्रीय अपराधों रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नवीनतम आँकड़ों के मुताबिक 2018 में हर चैथी दुष्कर्म पीड़िता नाबालिग थी, जबकि 50 प्रतिशत से ज्यादा पीड़िताओं की उम्र 18 से 30 साल के बीच थी। आँकड़ों के मुताबिक 94 प्रतिशत मामलों में आरोपी पीड़िता के परिचित–परिवार के सदस्य, दोस्त, सहजीवन साथी, कर्मचारी या अन्य लोग थे। सवाल यह है कि इस समाजिक विकृति और अमानवीयकरण की जटिल समस्या का हल पुलिस द्वारा हत्या या कठोर कानून से सम्भव है?
पिछले दशकों में महिलाएँ शिक्षा और रोजगार के लिए घरों से बाहर निकली हैं। उनके लिए आगे बढ़ने के कुछ अवसर मिले थे। लेकिन यौंन हिंसा की बढ़ती घटनाओं के कारण, बाहर निकलने में उनके मन में एक खौफ है। मेरी एक दोस्त कह रही थी कि पहले मैं कहीं भी बड़े आराम से चली जाती थी, लेकिन अब भाई और पति के साथ भी जाने में डर लगता है। कहीं उनको भी हमारी वजह से कुछ हो न जाये। आखिर हम किस तरीके की समाज व्यवस्था में जी रहे हैं, जहाँ आधी आबादी अपने घर पर और घर से बाहर निकलने पर खौफ में ही रहती है। 
बलात्कार की जड़ें इस पितृसत्तात्मक और जातिवादी व्यवस्था में है, जो महिलाओं को सिर्फ एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखने का नजरिया देती है और पूँजीवादी व्यवस्था भी उनको एक माल के रूप में स्थापित करती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था पुरुषों में औरतों के प्रति मानवीय संवेदना पैदा करने में असफल है। सामाजिक बंदिश और लैंगिक असमानता, लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण सेक्स जैसी सहज प्रवृत्ति एक सामाजिक मनोरोग में बदल गयी है। ऐसा अपने से विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण और उसको न पाने की कुण्ठा से होता है, जो अपने जैसे मनोरोगियों का साथ पाकर सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्यतम अपराध को अंजाम देता है। सामाजिक परिवर्तन के जरिये ही इस सामाजिक बीमारी का इलाज सम्भव है। इस बलात्कारी मानसिकता, मनोरोग और बलात्कार जैसे अपराध को लैंगिक समानता वाले समाज में ही खत्म किया जा सकता है।
 

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