खेल और खिलाड़ियों का इस्तेमाल ‘फेस पॉउडर’ की तरह भी हो सकता है!
8 अगस्त को सम्पन्न टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों ने कुल 7 पदक जीते हैं। भारत के पास इस खेल आयोजन में हिस्सेदारी का 121 साल का अनुभव है। इसके बावजूद बेहद लचर प्रदर्शन भारत में खेलों की दुर्दशा की तस्वीर दिखा देता है। भारत की जनसंख्या लगभग 136 करोड़ है। यह दुनिया की सबसे अधिक युवा अबादी वाला देश है। अगर आबादी और इस साल ओलम्पिक में हासिल पदक का अनुपात निकालें तो लगभग 20 करोड़ लोगों पर एक पदक का औसत आता है। आस्ट्रेलिया में यह औसत 5434 लोगों पर एक पदक का है। इस हिसाब से आस्ट्रेलिया ने भारत से 36,000 गुणा बेहतर प्रर्दशन किया है।
पिछले सात सालों में नरेन्द्र मोदी और भाजपा की छवि चमकाने के एक से एक नायाब तरीके खोजे गये हैं। यहाँ तक कि जिन चीजों पर शर्मिन्दा होना चाहिए उनका इस्तेमाल भी छवि चमकाने में हुआ है। ओलम्पिक में भारत का प्रर्दशन भी इसी का एक उदाहरण है। मोदी सरकार ने ओलम्पिक और उसमें हिस्सा लेने वाले भारतीय खिलाड़ियों का इस्तेमाल ठीक उसी तरह किया है जैसे मलिन चेहरे को चमकाने के लिए ‘फेस पॉउडर’ का होता है। ओलम्पिक की तैयारी के दौरान ही ऐसा धुआँधार प्रचार अभियान शुरू हो गया था मानो खिलाड़ी नहीं बल्कि मोदी और भाजपा ओलम्पिक की तैयारी कर रहे हों। बाद में ऐसा लगा मानो वही खेले हों और जो पदक आये हैं उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा ही जीतकर लायी हो।
भारतीय खिलाड़ियों के टोक्यो पहँुचने से पहले ही, 24 जून को “चीयर फॉर इण्डिया” कार्यक्रम शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य भारतीय खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाना बताया गया था, लेकिन इस पोर्टल की बेवसाइट का नाम ‘चीयर फॉर इण्डिया डॉट नरेन्द्र मोदी’ रखा गया। पोर्टल खुलते ही मोदी की तस्वीर सामने आती थी। खिलाड़ियों की तस्वीर के साथ भी मोदी ही खड़े मिलते थे। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री के कथनों के बगैर किसी खिलाड़ी को शुभकामनाएँ नहीं भेजी जा सकती थी। जब मोदी का चेहरा चमकाने का यह कार्यक्रम कुछ खास नहीं कर पाया तो इसे ‘बूस्ट’ करने के लिए 22 जुलाई को ‘वी लाइक एन ओलम्पियन’ कार्यक्रम की शुरुआत की गयी। इस पर भी भाजपा और प्रधानमंत्री के पोस्टर वायरल किये गये। इसके बावजूद चेहरे की मलिनता कम होती नहीं दिखी तो खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने ‘हमारा विक्टरी पंच’ नाम से एक और ‘कैम्पेन’ की शुरुआत की, ठीक उसी अन्दाज में जैसे उन्होंने ‘गोली मारो सालों को’ का नारा दिया था। इस कैम्पेन का नाम ही ओलम्पिक की भावना के विरुद्ध और भड़काऊ था। इसमें लोगों को अपने घरों से ही वीडियो बनाकर वायरल करने को कहा गया।
9 अगस्त को दिल्ली के अशोका होटल में ओलम्पिक पदक जीतकर लाने वाले खिलाड़ियों का सम्मान समारोह किया गया। वहाँ प्रधानमंत्री तो मौजूद नहीं थे लेकिन मंच के होर्डिंग बोर्ड पर लगी उनकी आदमकद तस्वीर ने उनकी कमी नहीं खलने दी। इस होर्डिंग पर खिलाड़ियों की तस्वीरें बहुत छोटी और मामूली थी और मोदी जी को एक सुपर प्लेयर की तरह दिखाया गया था। खिलाड़ियों का इस्तेमाल फिर से मलिन चेहरे को उजला करने के लिए हो रहा था।
16 अगस्त को प्रधानमंत्री ने खिलाड़ियों के साथ एक दावत रखी, जिसमें अधिकांश समय मोदी जी ने अपनी और अपनी पार्टी के लोगों की तारिफों के पूल बाँधे और खिलाड़ियों ने मद्धिम मुस्कान के साथ उन्हें सुना। दावत में चूरमा और आइस्क्रीम चर्चा का मुख्य विषय रहे। वहाँ भारत में खेल की नीति, खिलाड़ियों की समस्याओं जैसे असुविधाजनक विषयों को चर्चा से दूर ही रखा गया। वजह साफ थी, खिलाड़ी ‘फेस पॉउडर’ के तौर पर आमंत्रित थे, खिलाड़ी के तौर पर नहीं।
ओलम्पिक के पहले से ही चल रहे इस तरह के कार्यक्रमों में कहीं भी भारत में खेल की स्थिति, खेल की चुनौतियाँ, खेल भावना, खेलों का उद्देश्य, खेल नीति जैसे विषयों पर कोई बात नहीं की गयी। इनका एक मात्र उद्देश्य था प्रधानमंत्री और भाजपा का प्रचार करना और पिछले डेढ़ साल में प्रधानमंत्री की छवि में आयी गिरावट की भरपाई करना।
गली मोहल्ले में रोज पिटने वाले किसी अहमक को बार–बार पहलवान जी कहें तो उसे गौरव की अनुभूति होती है। इसी तर्ज पर मोदी सरकार में कार्यकर्ता से लेकर प्रधानमंत्री तक भारत को हर क्षेत्र में महाशक्ति बनाने से कम कोई बात नहीं करते। ओलम्पिक के उद्घाटन समारोह में अनुराग ठाकुर ने कहा–– “पिछले सात वर्षों में हमने प्रधानमंत्री मोदी जी के नेतृत्व में भारत को खेल महाशक्ति बनाने के लिए जमीनी स्तर पर काम किया है।” जो उन्होंने किया था वह ओलम्पिक में सामने आ गया।
दिन रात महाशक्ति का राग अलापने वालों का खेल बजट और उसका आवण्टन यह साफ कर देता है कि देश को खेल महाशिक्त बनाने काम चल रहा है या मोदी जी और बीजेपी की छवि चमकाने का। वर्ष 2020–21 में भारत का कुल खेल बजट 2826 करोड़ रुपये था। इस मामूली बजट को भी बाद में घटाकर 1800 करोड़ कर दिया गया। यानी सरकार ने देश के हर व्यक्ति की खेल जरूरत को पूरा करने के लिए मात्र 15 रुपये का बजट दिया। इस पैसे से बच्चे की एक गेंद भी नहीं आएगी। कमाल यह है कि इस बजट का एक मामूली हिस्सा ही वास्तव में खेल पर खर्च हुआ। भारत के पडोसी देश चीन का खेल बजट 36.6 अरब रुपये है जो भारत के खेल बजट से 17.5 गुणा अधिक है। बिटेन की जनसंख्या भारत से 18.5 गुणा कम है जबकि उसका खेल बजट 1.1 खरब रुपये का है। इन देशों ने कभी खेल महाशक्ति बनने जैसे वाहियात दावे नहीं किये।
भारतीय खेल प्राधिकरण भारत का सर्वोच्च खेल निकाय है। इसका उद्देश्य खिलाड़ियों की प्रतिभा को निखारना है। इस बजट से इसे मात्र 614 करोड़ रुपये मिले। 1998 में नेशनल स्पोर्ट डेवलपमेण्ट फण्ड (एनएसडीएफ) की स्थापना की गयी थी। इसका मुख्य काम आर्थिक रूप से कमजोर खिलाड़ियों की मदद करना था। इस बार एनएसडीएफ का बजट मात्र 50 करोड़ रुपये है जो पिछले बजट से 27 करोड़ रुपये कम है।
बजट का सबसे बड़ा हिस्सा, 891 करोड़ रुपये ‘खेलो इण्डिया’ कार्यक्रम के लिए आवंटित हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य खेल योजनाओं के जरिये प्रधानमंत्री का प्रचार करना है। हालाँकि, दावा किया गया था कि इस योजना से देश में हर साल नये कुशल खिलाड़ी खोजे जाएँगे और जिला स्तर पर हर साल 100 नये स्टेडियम बनाये जाएँगे। दो वर्ष बीत चुके है स्मार्ट सिटी की तरह नये स्टेडियम बनाना भी एक जुमला साबित हुआ।
आज भारत में समाज का इस हद तक मशीनीकरण कर दिया गया है कि खेलों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसके अलावा नाममात्र की खेल संस्थाओं में भी धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद का बोलबाला है। खेल संस्थाएँ आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी हैं। सरकार की कोई खेल नीति नहीं है जिससे आम जनता को खेल–कूद में भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
खेलों को प्रोत्साहन देने की सबसे पहली जगह प्राथमिक स्कूल हैं, जहाँ बचपन से ही बच्चों को खेल–कूद के प्रति जागरूक किया जाना सम्भव है। उन्हें खेलों के उद्देश्य और खेल भावना की शिक्षा के साथ–साथ खेलों में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है, लेकिन 62 फीसदी स्कूलों मे बच्चों के खेलने की जगह ही नहीं है। शारीरिक शिक्षा और खेल–कूद से सम्बन्धित विषयों की किताबें अब पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं रहीं।
खेल हमेशा मानव सभ्यताओं का हिस्सा रहा है। यह एक स्वस्थ्य समाज की पहचान है। जिस देश और समाज के रहनुमाओं ने समाज को रूग्ण बनाने का बीड़ा उठा रखा हो उनके लिए खेल और खिलाड़ियों का अधिकतम महत्व यही हो सकता है कि वे शासक के मलिन चेहरे को चमकदार दिखाने का साधन बने।
Leave a Comment
लेखक के अन्य लेख
- जीवन और कर्म
-
- भीष्म साहनी: एक जन–पक्षधर संस्कृतिकर्मी का जीवन 13 Sep, 2024
- समाचार-विचार
-
- आयुष्मान भारत योजना : जनता या बीमा कम्पनियों का इलाज? 15 Aug, 2018
- खेल और खिलाड़ियों का इस्तेमाल ‘फेस पॉउडर’ की तरह भी हो सकता है! 16 Nov, 2021
- जन जन तक जुआ, घर घर तक जुआ 17 Feb, 2023
- पेंशन बहाली का तेज होता आन्दोलन 14 Mar, 2019
- लाशें ढोते भारत में सेन्ट्रल विस्टा! 20 Jun, 2021
- अवर्गीकृत
-
- ज्ञानवापी मस्जिद का गढ़ा गया विवाद 20 Aug, 2022