नवम्बर 2023, अंक 44 में प्रकाशित

सिक्किम की विनाशकारी बाढ़ भविष्य के लिए चेतावनी है

4 अक्टूबर 2023 को सिक्किम में दक्षिण ल्होनक ग्लेशियर झील फट गयी। उससे आये पानी के सैलाब से वहाँ की सबसे बड़ी जल–विद्युत परियोजना, तीस्ता–3 का चुंगथांग बाँध टूट गया। यह जल–विद्युत परियोजना ऊपरी हिमालय क्षेत्र में बनायी गयी थी। बाँध टूटने से आयी बाढ़ ने सिक्किम, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में नदी–तटीय इलाकों को तबाह कर दिया। इस तबाही ने 94 लोगों की जान ले ली तथा हजारों हेक्टेयर फसल और हजारों आशियानों को उजाड़ दिया। मंगन जिले के चुंगथांग गाँव में स्थित तीस्ता–3 जल–विद्युत परियोजना बिलकुल नयी परियोजना थी और फरवरी 2017 में ही चालू की गयी थी।

उत्तरी और पूर्वी भारत के राज्यों को बिजली देने के लिए भारत भूटान के ऊपरी हिमालय क्षेत्र में तीन बड़ी जल–विद्युत परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है, इस घटना ने इन निर्माणाधीन परियोजनाओं को चिन्ता के केन्द्र में ला दिया है।

सरकार ने ल्होनक झील को मौजूदा तबाही का जिम्मेदार ठहरा कर छुट्टी पा ली है। लेकिन वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की संस्था ‘सेव द हिल’ की रिपोर्ट में इसके लिए सरकार की लापरवाही को जिम्मेदार ठहराया गया है। 2013 में, जब बाँध बनना शुरू हुआ, तभी नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर के वैज्ञानिकों ने इस झील के फटने की सम्भावना 42 प्रतिशत बतायी थी।

इस झील का ग्लेशियर सबसे तेजी से सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों में से एक था। झील का आकार 1977 के 17–54 हेक्टेयर से बढ़कर 2008 में 98–73 हेक्टेयर हो गया था। झील के फटने से पहले इसका क्षेत्रफल बढ़कर 162–7 हेक्टेयर हो गया था लेकिन सरकार तब भी सोती रही। कितने ही शोध हो चुके हैं कि यह क्षेत्र ग्लेशियरों के पीछे हटने से जमा हुई मिट्टी और चट्टानों से मिलकर बना है, यह बेहद कच्चा है, यहाँ तेज बारिश भी मिट्टी और पत्थरों के मलबे को उखाड़ सकती है। इसलिए इस क्षेत्र में बाँधों और सुरंगों का निर्माण नहीं होना चाहिए। ग्लेशियर झील फटने से आयी बाढ़ और बाँधों में इकट्ठा पानी दोनों मिलकर बड़ी तबाही ला सकते हैं।

हिमालय में ग्लेशियर झील फटने से आयी विनाशकारी बाढ़ की घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। क्या 2013 में उत्तराखंड राज्य में केदारनाथ के ऊपर फटी झील से आयी तबाही को देश के शासक भूल गये जिसमें हजारों लोग मारे गये थे और लाखों लोगों की जीवनभर की कमाई मिनटों में स्वाहा हो गयी थी। लेकिन पूरी तरह मुट्ठी भर धन्नासेठों के मुनाफे पर केन्द्रित विकास के झंडाबरदारों ने इन गम्भीर घटनाओं और चेतावनियों की हमेशा आपराधिक अनदेखी की और वहशियों की तरह ऊपरी हिमालयी क्षेत्र में बड़े–बड़े बाँधों और सुरंगों का निर्माण करते गये और लगातार कर रहे हैं।

भारत के इतिहास में यह अब तक की सबसे बड़ी बाँध विफलता है और भविष्य के लिए चेतावनी है। यह कोई प्राकृतिक घटना नहीं है बल्कि मानव निर्मित है। पूरा हिमालय और खास तौर पर सिक्किम का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत नाजुक है। इस राज्य में भूकम्प का खतरा बहुत ज्यादा है। यहाँ वार्षिक वर्षा का औसत देश में सबसे अधिक है। ऐसे राज्य में हिमालय के बर्फीले पर्वत शिखरों के ठीक नीचे ऊँचाई पर 1200 मेगावाट क्षमता की विराट जल–विद्युत परियोजना लगाना प्रकृति और देश की जानता के खिलाफ जघन्य अपराध नहीं तो और क्या है। जो केवल इस सोच के वशीभूत होकर बनाया गया कि वहाँ बहुत तीखा ढलान और तंग घाटी है, जिससे बहुत कम लागत में बहुत ज्यादा बिजली बन जायेगी।

पिछले पाँच सालों में ही इस परियोजना से इसके कर्जदाता बैंक, इसका बीमा करने वाली कम्पनी, एनटीपीसी और इसमें एक तिहाई की हिस्सेदार विदेशी कम्पनी अरबों–खरबों का मुनाफा कमा चुकी हैं, क्या इनमें से कोई भी प्रकृति और जानता को हुए नुकसान की भरपाई करने आएगा। हजारों मिन्नतों और दबावों के बाद एनटीपीसी ने मात्र तीन करोड़ रुपये दिये हैं। प्रकृति को हुए नुकसान की तो बात छोड़िये, उसकी तो जाने कितनी कीमत इनसान की आनेवाली नस्लों को चुकानी पड़ेगी, लेकिन क्या सरकारों समेत तीस्ता–3 परियोजना से मुनाफा कमानेवाली तमाम बैंकों और कम्पनियों को तुरन्त जन–हत्या और जन–सम्पत्ति की तबाही के लिए दण्डित नहीं किया जाना चाहिए? लेकिन, क्या पूँजीवादी व्यवस्था में यह न्याय हो सकता है?

विनाशकारी विकास के मौजूदा मॉडल से सबसे ज्यादा मजा लूटनेवाले “अति विद्वान” अपनी “चरम चतुराई” का प्रदर्शन करते हुए सरकार के “प्राकृतिक आपदा” के तर्क से भी दो कदम आगे बढ़कर इस विनाश के लिए जनता को दोषी ठहरा रहे हैं। वे बहुत बेहूदा और आसान–सा तर्क देते हैं कि जनता ऊर्जा का बहुत ज्यादा उपभोग करने लगी है इसलिए सरकार को ऊर्जा उत्पादन के लिए जन–विरोधी और प्रकृति–विरोधी तरीके अपनाने पड़ते हैं। इस तरह के “कुतर्कों” को इतना प्रचारित किया जाता है कि इसके शिकार आम लोग भी वास्तव में खुद को ही अपने विनाश का दोषी मानने लगते हैं। हमें ऐसी सोच को बदल देना होगा और पर्यावरण का विनाश करके विकास को बढ़ावा देनेवाली नीतियों पर लगाम कसनी पड़ेगी।

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