जल संकट पर नीति आयोग की चैकाने वाली रिपोर्ट
हाल ही में नीति आयोग ने ‘समग्र जल प्रबन्धन सूचकांक’ रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट ने जल प्रबन्धन को लेकर भारतीय शासक वर्ग की गम्भीरता की पोल खोलकर रख दी और देश में जल संकट की भयावह तस्वीर प्रस्तुत की। जल प्रबन्धन की दुर्दशा का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की 60 करोड़ आबादी को दैनिक–जीवन के लिए आवश्यक पानी की एक–एक बूँद के लिए तरसना पड़ रहा है। हालात इतने ज्यादा भयावह हो चुके हैं कि स्वच्छ जल उपलब्ध न होने के कारण हर साल करीब दो लाख लोगों को मौत अपनी चपेटे में ले लेती है। जल की गुणवत्ता के मामले में भारत 122 देशों की सूची में नीचे से तीसरे पायदान पर है। रिपोर्ट की माने तो 2030 तक देश में जल की माँग आपूर्ति के मुकाबले दुगुनी हो जाएगी। जिसका नतीजा जल संकट से प्रभावित लोगों की संख्या में और ज्यादा बढ़ोतरी के रूप में हमारे सामने होगा। इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि 2020 तक देश के 21 शहरों से भू–जल गायब हो जाएगा जिनमें दिल्ली, बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं। यदि जल प्रबन्धन को लेकर शासक वर्ग का यही रवैया रहा तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं है जब हर साल जल संकट की वजह से मरने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में पहुँच जाएगी।
इस विकराल संकट को समझने के लिए हमें इसे पर्यावरण संकट से जोड़कर देखना होगा। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और पर्यावरण विनाश के कारण ही आज हमारे सामने जल संकट भयावह तबाही मचाने के लिए मुँह बाए खड़ा है। यह प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि अंधाधुंध और बदहवास पूँजीवादी विकास का नतीजा है। इस तथाकथित विकास ने ही आज हमारे सामने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की हैं।
लगभग 50 करोड़ लोगों को जीवन देने वाली गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र, घाघरा, गंडक, कोसी जैसी हिमालयी नदियाँ भी आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। ये भारत के एक बड़े इलाके को अपने जल से सींचती हैं लेकिन तेजी से बढ़ते प्रदूषण से इन नदियों के पानी की मात्रा और गुणवत्ता में भारी कमी आ रही है। भारतीय संस्कृति में पूजनीय गंगा नदी का पानी आज पीने लायक भी नहीं बचा है। गंगा के किनारे लगाये गये कल–कारखानों, उद्योगों और सीवरों से निकलने वाले गंदे पानी को बिना शोधित किये नदी में बहा दिया जाता है, जिससे यह नदी दिन–ब–दिन किसी विषैले नाले में तब्दील होती जा रही है। नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट किया है कि आज हमारे देश में उपलब्ध जल का 70 फीसदी हिस्सा प्रदूषित हो चुका है।
देश के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से के जलाशयों के जल स्तर का लगातार गिरते जाना, पेयजल और सिंचाई की समस्या का लगातार बने रहना आज किससे छिपा है? मराठवाड़ा क्षेत्र की दुर्गति का कारण प्रकृति का प्रकोप नहीं बल्कि धूर्त सरकारों की दुर्व्यवस्था, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिये तत्पर बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियाँ और गन्ना माफिया हैं। ऐसी कम्पनियाँ जो बीटी कपास जैसे हाइब्रिड बीजों को मराठवाड़ा जैसी जगहों पर भी बढ़ावा देती रही हैं। बीटी कपास में मौजूद विषाक्त पदार्थ मिट्टी से जीवों को नष्ट कर देते हैं। इस तरह, मिट्टी की जल धारण क्षमता को कम करने के साथ ही यह इसे बंजर भी बना देते हैं। गन्ना माफिया मुनाफा कमाने के लालच में उन इलाकों में भी चीनी मिलें लगा देते हैं जहाँ पहले से ही पानी की बहुत कमी है।
अकेले मराठवाड़ा क्षेत्र में ही 70 चीनी मिलें हैं। इन मिलों के लिए 2,500 टन गन्ना उपजाने के लिए 25,00,000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। इस पूरे क्षेत्र में हर साल केवल 600–700 मिलीमीटर बारिश होती है और मिट्टी की जल धारण क्षमता बहुत कम है। पथरीली मिट्टी होने के कारण बारिश का सिर्फ 10 प्रतिशत पानी ही भूजल को रिचार्ज करने में प्रयुक्त हो पाता है जो पर्याप्त नहीं है। सरकार ऐसी स्थिति से वाकिफ है। इसके बावजूद बीटी कपास और गन्ने की फसलों को बढ़ावा देने पर सवाल खड़ा होता है। पानी निगलने वाली मिलों को सरकार की मंजूरी कैसे मिल जाती है? यह सवाल सीधे सरकारों की तरफ इशारा करता है जिसका काम जनसामान्य के शरीर का एक–एक कतरा खून निचोड़कर इन कम्पनियों और गन्ना मिलों को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा पहुँचाना भर रह गया है। इस इलाके में लगभग सभी पार्टियों के किसी न किसी नेता की अपनी चीनी मिल है। इन मिल मालिकों के आलीशान बंगलों को देखकर कहीं से भी नहीं लगता कि यह इलाका भयानक सूखे की चपेट में है और पानी की एक–एक बूँद के लिए तरसता होगा। यह बात तो जगजाहिर है कि यदि इन फसलों से किसानों का फायदा हो रहा होता तो आज यह क्षेत्र किसानों की आत्महत्या की राजधानी के रूप में नहीं जाना जाता। आज देश के रहनुमाओं से यह सवाल पूछने का वक्त आ गया है कि यदि कर्नल गद्दाफी लीबिया के रेगिस्तान में घर–घर पानी की पाइपलाइन बिछा सकते हैं जिन्हें अमरीका ने तानाशाह कहकर खत्म कर दिया था। आज भारत में लोग बूँद–बूँद पानी के लिए क्यों तरस रहे हैं? क्या यह संकट सरकारी बदइन्तजामी और लापरवाही का नतीजा नहीं?
––कवीन्द्र कबीर