जलवायु संकट के लिए अमीर दोषी क्यों?
(स्वीडेन की ग्रेटा थनबर्ग अभी 16 साल की स्कूली छात्रा हैं। वह पर्यावरण की एक जुझारू कार्यकर्ता हैं। उन्होंने स्वीडेन की संसद के सामने पर्यावरण के लिए हड़ताल करके आन्दोलन की शुरुआत की थी। यह आन्दोलन अब तक 125 देशों में फैल चुका है। 24 मई 2019 की हड़ताल में 1600 शहरों से स्कूली छात्रों ने भाग लिया। 27 सितम्बर को अगली विश्वव्यापी हड़ताल की घोषणा हो चुकी है। सभी जगह के स्कूल के प्रतिनिधि तैयारी में जुट गये हैं। स्कूली आन्दोलनकारियों का कहना है कि “कोई भी इतना छोटा नहीं होता कि बदलाव न ला सके” और उससे पहले कि “धरती बुरी तरह से तपने लगे पर्यावरण के लिए हड़ताल करो।”)
ग्रेटा थनबर्ग, 16 साल की स्वीडिश जलवायु कार्यकर्ता हैं उन्होंने वैश्विक “जलवायु संकट की स्कूल हड़ताल” आन्दोलन को प्रेरित किया था, उन्हें जनवरी की वार्षिक “वर्ल्ड इकनोमिक फोरम” स्विट्जरलैंड के दावोस में पूँजीपतियों और मशहूर हस्तियों की बैठक में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने बेलागाम शब्दों में कहा–
“कुछ लोग कहते हैं कि जलवायु संकट कुछ ऐसी चीज है जिसको हमने (सबने) पैदा किया है। लेकिन यह सच नहीं है क्योंकि यदि सभी दोषी हैं तब कोई भी दोषी नहीं है। और कोई न कोई तो दोषी है।
कुछ लोग, कुछ कम्पनियाँ और विशेष रूप से कुछ निर्णयकर्ता भली–भाँति यह बात जानते हैं कि अथाह पैसा बनाने के इस काम को जारी रखने के लिए वह किस अमूल्य धरोहर को नष्ट कर रहे हैं। और मेरा विचार है कि आज यहाँ आप में से अधिकतर लोग उसी समूह से हैं।”
थनबर्ग सही हैं। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम में आमंत्रित विश्व के “एक प्रतिशत” अति धनी व्यक्तियों और उनके राजनीतिक नौकरशाह पर्यावरण संकट के लिए दो तरह से जिम्मेदार हैं।
पहला, उनकी विलासितापूर्ण जीवन–शैली से होने वाला उत्सर्जन बहुत विशाल है। उनके घरों में इस्तेमाल होने वाली निर्माण–सामग्री और उसमें लगने वाली ऊर्जा, उनके निजी जेटों की अनियमित उड़ानें और उनके इस्तेमाल की सभी विलासितापूर्ण वस्तुओं के उत्पादन से होने वाले प्रदूषण के बारे में सोचिये। चैरिटी ऑक्सफेम की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, औसतन सबसे धनी 1 प्रतिशत लोगों में से कोई एक व्यक्ति वैश्विक स्तर पर सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों में से किसी एक व्यक्ति की तुलना में 175 गुना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है। विश्व की आधी सबसे गरीब आबादी, लगभग 4 अरब लोग केवल 10 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
ये आँकड़े उस व्यक्ति को याद दिलाये जाने चाहिए जो यह तर्क करे कि “अत्यधिक आबादी” एक समस्या है। यह तर्क केवल गलत ही नहीं है–– यह तर्क बढ़ते हुए उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार लोगों के हाथों का खिलौना भी है। यह बड़े कारोबारियों और अमीरों की कारगुजारियों से ध्यान हटाकर उन लोगों पर केन्द्रित कर देता है जो खुद प्रदूषण भी कम करते हैं और जिनमें इस मामले में कुछ कर पाने की ताकत भी कम है।
दूसरा, शासक वर्ग अपनी आर्थिक और राजनीतिक निर्णयकर्ता की भूमिका के चलते जलवायु संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है।
विश्व के अमीर और शक्तिशाली लोग जो हमारे समाज को पर्यावरण विनाश के ढर्रे पर ले जा रहे हैं, दिन–रात ऐसे फैसले ले रहे हैं। ये वही लोग हैं जो कोयले की नयी खदानों में और पहाड़ों में विस्फोट करके तेल निकालने वाली परियोजनाओं में निवेश कर रहे हैं, वे हमारे जंगलों का सफाया कर रहे हैं, उन रसायनों का इस्तेमाल कर रहे हैं जो हमारी भूमि, हवा और पानी को प्रदूषित कर दे, हमारे महासागरों से अधिक से अधिक मछलियाँ पकड़ के मुनाफा कमा रहे हैं, इत्यादि। और हमारे नेता यह सब करने में उनका साथ दे रहे हैं।
आम तौर पर हर जगह पूँजीपतियों की तरफ से यही दलील दी जाती है कि वे बाजार के विनम्र सेवक और उपभोक्ताओं की माँगों को पूरा करने वाले हैं। उसी प्रकार, नेता यह तर्क देते हैं कि उनके द्वारा जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर ध्यान न दे पाने की असफलता, मतदाताओं की तरफ से समर्थन की कमी को दर्शाता है। दोनों ही दावे गलत हैं।
नेताओं के मामले में यह बिल्कुल साफ है। जैसे–– ऑस्ट्रेलियाई लोगों की बड़ी आबादी एक दशक से भी अधिक समय से जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई चाहती है। 2018 के लोई इंस्टिट्यूट की मतगणना ने यह बताया कि 59 प्रतिशत लोग इस कथन से सहमत थे कि “जलवायु परिवर्तन एक गम्भीर और अविलम्ब हल करने वाली समस्या है। हमें इसके लिए कदम उठाना शुरू करना चाहिए चाहे इसके लिए कितनी ही महत्त्वपूर्ण कीमत क्यों न लगे।”
और उससे भी बड़ी संख्या, 84 प्रतिशत लोग इस कथन से सहमत हैं कि सरकार को फिर से इस्तेमाल किये जा सकने वाले ऊर्जा स्रोतों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, इसका यहाँ तक मतलब है कि हमें व्यवस्था को और विश्वसनीय बनाने के लिए आधारभूत ढाँचें में और अधिक निवेश करने की जरूरत है।
सारे प्रमाण इसी ओर संकेत करते हैं कि यदि नेता ऑस्ट्रेलिया के पुराने कोयला आधारित उद्योगों के और आगे फैलाव के खिलाफ मजबूती से खड़े होने और तेजी से नवीकरण ऊर्जा स्रोतों की ओर संक्रमण करने के लिए तैयार होते, तो यह तरीका बहुत प्रचलित होता। इसके बावजूद तथ्य यह हैं कि हम खनन और अन्य बड़े व्यावसायिक हितों के प्रचार की आड़ लेते हैं जो यह दावा करते हैं कि पर्यावरण स्थिरता की दिशा में पहलकदमी अर्थव्यवस्था के लिए एक खतरा है।
पर्यावरण के मामले में, जनता बदलाव चाहती है, नेता ही हैं जो अपने पैर पीछे खींच रहे हैं।
चीजों के व्यावसायिक पहलुओं को थोड़ा और खोलने की जरूरत है। यदि एक समय किसी बिन्दु पर समाज का चित्र लिया जाये तो सारी चीजें माँग और आपूर्ति के नियमानुसार संचालित मालूम होती हैं। जैसे, लोग पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियाँ खरीद रहे हैं जिसके लिए र्इंधन की आपूर्ति आवश्यक है।
इस तरह से देखने पर ऐसा लगता है कि कारों और अन्य उत्पादों के खरीदार भी पर्यावरण विनाश के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। यही वजह है कि पर्यावरण आन्दोलन में सक्रिय बहुत से लोगों को विश्वास दिला दिया गया है कि व्यक्तिगत उपभोग में बदलाव पर्यावरण के विनाश को रोकने की कुंजी है।
जबकि यह नजरिया उन ऐतिहासिक और बुनियादी कारकों को नजरन्दाज कर देता है जो “उपभोक्ता की पसन्द” को बहुत ही संकीर्ण दायरे में समेट देता है। कारों की निरन्तर बढ़ती माँगों को ले लीजिए–– लगभग पिछली एक सदी से हमारे समाज को कार उद्योग के अनुसार ढाला गया है। सार्वजनिक परिवहन रुक गये और कुछ शहरों में तो पूरी तरह से बन्द ही हो गये। (कभी–कभी यह प्रक्रिया कार उद्योग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से संचालित की गयी जो ट्रेनों और ट्रामों के फैले जाल–तंत्र को खरीदते हैं और पटरियों को तुड़वा देते हैं)।
जैसे–जैसे कारों का मालिकाना बढ़ता है, शहर फैलने लगते हैं। आज लोगों की एक बड़ी संख्या के लिए कारों का इस्तेमाल इच्छा नहीं बल्कि पूरी तरह से एक मजबूरी बन गयी है। वे जिन्होनें अपना सारा जीवन बड़े शहरों के भीतर बसे सम्पन्न उपनगरों में बिताया हो, केवल वही इससे अलग सोच सकते हैं।
कारों पर हमारी निर्भरता को कम करने के लिए सार्वजनिक परिवहनों के आधारभूत ढाँचें में भारी निवेश की जरूरत होगी, ऐसे स्तर का निवेश जिसके समर्थन में किसी भी पूँजीवादी सरकार ने रुचि नहीं ली है। इस सन्दर्भ में, आम लोगों को अपनी कारों का इस्तेमाल करने के लिए दोषी ठहराना पूरी तरह से व्यर्थ है। अधिक जनसंख्या के बारे में तर्क देते हुए, जो लोग सही मायने में जलवायु परिवर्तन के लिए दोषी हैं, उनकी तरफ से ध्यान हटा दिया जाता है।
बहुत से अन्य उदाहरणों का जिक्र किया जा सकता है। हम ऐसी व्यवस्था में नहीं रहते जो लोगों को वास्तविक “मुक्त इच्छा” की अनुमति देता हो कि वे किस चीज का उपभोग करें, कहाँ रहें, कहाँ काम करें, इत्यादि।
जलवायु संस्थान सीडीपी (पूर्व में कार्बन डिसक्लोजर प्रोजेक्ट) के शोधकर्ताओं की 2017 की रिपोर्ट में बताया गया है कि 1988 के बाद से 70 प्रतिशत से अधिक वैश्विक उत्सर्जन केवल 100 कम्पनियों ने किया है। ये कम्पनियाँ उपभोक्ताओं की माँगों को पूरा नहीं कर रही हैं। ये वैश्विक स्तर की वे विशाल कम्पनियाँ हैं जिन्होनें अर्थव्यवस्था को अपने अनुसार ढाल लिया है और अर्थव्यवस्था में अपने स्वार्थों को अपनी “मनमर्जी” से पूरा कर रही हैं।
यह जरूरी नहीं है कि हम पर्यावरण के नारकीय विनाश जिसका जिम्मेदार आज का वैश्विक पूँजीवाद है, पर ही बात खत्म कर दें। उदाहरण के लिए, हमें 19वीं शताब्दी के शुरु से ही सौर ऊर्जा का स्रोत ज्ञात है। फिर भी हर मौके पर पूँजीपति वर्ग ने इनसानियत के हित के ऊपर अपने तात्कालिक मुनाफे को ही प्राथमिकता दी है।
कोयले को जलाकर ऊर्जा पैदा करना, सौर ऊर्जा पैदा करने वाली तकनीक में निवेश करने की तुलना में सस्ता और तीव्रगामी था। लाखों की तादाद में कारों को बेचकर उनकी जरूरतों के हिसाब से शहरों का निर्माण करना सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को उन्नत करने की तुलना में अधिक मुनाफा देने वाला था।
वह पूँजीपति जो आज की अर्थव्यवस्था के प्रभावशाली पदों पर आसीन हैं, इन ऐतिहासिक अपराधों से मुक्त नहीं किये जा सकतेे। कम्पनियों के शक्तिशाली अधिकारी और निवेशक जो व्यवस्था को चला रहे हैं, वे बहुधा शुरुआती समय के पुराने “औद्योगिक नेताओं” के प्रत्यक्ष वंशज हैं। और यदि वह वंशज नहीं भी हैं तो भी वे स्पष्ट रूप से “ग्रह से पहले मुनाफा” की विचारधारा के तहत अपना हित साधते हैं जैसी परम्परा उनके पूर्वगामी स्थापित करके गये हैं।
इन सबके बावजूद, आप यह पूछ सकते हैं कि जब तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के सम्भावित विध्वंसकारी परिणामों पर वैज्ञानिकों द्वारा चेतावनी दी जा चुकी है, तब भी अमीर अपना “कारोबार उसी तरह” जारी रखने के लिए इतना दृढ़ क्यों दिखायी दे रहे हैं? सच है, वे इस व्यवस्था में अपने हित के लिए खूब काम कर रहे हैं लेकिन इस तरह से लगातार काम करना कि जो आपके सहवासियों के लिए नुकसानदायक है क्या पाठ्यपुस्तकीय मनोरोग (इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक व्यक्ति लाखों को हानि पहुँचाने वाला है) नहीं है? और ऐसा आप इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यह आपके संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करता है।
पहला जवाब तो यह है कि पूरी तरह से जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार होने के बावजूद वे उन लोगों में से नहीं होंगे जो सबसे अधिक सर्वनाशी परिदृश्यों और परिणामों को झेलेंगे। जैसा कि हमारे समाज में बहुत से मामलों में होता है, पर्यावरण के विनाश के मामले में भी अमीर सचमुच ही इससे बचने का रास्ता निकाल सकता है।
समुद्र का जल स्तर बढे़गा तो वे किसी और जगह अपने दूसरें मकानों में जा सकते हैं। क्या सूखा पड़ने पर उन्हें पानी की आपूर्ति का डर है? वे ट्रकों में लाये गये पानी खरीदने के लिए पैसे दे सकते हैं। क्या उनके घरों को आग का डर है? वे आग बुझाने के लिए अपने निजी फायरमैन किराये पर रख सकते हैं। क्या खाने के दामों का बढ़ना उनके लिए मुसीबत है? बमुश्किल ही उनके लिए ऐसा कुछ हो सकता है–– उनमें से बहुत से अपनी कृषि–सम्बन्धी पूँजी निवेश की मूल्य वृद्धि के चलते मुनाफे में ही हैं।
यदि हम अपने मौजूदा हालात से शुरू करें तो हम एक ऐसी स्थिति में पहुचेंगे, जहाँ दुनिया दो ऐसे हिस्सों में बँटी होगी जहाँ एक तरफ तो अमीरों की एक छोटी, सेना द्वारा सुरक्षित और जलवायुरोधी बस्ती (एन्क्लेव) होगी और दूसरी तरफ गरीबों के अभाव, रोगग्रस्त और आपदाओं से प्रभावित दूरस्थ इलाके (हिन्टरलैण्ड), जहाँ दुनिया की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जिन्दगी जीने के लिए रोज संघर्ष करता होगा। लेकिन यह देखते हुए कि वैश्विक शासक वर्ग कमोबेश इसी तरह पहले से ही जी रहा है, उन्हें इस परिदृश्य के बारे में अधिक चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।
जलवायु परिवर्तन के खतरे पर, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की प्रतिक्रिया से यही जाहिर होता है। उत्सर्जन पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए हमारी सरकारें बहुत थोड़ा काम कर रही हैं। इसी दौरान, वे बहुत विशाल धनराशि सेना को खड़ा करने में लगा रही हैं और गर्म होती दुनिया से जुडी भू–राजनीतिक अस्थिरता के बढ़ते स्तर की पहचान के लिए भी वे कुछ धनराशि खर्च कर रही हैं।
सजग वैज्ञानिकों की चेतावनियों के प्रति धनी लोगों के इतना बेपरवाह होने और पर्यावरण की तबाही से किनारा करने का दूसरा कारण यह है कि वह इसे खुद पूँजीवादी व्यवस्था और धन, सत्ता और विशेषाधिकारों के लिए एक खतरे के रूप में देखते हैं जिसका वे इस व्यवस्था के चलते मजा लूटते हैं।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में जरूरी बदलाव के लिए हमें पूँजीपतियों के स्वार्थों का सामना करना होगा जिन्होनें जीवाश्म–र्इंधन आधारित अर्थव्यवस्था के दम पर अपनी पूरी सम्पत्ति खड़ी की है। कम से कम, हमें बड़े स्तर पर सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत होगी। जैसे– नयी कोयला खदानों के निर्माण के विरोध में कानून बनाना और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की दिशा में तेजी से संक्रमण के लिए धनी लोगों पर कर लगाकर कोष इकठ्ठा करना।
उनकी तरफ से चिन्ता यह है कि यह एक अस्थिर झुकाव हो सकता है। एक बार जब लोग यह (पागलपनभरा!) विचार ग्रहण कर लेंगे कि बेलगाम बाजार पूँजीवादी समाज को व्यवस्थित करने का सही रास्ता नहीं है और बड़े स्तर की सहभागिता से ही जलवायु परिवर्तन से निपटा जा सकता है, तो कौन जानता है कि यह उन्हें किस ओर ले जाये? लोग उसी नमूने को बाकी चीजों जैसे– बेहतर सार्वजनिक परिवहन, स्वास्थ्य देखभाल, घर इत्यादि पर भी लागू करने की इच्छा कर सकते हैं।
नवउदारवाद की दशकों लम्बी परियोजना जो “उपभोक्ता के भुगतान” पर आधारित थी और जिसने हमारे जीवन के हर पहलू में प्रतिस्पर्धात्मक व्यक्तिवाद को ही आगे बढ़ाया, अब चिथड़े–चिथड़े हो चुकी है। अब एक ऐसा समाज बनाना होगा जो सच्ची एकजुटता और प्राकृतिक पर्यावरण और सभी मानवों, जिनके साथ हम यह नाजुक धरती साझा करते हैं, के प्रति देखरेख पर आधारित हो।
यह पूँजीपति वर्ग का एक डरावना सपना है। और इसीलिए हम उन पर भरोसा नहीं कर सकते कि वे इस बदलाव को नेतृत्व देंगे। वैज्ञानिकों की इतनी चेतावनियाँ उनके और उनके संसदीय नौकरों को समझाने के लिए पर्याप्त नहीं है कि सदियों से उन्होनें जो व्यवस्था बनायी है, जिसने उन्हें पैदा किया है और जो लगातार अनगिनत धनी लोगों को पैदा करती रहेगी, उसे छोड़ दें।
हमारे समाज में अमीर और गरीब, पूँजीपति और मजदूर के कड़े विभाजन की पहचान करना, जलवायु संकट को समझने की किसी भी असली योजना का एक शुरुआती बिन्दु होना चाहिए। मुख्य सन्देश यह है कि हम उन पर भरोसा नहीं कर सकते, इसीलिए हमें खुद पर भरोसा करना होगा।
यही वह सन्देश था जो ग्रेटा थनबर्ग ने पिछले वर्ष पोलैंड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मलेन में दिया था। उसने कहा, “हम यहाँ विश्व के अधिनायकों से अपने भविष्य की परवाह करने का निवेदन करने नहीं आये हैं”। “उन्होंने अतीत में भी हमारी उपेक्षा की है और भविष्य में भी करेंगे। हम यहाँ उन्हें यह बताने आये हैं कि बदलाव आ रहा है भले ही वह ऐसा चाहें या नहीं। लोग इस चुनौती के लिए उठेंगे।”
थनबर्ग का दृष्टिकोण एक जलवायु कार्यकर्ता के रूप में बिलकुल सही है। ताकतवरों के पैरों के नीचे अब और अधिक अपमानित नहीं होना है। अब और लॉबिंग (अमीरों के लिए दलाली) नहीं करनी है। बड़े घरानों और नेताओं को विश्वास में लेने के लिए बड़ी ही सावधानीपूर्वक लिखी गयी अब कोई ऐसी रिपोर्ट नहीं, जो यह बताये कि इस मुद्दे को उनकी बनी बनायी व्यवस्था में बिना किसी वास्तविक चुनौती दिये सम्बोधित किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन पर हमारे शासकों की आपराधिक निष्क्रियता, जो हमारी पृथ्वी को तबाही के कगार पर ले आयी है, उससे सामना करने का एकमात्र रास्ता क्रान्ति ही है।
1848 में, जब कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा, उन्होंने इसे क्रान्ति के बिगुल के आह्वान के साथ ही समाप्त किया––
“मजदूरों के पास अपनी बेड़ियों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं है। और जीतने के लिए सारा संसार है।”
आज, क्रान्ति की जरूरत बहुत अधिक है। अब यह और नहीं चल पायेगा कि “खोने के लिए बेड़ियों के अलावा और कुछ नहीं है”। बस जोखिम यही है कि यदि हम अपने शासकों के पर्यावरण के विनाशकारी ढर्रों को यूँ ही जारी रखने देते हैं, तब हम यह संसार भी खो देंगे और तब हमारे पास जीतने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।
इस परिणाम को न आ सकने देना ही हमारी पीढ़ी का अतिआवश्यक कार्य है।
(अनुवाद–– रुचि मित्तल)
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