दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

जड़ी–बूटियों की लूट का धंधा

उत्तराखंड को हर्बल प्रदेश बनाने दावे कितने खोखले और हवाई हैं इसे प्रदेश में जड़ी–बूटी उत्पादन की जमीनी हकीकत को देखकर बहुत आसानी से समझा जा सकता है।

उत्तराखंड प्रदेश में मुख्यत: दो तरह की जड़ी–बूटियाँ होती हैं, एक उगायी जाने वाली और दूसरी जंगलों में पायी जाने वाली। उगायी जाने वाली जड़ी–बूटियाँ न के बराबर हैं। 95 प्रतिशत जड़ी–बूटियाँ वे हैं जो प्राकृतिक रूप से यहाँ के जंगलांे में पैदा होती हैं।

इन दोनों ही तरह की जड़ी–बूटियों के दोहन की जिम्मेदारी मुख्यत: वन विभाग, भेषज इकाई और जड़ी–बूटी शोध संस्थान की होती है। उगायी जाने वाली जड़ी–बूटियों में कुट, कुटकी, अतीस, जटामाँसी, चिरायता, काला जीरा, तगर, सर्पगंधा, रोजमैरी, बड़ी इलाइची आदि मुख्य हैं। इनकी खेती सर्दियों में गोेपेश्वर से केदारनाथ, चमोली, अल्मोड़ा आदि इलाकों में की जाती है। इन सभी जड़ी–बूटियों को उगाने वाले किसानों का पंजीकरण होता है। फिर ये किसान इन्हें रामनगर, टनकपुर, या ऋषिकेश की मंडियों में बेचते हैं।

प्राकृतिक रूप से जंगलों में होने वाली जड़ी–बूटियों को अगर छोड़ दें तो उत्तराखंड में जड़ी–बूटियों की खेती बेहद दयनीय स्थिति में है। जबकि प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियाँ इस तरह की खेती के लिए बेहद अनुकूल मानी जाती हैं। जड़ी–बूटी शोध संस्थान इस दिशा में काम कर भी रहा है लेकिन सरकारी उदासीनता और संसाधनों की कमी के चलते जमीन पर इसका कोई खास असर नजर नहीं आता। इनका दोहन अगर इसी तरह बेरोक–टोक चलता रहा तो पृथ्वी से इनका नामो–निशान मिट जायेगा।

178 जड़ी–बूटियों की माँग प्रति वर्ष सौ टन से अधिक की है। इनमें से कई की आपूर्ति सिर्फ 25–30 टन तक ही हो पा रही, तो अगर किसी कम्पनी को इससे ज्यादा जरूरत है तो वह इनकी आपूर्ति कैसे करती है? सीधी बात है मिलावट करके। तमाम सूखी हुई जड़ी–बूटियों के अन्दर धूल–मिटटी, रेत, रसायन आदि की मिलावट की जाती है। सफाई के दौरान मजदूर इन्हें साँस के जरिये अपने फेफड़े में लेते हैं, जिससे आगे चलकर उन्हें साँस की बीमारी, यहाँ तक कैंसर भी हो जाता है। इसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं है न मालिक न सरकार।

आयुर्वेदिक दवाओं के नाम से कम्पनियाँ लोगांे से ठगी कर के मिलावटी दवा बेच रही हैं, क्योंकि जनता को इन सब जालसाजियों के बारे में नहीं पता है। आयुर्वेदिक दवाइयाँ जिसे हम शुद्धता के नाम से खाते जाते हैं, वे असलियत में कितनी शुद्ध हैं?  आयुर्वेदिक दवाइयों में मिलायी जाने वाली कुछ जड़ी–बूटियाँ मौसमी होती हैं और उसकी खपत भी सीमित होती है। लेकिन फैक्ट्री में इनके उत्पादन की कोई सीमा नहीं होती। कैसे? मिलावट के जरिये। बहुत सारी जड़ी–बूटियाँ जो की विलुप्त होने के कगार में हैं, उनका कम्पनियाँ अन्धाधुन्ध दोहन कर रही हैं और सरकार उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पा रही है।

उत्तराखंड सरकार दोनों तरह की जड़ी–बूटियों के खरीद मूल्य तय करने का काम निजी कम्पनियों के हाथ में दे रही है, जो बिलकुल अन्यायपूर्ण है। इसके चलते न जाने कितने किसान बर्बाद हो जायेंगी। 95 प्रतिशत जड़ी–बूटियाँ जो प्राकृतिक रूप से जंगलांे में मिलती हैं, उनके लिए कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं होता क्योंकि इन्हें कोई अपनी लागत से नहीं उगाता। इन्हें दूर–दराज के इलाकों से ग्रामवासी अपनी जान पर खेलकर निकालते हैं। बहुत से परिवारों की आय का यह मुख्य जरिया है। ऐसी जड़ी–बूटियों का मूल्य वन विभाग की नीलामी से ही तय होता है। लेकिन अगर इसका जिम्मा निजी कम्पनियों को दे दिया जायेगा तो वे इसे किसानों से कौड़ियों के भाव ले लेंगे। इससे बड़ा अन्याय क्या होगा कि खरीदार ही माल का भाव तय करे। इसके साथ ही कम्पनियाँ जड़ी–बूटियों की बेशुमार लूटपाट कर रही हैं, जो पहाड़ों से पहले ही विलुप्त हो रही हैं। प्रकृति और किसानों, दोनों के साथ यह जानलेवा खिलवाड़ है।  

 
 

 

 

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