दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

बेघरों के देश में तब्दील होता ब्रिटेन

तीसरी दुनिया के गरीब देशों में लोगों का बेघर होना या फुटपाथों और रैन बसेरों में जिन्दगी काटना आम बात है। लेकिन दुनिया के सरताज देशों की जनता बेघर होने लगे तो यह बेहद गम्भीर मामला बन जाता है।

पिछले कुछ सालों में लन्दन की गलियाँ रंग–बिरंगे तम्बुओं से भर गयी हैं। मन्दी के चलते बन्द पड़े बाजारों के फुटपाथों और शीशा जड़ी बहुमंजिला इमारतों के सामने की खाली जगहों को कुछ दिन या कुछ घण्टों के लिए अपना ठिकाना बनाने के लिए लन्दन के बेघर आवारागर्दों के बीच मारा–मारी मचती है। पुलिस उन्हें एक जगह से खदेड़ती है तो वे दूसरी जगह अपना तम्बू गाड़ देते हैं। बेघरों की इस भीड़ में दुधमँुहे बच्चों से लेकर नौजवान लड़के–लड़कियाँ, औरत–मर्द, बच्चे–बूढ़े, शादीशुदा और छड़े सब हैं।

अकेले लन्दन शहर में बेघरों की संख्या 1,70,000 से ज्यादा है। इंग्लैण्ड और वेल्स में इनकी संख्या 3,20,000 से ज्यादा है। मिडलैंड और यार्कशायर में बेघरों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। पूरे ब्रिटेन में बेघरों की संख्या में 4 फीसदी सालाना की बढ़ोतरी हो रही है। सबसे ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि सरकार द्वारा लगातार घर मुहैया कराने के बावजूद बेघरों की संख्या घटने के बजाय तेजी से बढ़ रही है। ब्रिटेन के हाउसिंग एण्ड कम्युनिटीज मंत्री जेम्स व्रोकनशायर का कहना है कि “सरकार बेघरों को घर देने के लिए 1.5 अरब डॉलर से ज्यादा दे रही है लेकिन समस्या के समाधान के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।”

कुछ दशकों पहले तक जिसके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था आज वह अपने नागरिकों को भरपेट खाना भी नहीं दे सकता। ब्रिटेन में भिखमंगों को खाना देने वाले फूड बैंकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद इन फूड बैंकों से खाना लेने वालों की कतारें इतनी लम्बी हो जाती हैं और ऐसी मारा–मारी मचती है कि पुलिस लगानी पड़ती है।

इंग्लैण्ड के समाज की तबाही का एहसास करने के लिए एक ही तथ्य काफी है कि आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए सरकार को अलग से एक मंत्री की नियुक्ति करनी पड़ी है। सरकार ने सभ्रांत लोगों से अकेले रहने वाले लोगों का खास ध्यान रखने की गुजारिश की है।

टेलीविजन और सिनेमाघरों में हम ब्रिटेन की जो छवि देखते हैं वह रइसों के ब्रिटेन की होती है। उससे हमें गरीब मेहनतकश ब्रिटेन की जनता की जिन्दगी का पता नहीं चलता। ऊपर दिये गये तमाम तथ्य किसी मनगढ़ंत कहानी का हिस्सा नहीं हैं बल्कि नवम्बर माह में ब्रिटेन के दौरे पर गये संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारी फिलिप एस्टन की रिपोर्ट में दर्ज हैं।

वैश्वीकरण की नीतियाँ आज तीसरी दुनिया की मेहनतकश जनता के शरीर से खून की आखिरी बूँद तक निचोड़ ले रही है। वही नीतियाँ ब्रिटेन की जनता को भी खून के आँसू रुला रही हैं। तीसरी दुनिया की सरकारों की तरह ब्रिटेन की सरकार ने भी पिछले आठ सालों से सार्वजानिक खर्चों में भारी कटौती की है और बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं को बन्द कर दिया है।

यह वही ब्रिटेन था जिसे अपने उद्योगों और बैंकों पर फख्र था। बेहद कम जनसंख्या और बेहद छोटे क्षेत्रफल के बावजूद यह आज भी दुनिया की पाँचवे नम्बर की अर्थव्यवस्था है। लेकिन पूरी दुनिया को लूटकर भी यह अपने देश की बेहद कम आबादी का पेट नहीं भर पा रहा है। वैश्वीकरण की असफलता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है। यह वैश्वीकरण दुनिया के लुटेरों का वैश्वीकरण है। यह न तो पहली दुनिया की जनता को अच्छा जीवन दे सकता है, न ही दूसरी और तीसरी दुनिया की जनता को।

लुटेरों के वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को केवल जख्म दिये हैं। इसी क्षत–विक्षत दुनिया पर ये इतिहास के अन्त की घोषणा करते हैं। पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता मिलकर वैश्वीकरण के अन्त की घोषणा क्यों न कर दे। ब्रिटेन की बेघर आबादी इसी भविष्य की ओर इशारा कर रही है।  

खस्ताहाल अस्पताल

लोगों के लिए वरदान माने जाने वाले अस्पताल आज अभिशाप में तब्दील हो गये हैं। हाल ही की एक खबर में बताया गया कि दिल्ली के महर्षि वाल्मीकि अस्पताल में पिछले 20 दिनों में डिप्थीरिया से पीड़ित 20 बच्चों की मौत हुई है। डिप्थीरिया से पीड़ित बच्चों की मौत का कारण कुछ और नहीं बल्कि साल दर साल अस्पतालों में सुविधाओं की भारी कमी है। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर पिछले कुछ वर्षों में निजी अस्पतालों को बढ़ावा दिया गया है। इन निजी स्वास्थ्य संस्थानों की फीस इतनी ज्यादा है कि गरीब आदमी यहाँ अपना इलाज नहीं करा सकता। इसके बाद आम इनसान के पास एक ही रास्ता बचता है, वह है सरकारी अस्पताल। लेकिन सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी खराब कि यहाँ इजाल के बजाय रोग मिलता है। यहाँ दवाइयों, बिस्तरों, सफाई और उपकरणों की भारी कमी होती है।

भारत के अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं में कमी के चलते हर साल 8 लाख 38 हजार लोग असामयिक मौत के शिकार हो जाते हैं। यह संख्या 1994 के रवांडा नरसंहार में मारे गये कुल लोगों से अधिक है। जबकि खराब इलाज के चलते हर साल 16 लाख लोग असामयिक मौत के शिकार होते हैं।

जनसत्ता अखबार की एक खबर के अनुसार, दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में 7 हजार मरीजों के लिए सिर्फ 960 बिस्तर, 10 आपरेशन थिएटर और 8 आईसीयू बेड हैं। एक्सरे और अल्ट्रा साउंड जैसी जाँच के लिए मरीजों को हफ्तों तक का इन्तजार करना पड़ता है। यहाँ मरीजों को दिये जाने वाले वैक्सीन और इंजेक्शन जरूरत के समय उपलब्ध नहीं होते। ग्लूकोस ट्यूब की कमी के चलते मरीज एक्स्पायर ग्लूकोस ट्यूब में अपने सैंपल देने को मजबूर हैं। इस अस्पताल के कोने–कोने में गन्दगी फैली मिली है। मरीजों को लाने–ले जाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली स्ट्रेचर और व्हीलचेयर भी टूटी पड़ी हैं। कमाल की बात यह कि इसके बावजूद इन अस्पतालों में इलाज के लिए बहुत मुश्किल से नम्बर आता है।

नवभारत टाइम्स की एक खबर के अनुसार दिलशाद गार्डन के स्वामी दयानन्द अस्पताल की जिस बिल्डिंग में ऑपरेशन हो रहा था उसकी हालत एकदम जर्जर थी। वहाँ आर्थाे डिपार्टमेन्ट (हड्डी) के मरीजों को 2 से 3 महीने बाद का समय दे दिया जाता है। जबकि ऐसे मरीजों का इलाज तुरन्त होना चाहिए। अस्पताल बिल्डिंग के अन्दर कुत्ते घूमते रहते है। खाना भी साफ–सफाई से नहीं बनाया जाता और शौचालय नाकाबिले इस्तेमाल हैं जो बीमारी को और बढ़ावा देते है। महिलाओं को प्रसव के दौरान भी कोई अच्छा इलाज नहीं दिया जाता, जिससे कितनी ही महिलाओं को अपनी जान गँवानी पड़ती है।

इससे पता चलता है की सरकार लोगों की स्वास्थ्य और सुरक्षा को लेकर बिल्कुल भी चिन्तित नहीं है। पिछड़े, निर्धन और साधनहीन  देश भी इस मामले में हमारे देश से बेहतर स्थिति में हैं। हम बांग्लादेश, नेपाल, भूटान जैसे छोटे देशों से भी बेकार स्थिति में है।

जो सरकार अपने निकम्मेपन से लाखों लोगों की जान ले ले उससे बड़ा हत्यारा कौन होगा।

 ––कोमल

 
 

 

 

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