बैंक कर्मियों की आत्महत्या : जिम्मेदार कौन?
बैंक कर्मियों का आरोप है कि काम के बढ़ते दबाव के कारण वे मानसिक दबाव महसूस कर रहे हैं जिससे वे अपनी निजि जिन्दगी में न खुश रह पा रहे हैं न अपने लोगों से ठीक से बात ही कर पा रहे हैं। उन पर लोन की रिकवरी को लेकर लगातार दबाव बनाया जाता है और एक लक्ष्य दिया जाता है जिसके अन्तर्गत उन्हें अपने बैंक शाखा में एनपीए(गैर निष्पादित सम्पत्ति) की तरफ जा रहे खातों को सुचारू रूप से नियमित करना और खाताधारकों से किसी तरह भी पैसे वसूल करना होता है। अगर वे इस लक्ष्य को पूरा करने में सफल नहीं होते हैं तो उन्हे नौकरी को लेकर डराया और जलील किया जाता है जिसकी वजह से वे अवसाद का शिकार हो जाते हैं। बैंक कर्मचारियों के संगठन नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक वर्कर्स की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में लगभग 103 बैंक अधिकारियों और कर्मचारियों ने आत्महत्या की है। अगले ही वर्ष 2016 में पुणे में सिन्डिकेट बैंक के राजगुरू नगर की शाखा के प्रबंधक ने काम के दबाव के कारण आत्महत्या की। इसी वर्ष गुजरात में एसबीआई थरठ शाखा के प्रेमशंकर प्रजापती नाम के एक कैशीयर ने पंखे से लटककर अपनी जान दे दी। इस घटना के बाद प्रेमशंकर की पत्नी ने बताया कि जब वे बैंक से घर आते तो काम को लेकर तनाव में रहते थे। वह बताते थे कि यहाँ काम का बहुत दबाव है। वह तनाव में रहने के कारण ज्यादा बात नहीं करते थे।
प्राप्त आँकड़ों के अनुसार, 2018 में 29 मई को सिन्डिकेट बैंक के एसआर कॉलेज के शाखा प्रबन्धक, 12 जून को एसबीआई के शाखा प्रबन्धक सुरेश राणा, 7 जूलाई को विशाखपत्तनम में ऑफिसर गंगा भवानी, 14 जूलाई को एसबीआई पार्वतीपूरम शाखा के प्रबन्धक अचु आर चन्द्रन, 15 सितम्बर को एसबीआई टीटागढ़ में ऑफिसर रतनदीप नावक, 23 सितम्बर को बीओआई गाँधीनगर के क्षेत्रीय प्रबन्धक अखिलेश जलोटा, 1 अक्टूबर को इन्डियन बैंक में शाखा प्रबन्धक ताडों जिबायिग, 2 अक्टूबर को प्रोदात्तूर में कॉरपोरेशन बैंक में ऑफिसर सन्दीप रेड्डी इत्यादि ने भी अपनी जान दे दी या यूँ कहें कि इस व्यवस्था ने इन्हें लील लिया।
सभी के सुसाइड नोट में मुख्य रूप से एक–सी घटना का जिक्र किया गया है कि वे बैंक के काम को लेकर दबाव महसूस कर रहे हैं। इनमें से एक कर्मी ने अपनी पत्नी से कहा कि लोन की रिकवरी मेरे जीवन की खुशी को खा रहा है। ऐसे बयान रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। क्या कोई रोजगार इसलिए करता है कि वह अपनी खुशियों का गला घोंट दे और खुद को एक नीरस और अवसादग्रस्त जीवन में ढाल ले? आखिर क्यों आत्महत्या के मामले दिन–प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं?
बैंक कर्मी अक्सर शिकायत करते हैं कि उन्हंे बैंक में देर तक रोका जाता है और दिन–भर के कामों का पूर्ण रूप से निपटारा करने के बाद ही घर जाने की अनुमति मिलती है। उनका यह भी कहना है कि उनसे 10.16 घण्टे रोजाना काम लिया जाता है। उन्हें बैंक कर्मी के तौर पर काम करने के अलावा सरकार की तमाम योजनाएँ भी लागू करना हैं। इन योजनाओं में अटल पेंशन योजना, मुद्रा बैंक योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, इत्यादि है जिसे लागू करने के लिए बैंक कर्मीयों ने अतिरिक्त कर्मचारियों की माँग की। लेकिन अब तक इस पर कोई सुनवाई नहीं हुई, जिसके कारण उन पर काम का अतिरिक्त भार बढ़ गया। बैंकों के विलय के कारण खातों को, एटीएम मशीनों के एकीकरण को लेकर पैदा हुए अतिरिक्त कामों का भार भी इनके ऊपर ही आ गया। जबकि इन अतिरिक्त कामों का उन्हें कोई भुगतान नहीं दिया गया।
बैंक कर्मियों पर अक्सर यह आरोप लगाये जाते हैं कि बैंक उनकी वजह से घाटे में चल रहे हैं जबकि घाटे की मुख्य वजह बड़े कारोबारियों को कर्ज दिया जाना और उनका वापस न आना है। 2013–15 के दौरान कारोबारियों द्वारा बैंक से लिया गया 1.14 लाख करोड़ रुपये बट्टा खाते में डाल दिये गये हैं। कारोबारियों द्वारा बैंकों के हजारों करोड़ रुपये हजम करने के बावजूद भी ऐसे अनेकों अन्य कारोबारियों को कर्ज देने के लिए बैंको के नियमों में नरमी बरतने का कार्य किया जा रहा है।
ऐसी सम्भावना है बैंकों के विलय के कारण बैंक कर्मियों की छँटनी की जायेगी। विलय के बाद वर्ष 2018 में 2.25 लाख करोड़ रुपये का बैड लोन बढ़ गया है। इस बढ़ते बैड लोन के लिए बैंक कर्मी जिम्मेदार हैं या बैंकों को संचालित करने वाली संस्था? लेकिन इसका ठिकरा भी फोड़ा जाता है –– बैंककर्मी और शाखा प्रबन्धकों पर।
इस तरह के दबाव में कार्य करना एक स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को भी अवसाद–ग्रस्त कर सकता है। यह किस तरह की व्यवस्था है जो किसी के सामने ऐसी परिस्थितियाँ खड़ी कर देती है जिससे वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है? किसी सरकारी पद पर स्थायी तौर पर कार्यरत व्यक्ति यदि अपनी नौकरी से परेशान होकर आत्महत्या कर लेता है तो यह बात हमें सोचने के लिए मजबूर कर देती है। लेकिन क्यों व्यवस्था संचालकों को ये घृणित और अमानवीय घटनाएँ और इनके कारण दिखायी नहीं देते बल्कि इसके उलट हम यह पाते हैं कि इन घटनाओं का कारण इस व्यवस्था के अन्दर ही निहित है और दिन–प्रतिदिन ये घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। इस तरह की घटनाओं से निजात पाने का बस एक ही उपाय है कि इस पूरी व्यवस्था को ही बदल दिया जाये जो ऐसी जघन्य घटनाओं को पैदा करती है और बढ़ावा देती है।
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