बजबजाता समाज और सिनेमा की खिड़की ‘आर्टिकल 15’
ट्रेलर रिलीज के साथ ही रा–1, तुम–बिन, गुलाबी गैंग और मुल्क जैसी सफल फिल्मों के डाइरेक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15 पर जो बहसबाजी शुरू हो गयी थी वह अब रिलीज के बाद कहीं समर्थन और कहीं फिल्म के उग्र विरोध में विकसित हो चुकी है। फिल्म को बदायूं में दो नाबालिग दलित लड़कियों को मारकर लटकाये जाने की घटना से जोड़कर देखा जा रहा है। हालाँकि उस घटना और फिल्म की कहानी में खास साम्य नहीं है।
आर्टिकल 15 को लेकर दलित बुद्धिजीवियों की आपत्ति है कि ब्राह्मण को दलितों का तारणहार क्यों दिखाया गया? बकौल उनके यह अव्यवहारिक और लगभग असम्भव बात है। इस बहाने बात सिनेमा में दलित लेखकों, अभिनेताओं, कलाकारों और निर्माता निर्देशकों की कमी तक पहुँचती है।
दूसरी ओर ब्राह्मणों के कतिपय संगठन और करणी सेना आदि ब्राह्मण और हिन्दू अस्मिता वगैरह का झण्डा लेकर फिल्म पर ‘पद्मावत’ नुमा अफरातफरी फैलाने की जुगत में लगे हुये हैं। अनेक स्थानों पर फिल्म का प्रदर्शन विरोध के कारण रोका गया है।
दलित बुद्धिजीवियों की आपत्ति पर बात करें तो आर्टिकल 15 के मुख्य किरदार अयान रंजन को आप केवल ब्राह्मण होने तक सीमित करके नहीं देख सकते। वह उच्च वर्ग का, अंग्रेजीपरस्त, विदेश में पढ़ा–लिखा सामाजिक सरोकार विहीन और भारतीय होने के गर्व से लबरेज वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके लिए रूरल इंडिया ‘सो ब्यूटीफुल’ है।
अयान रंजन आईपीएस अधिकारी की हैसियत से उत्तर प्रदेश आता है। जहाँ मजदूरी में 3 रुपये की बढ़ोत्तरी की माँग करने पर 3 नाबालिग लड़कियों का गैंग रेप होता है, 2 को मारकर पेड़ से लटका दिया जाता है। पुलिस वाले मानते हैं कि ‘इन लोगों’ में ये आम घटना है, क्योंकि लड़कियाँ दलित हैं और यहाँ पुलिस का सरकारी ड्राईवर तक दलित की दुकान से मिनरल वॉटर नहीं खरीदता।
अयान अपने मातहत पुलिस वालों की बात पर यकीन करता है कि लड़कियाँ समलैंगिक थीं इसलिए उनके बाप ने ही उन्हें मार कर लटका दिये थे। केस बन्द होने की कगार पर है। लेकिन हीरो की एक्टिविस्ट प्रेमिका उसके जमीर में जमीर को उकसा देती है। तब इस अयान का रियल इंडिया से सामना होता है।
अयान इस सवाल तक पहुँचता है कि अगर आप ताजमहल टाइप प्रतीकों और जीडीपी के बढ़ने भर से भारत पर गर्व करते हैं तो क्या आप नंगे बदन गटर में घुस कर मल साफ करने वाली दुनिया को भारत मानते ही नहीं? गटर में घुसकर सफाई करते आदमी का एक दृश्य है, जिसके बैकग्राउंड में वंदेमातरम बजता है। ये अयान के रियलाइजेशन की कहानी है।
यानी फिल्म का मुख्य किरदार ब्राह्मण क्यों हो, दलित क्यों नहीं? इस कहानी के साथ ये कोई जायज सवाल नहीं रह जाता। वैसे भी फिल्म में नायक (हीरो) निषाद और मुख्य पात्र (प्रोटागोनिस्ट) अयान अलग–अलग हैं।
दलितों का अपना नेतृत्व उन्हें वोट बैंक बनाकर मनमाने गठबन्धन कर सत्ता की मलाई खा रहा है और जमीनी स्तर पर उनके हालात बदतर बने हुये हैं। इस नेतृत्व से मोहभंग से फिल्म में चन्द्रशेखर–रावण जैसा एक विद्रोही चरित्र निषाद उभरता है, जो फिल्म का नायक या हीरो है, जिस पर रासुका लगायी गयी है। खुद दलित नेता जिसकी जान के दुश्मन हैं। निषाद की भूमिका जीशान अय्यूब ने खूब निभायी है।
अपनी बहन के लिए न्याय माँग रही गौरा का चरित्र और उसमें सयानी गुप्ता का शानदार अभिनय फिल्म में जान फूँकते हैं, इस एक्ट्रेस ने ‘इनसाइड एज’ में ही इससे पहले /यान खींचा था।
आयुष्मान खुराना हल्की फुलकी फिल्मों से अलग नये इंटेन्स अवतार में दिख रहे हैं। मनोज पाहवा का निभाया हुआ पुलिस ऑफिसर का नेगेटिव रोल मेरे खयाल में अब तक की बेस्ट परफोर्मेंस है।
आकाश दभाड़े ने आयुष्मान खुराना के साथ यूपीएससी की तैयारी करने और नाकाम रहने वाले दोस्त के किरदार में छू लेने वाला अभिनय किया है।
फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष गौरव सोलंकी की लिखी हुई पटकथा है। हालाँकि कांस्टेबल की बहन का आईपीएस के घर कुक होना, मिसफिट लगता है, छोटे सरकारी नौकर की भी इतनी बुरी हालत तो नहीं होते, यहाँ कुछ क्रिएटिव लिबर्टी ले ली गयी है। डाइलॉग सटीक और चुटीले हैं, मसलन, “हमें हीरो नहीं चाहिए बस ऐसे लोग चाहिए जो हीरो का इन्तजार न करें” “ज्यादा से ज्यादा क्या होगा आप मर जाएँगे, मर तो आप काफी पहले ही चुके हैं, बस आपको ये बात पता नहीं है।”
इवान मुलीगन की सिनेमेटोग्राफी असरदार है, धुन्ध में पेड़ से लटके हुए दो लड़कियों के शव वाला फ्रेम दर फ्रेम सीक्वेंस देखने लायक बना है।
अनुभव सिन्हा की मुल्क के बाद सामाजिक मुद्दे पर ये दूसरी शानदार फिल्म है। बकौल निर्देशक अनुराग कश्यप “मुल्क अच्छी फिल्म थी और आर्टिकल 15 अच्छा सिनेमा है”। एक डाइरेक्टर के लिए ये एक बड़ा कॉम्प्लिमेंट है।
कुल मिलाकर खालिस मसाला फिल्मों से सामाजिक सरोकार वाली फिल्मों तक आ पहुँचे बॉलीवुड को एक नयी दिशा देती शानदार और साहसिक फिल्म है।