फरवरी 2020, अंक 34 में प्रकाशित

सार्वजनिक कम्पनियों का विनिवेशीकरण या नीलामी

केन्द्र सरकार जिन 5 बड़ी कम्पनियों के हिस्से को बेचने की योजना बना रही है, उनमें बीपीसीएल, एससीआई, कॉनकोर, एनईईपीसीओ (नीपको) और टीएचडीसीआई शामिल हैं। इनमें से नीपको और टीएचडीसीआई की पूरी हिस्सेदारी बेचने की योजना बनायी है, जिसके लिए केन्द्र सरकार के विनिवेश विभाग ने 12 विज्ञापन जारी किये हैं। इन विज्ञापनों के जरिये परिसम्पत्ति का निर्धारण करनेवाले की नियुक्ति और हिस्सा बेचने की बोलियाँ मँगायी गयी हैं। अगर कम्पनियों में सरकारी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम होती है तो ये कम्पनियाँ कैग और सीवीसी के दायरे से बाहर हो जाएँगी। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने बताया है कि केन्द्र सरकार के पास बिक्री के लिए 46 कम्पनियों की एक सूची है और कैबिनेट ने इनमें 24 को बेचने की स्वीकृति दे दी है। दरअसल भारत सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ते–बढ़ते 6.45 लाख करोड़़ रुपये को पार कर गया है। उसे ही पूरा करने के लिए सरकार ने इस साल 1.05 लाख करोड़़ रुपये विनिवेश के जरिये जुटाने का लक्ष्य रखा है। यह किसी से छिपी बात नहीं है कि सरकार ने सार्वजनिक कम्पनियों को निजी हाथों में बेचने को ही ‘विनिवेशीकरण’ का लुभावना नाम दिया है।
केन्द्र सरकार की इन कम्पनियों में अलग–अलग हिस्सेदारी है। सरकार ने दर्जनों कम्पनियों में अपनी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम करने की योजना बनायी है। कण्टेनर कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (कॉनकोर) में सरकार की हिस्सेदारी 54.8 प्रतिशत है, इसमें से वह 30.8 प्रतिशत को बेच देगी। टिहरी हाइड्रो डेवेलपमेण्ट कॉर्पारेशन इण्डिया लिमिटेड (टीएचडीसीआई) में 75 प्रतिशत केन्द्र सरकार और 25 प्रतिशत उत्तर प्रदेश सरकार की हिस्सेदारी है। निमुलीगढ़ रिफाइनरी को छोड़़कर सरकार की भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेट लिमिटेड (बीपीसीएल) में सरकार अपनी कुल 53.29 प्रतिशत हिस्सेदारी और शिपिंग कॉर्पारेशन ऑफ इण्डिया (एससीआई) की अपनी पूरी 63.75 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने को तैयार है। सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली कम्पनी एनटीपीसी के निदेशक मण्डल ने नीपको में भारत सरकार की पूरी 100 प्रतिशत हिस्सेदारी और टीएचडीसी में 74.5 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने की स्वीकृति दे दी। 
एयर इण्डिया को बेचने के लिए सरकार उतावली है। लेकिन उसे कोई खरीदने के लिए तैयार नहीं दिख रहा है। पहले सरकार इसमें 24 प्रतिशत हिस्सेदारी अपने पास रखना चाहती थी लेकिन अब सरकार इसे पूरी तरह बेचने की घोषणा कर चुकी है। इसके बावजूद कोई ग्राहक नजदीक नहीं आ रहा है। इस कम्पनी पर लगभग 58 हजार करोड़़ रुपये का कर्ज है। इस मामले में सरकार की हताशा इसी बात से जाहिर हो जाती है कि पिछले साल नवम्बर में नागर विमानन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने राज्यसभा में यह बयान देकर हंगामा मचा दिया था कि अगर एयर इण्डिया का निजीकरण नहीं हो पाया, तो उसे बन्द कर देना पड़ेगा। विमानन उद्योग के कर्मचारी गिल्ड ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उनके इस बयान को अत्यधिक नुकसानदेह बताया। इस साल की जनवरी के तीसरे हफ्ते केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि अगर वह मंत्री नहीं होते तो एयर इण्डिया के लिए बोली जरूर लगाते। उन्होंने इस कम्पनी को सोने की खान बताया। लेकिन उसके बाद भी निवेशक मेहरबान होते नहीं दिख रहे हैं। 
कम्पनियों को बेचने के लिए क्या प्रक्रिया अपनायी जा रही है? 
सरकार के अनुसार कम्पनियों की हिस्सेदारी एक साथ नहीं बेची जायेगी बल्कि अलग–अलग किस्तों में बेचने की योजना है। सरकार का तात्कालिक उद्देश्य यह है कि विनिवेश के जरिये 1.05 लाख करोड़़ रुपये जुटाये जायें। सरकार ने 2019–20 की पहली तिमाही में 2357.10 करोड़़ रुपये जुटाये हैं। सरकार को चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से अब तक 12995.46 लाख करोड़़ रुपये प्राप्त हुए हैं, जिसमें आईआरसीटीसी के आईपीओ के 637.97 करोड़़ रुपये भी शामिल हैं। 
कम्पनियों की हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम करने के लिए सरकार कम्पनी कानून 241 में संशोधन करने की बात कर रही है। इससे इनकी विनिवेश की सीमा को बढ़ाने का रास्ता आसान हो जायेगा। सरकार का प्राथमिक उद्देश्य 3–4 साल में निजीकरण को और तेजी से बढ़ावा देना है। यह भी कहा गया है कि जो कम्पनी बेचने योग्य नहीं है उसे भी बेचने का प्रयास किया जायेगा। 
किस क्षेत्र की कम्पनियों को प्राथमिकता के तौर पर बेचे जाने की योजना है?
प्राथमिकता के तौर पर सरकार र्इंधन से सम्बन्धित कारोबार करने वाली कम्पनियों को बेचने की योजना बना रही है, जिसके अन्तर्गत पेट्रोलियम र्इंधन का खुदरा कारोबार करने वाली देश की दूसरी सबसे बड़ी कम्पनी भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) है। वह बीपीसीएल को देशी–विदेशी कम्पनियों के हाथों बेचने का विचार बना रही है। अगर ऐसा करने में सरकार कामयाब होती है, एक बहुमूल्य कम्पनी देश की झोली से बाहर चली जायेगी। बाजपेयी सरकार के समय भी एचपीसीएएल में सरकार की अपनी 51.1 प्रतिशत हिस्सेदारी में से 34.1 प्रतिशत हिस्सा बेचने की तैयारी थी, लेकिन सरकार सफल नहीं हो पायी थी। 
हाल ही में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने नीलांचल इस्पात लिमिटेड में एचएमटीसी सहित छ: सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी बेचने को हरी झण्डी दिखा दी है। एचएमटीसी में 49 प्रतिशत, ओड़ीशा माइनिंग कॉरपोरेशन में 20 प्रतिशत, ओड़ीसा इन्वेस्टमेण्ट कॉरपोरेशन में 12 प्रतिशत, एनएमडीसी में 10 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने का फैसला किया गया है। इन सब को अंजाम देने के लिए केबिनेट ने अध्यादेश को मंजूरी दी है। 
इनडाइरेक्ट होल्डिंग एक बहाना है
संसद और आम जनता के बीच विरोध से बचने के लिए सरकार कहती है कि सार्वजनिक कम्पनियों में डाइरेक्ट होल्डिंग कम करके इनडाइरेक्ट होल्डिंग बढ़ाएगी। लेकिन यह एक बहाना है। सबसे पहले, डाइरेक्ट और इनडाइरेक्ट होल्डिंग का एक मामला देखते हैं। इण्डियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड (आईओसीएल) में सरकार की सीधे (डाइरेक्ट होल्डिंग) 51.5 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इसके अलावा इस कम्पनी में एलआईसी की हिस्सेदारी 6.5 प्रतिशत है, जो पूरी तरह सरकारी कम्पनी है। इसका मतलब आईओसीएल में सरकार की 6.5 प्रतिशत इनडाइरेक्ट होल्डिंग है। सरकार कह रही है कि वह कम्पनियों में इनडाइरेक्ट होल्डिंग बढ़ाएगी। अपने एक विभाग से पैसा निकालकर दूसरे विभाग में लगाने से घाटे में चल रहे विभाग को राहत तो मिल सकती है, लेकिन इससे सरकार के कुल घाटे में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ेगा और न ही घाटे में चल रही कम्पनी में कोई सुधार होगा। यह बात सरकार जानती है। इसलिए इनडाइरेक्ट होल्डिंग की आड़ में वह सार्वजनिक कम्पनियों को निजी हाथों में बेचने की पूरी तैयारी कर चुकी है।
कम्पनियों को बेचने के पीछे सरकार की क्या मंशा है?
सरकार की कारगुजारियों से स्पष्ट हो जाता है कि उसका मकसद निजीकरण को बढ़ावा देना है। जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी वह सार्वजनिक उपक्रमों को निजी कम्पनियों के हाथों में देने का काम मुस्तैदी से कर रही है। सरकार का बार–बार यही रोना है कि पीएसयू से सम्बन्धित उपक्रम घाटे में चल रहे हैं, जिसके लिए सरकार को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लेकिन न केवल घाटेवाली, बल्कि भरपूर मुनाफा देनेवाली नवरत्न कम्पनियों को बेचने की तैयारी चल रही है। स्पष्ट है कि सरकार अपनी असफलता को छुपाने के लिए लगातार नुकसान होने का हवाला देती रहती है। हम जानते हैं कि इन सार्वजनिक कम्पनियों को स्थापित करने के लिए देश की बहुसंख्यक जनता का कितना खून–पसीना लगा है। जनता की कमाई से स्थापित इन कम्पनियों को कौड़ियों के दाम बेचते हुए सरकार को जरा भी शर्म नहीं आ रही। 
सरकार ने देशी–विदेशी पूँजीपतियों के साथ मिलकर देश को फिर से तंगहाली में पहुँचा दिया है। सरकारी घाटा बढ़ते हुए आसमान छू रहा है। यहाँ तक कि सरकारी खर्च चलाने के लिए पैसे नहीं हैं। यह सब सरकारी खजाने की लूट के चलते हुआ है, लेकिन सरकार उस पर लगाम लगाने और इस समस्या का समाधान करने के बजाय सार्वजनिक कम्पनियों को बेचने (निजीकरण) पर ही आमादा है, जबकि इसके जरिये वह निजी पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने का काम कर रही है। इस तरह देश की सम्पदा को कौड़ियों के मोल कुछ मुट्ठी भर लोगों को बेच देना चाहती है। इसके चलते इनमें काम करने वाले कर्मचारियों की रोजगार सुरक्षा खतरे में है। वे स्वाभिमान की जिन्दगी छोड़कर उसी तरह पूँजीपतियों के गुलाम बन जायेंगे, जैसा कि निजी संस्थाओं और कम्पनियों के कामगारों के साथ पहले से ही हो रहा है। यह आर्थिक गुलामी ही आज के दौर की नयी गुलामी है। पुरानी गुलामी से फर्क बस इतना है कि तब गोरे विदेशी पूँजीपति राज करते थे और अब देशी–विदेशी पूँजीपति मिलकर राज कर रहे हैं। 
सरकार के इन कारनामों से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की दिशा में कार्य नहीं कर रही है, बल्कि चन्द ऊँचे घरानों के लिए काम कर रही है। सरकारी कम्पनियों का निजीकरण जितनी तेजी से बढ़ रहा है उतनी तेजी से देश में बेरोजगारी की समस्या भी बढ़ रही है। एक तरफ अस्थायी रोजगार की समस्या से लोग जूझ रहे हैं, वहीं सरकारी कम्पनियों की बिक्री से स्थायी रोजगार वाले थोड़े से मेहनतकश लोगों पर भी खतरा मण्डरा रहा है। 
1991 से उदारीकरण की नीतियों के चलते सार्वजनिक कम्पनियों को बेचने का सिलसिला शुरू हो गया था। बाद में बाजपेयी सरकार ने सार्वजनिक कम्पनियों को बेचने के लिए ‘विनिवेश विभाग’ बना दिया था, जिसका असली अर्थ है–– सार्वजनिक कम्पनियों की नीलामी का विभाग। 2016 में लोगों के विरोध के चलते मोदी सरकार ने इस विभाग का नाम बदलकर निवेश और सार्वजनिक सम्पत्ति प्रबन्धन विभाग या ‘डिपम’ कर दिया। लेकिन इसका भी काम वही है, यानी सार्वजनिक कम्पनियों को बेचने वाला विभाग। अजीब बात है कि सरकार हर बात पर पिछले 70 सालों में कुछ नहीं हुआ या सब गलत हुआ का राग अलापती है। सवाल यह है कि आजादी के बाद 73 सालों में खड़ी की गयी इन सार्वजनिक सम्पत्तियों की नीलामी करके सरकार कब तक अपने घाटे की पूर्ति करती रहेगी?
 

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