मई 2024, अंक 45 में प्रकाशित

राज्य बनाने के लिए लद्दाख की जनता का आन्दोलन

26 मार्च 2024 को जब तापमान शून्य से 10 डिग्री नीचे था तब लेह में साढ़े तीन सौ से अधिक लोग सोनम वांगचुक के साथ खुले असमान के नीचे भूखे सोये। इस आन्दोलन में बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएँ, नौजवान, बौद्ध भिक्षु सहित सभी धर्मों के लद्दाखी लोग शामिल हुए। उन्होंने इस भूख हड़ताल का नाम क्लाइमेट फास्ट रखा है। वे लद्दाख को एक राज्य बनाने और पूर्वाेत्तर राज्यों की तरह संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी दर्जा देने की माँग कर रहे हैं। इनके आन्दोलन का उद्देश्य लद्दाख को भविष्य की ऐसी तबाहियों से बचाना है जो पिछले कई सालों से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और सिक्किम जैसे तमाम हिमालयी क्षेत्रों को लगातार अपनी चपेट में ले रहे हैं। लेकिन 21 दिन भूख हड़ताल के बावजूद केन्द्र सरकार ने उनकी माँगों पर कोई ध्यान नहीं दिया।

लद्दाख की जनता सिंधु, सुरु, श्योक, नुब्रा और लद्दाख की अन्य नदियों के लिए आवाज उठा रही है। वे सियाचिन ग्लेशियर, त्सो मोरीरी और पैंगोंग त्सो झीलों, फू या ड्रोग चारागाह, पश्मीना नस्ल की बकरियों, लद्दाखी संस्कृति और नीली आँखों वाले ड्रोकपा लोगों के जनजाति समुदाय को उन लुटेरों से बचाना चाहते हैं जिनकी गिद्ध दृष्टि देश की सभी प्राकृतिक संसाधनों पर रहती है।

बड़े–बड़े खोखले वादों का लबादा ओढ़े मोदी सरकार ने 2019 के संसदीय चुनाव के अपने घोषणापत्र में लद्दाख को छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा की गारण्टी देने का वादा किया था। साथ ही हिल काउंसिल के स्थानीय चुनावों के घोषणा पत्र में भी लद्दाख को छठी अनुसूची का दर्जा देने को प्राथमिकता में रखा था। लेकिन इन सभी चुनावी वादों के बाद सन्नाटा छा गया। जिस किसी ने भी यह मुद्दा उठाया, उसे तरह–तरह के हथकण्डे अपनाकर चुप करा दिया गया। इसके साथ ही स्वायत्त पहाड़ी परिषदों के अधिकारों को खत्म करके उनको कमजोर कर दिया गया ताकि वे इस मुद्दे को न उठा सकें।

लद्दाख की आबादी का 97 प्रतिशत से अधिक हिस्सा जनजातीय है। संविधान की छठी अनुसूची में शामिल होने के लिए 50 फीसदी जनजातीय आबादी होनी चाहिए। इसमें शामिल होने के बाद कुछ हद तक फैसले लेने की आजादी होती है, जैसे–चुने हुए प्रतिनिधियों की परिषदें, जहाँ मूलनिवासी आदिवासियों की छोटी–छोटी संसदें होती हैं। वे यह फैसला ले सकती हैं कि लद्दाख के पहाड़ों का प्रबंधन कैसे किया जाना चाहिए। लद्दाखी जानते हैं कि यहाँ के संवेदनशील पर्यावरण की रक्षा कैसे करनी है। हमेशा से ही वे आज के लिए नहीं, बल्कि अगली पीढ़ियों के बारे में सोचते हैं। लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का भी समर्थन मिला है, जबकि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद लद्दाख को केन्द्र सरकार के लेफ्टिनेंट गवर्नर और नौकरशाहों द्वारा एक उपनिवेश की तरह शासित किया जा रहा है।

2019 में लद्दाख को केन्द्र शासित प्रदेश बनाने के बाद यहाँ के बेहद संवेदनशील और नाजुक पर्यावरण को खरीद–बिक्री के लिए बाजार में ला दिया गया। केन्द्र सरकार ने यहाँ कई नयी परियोजनाओं को मंजूरी दी है। इन परियोजनाओं का ठेका बड़ी–बड़ी खनन कम्पनियों और बिजली कम्पनियों के हवाले है। जोजिला सुरंग परियोजना जो एशिया की सबसे बड़ी सड़क सुरंग परियोजना है, उसका ठेका मेघा इंजीनियरिंग एण्ड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड को दिया गया। ये वही कम्पनी है जिसने भाजपा को 584 करोड़ रुपये का चुनावी चन्दा इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये दिया। इसी तरह 2020–2021 में दस से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाओं की मंजूरी दी गयी। लद्दाख के एक बेहद संवेदनशील इलाके चांगथांग में बीस हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर मेगा सोलर प्लांट की मंजूरी दी गयी। हाल ही में प्रस्तावित लद्दाख की नयी औद्योगिक भूमि आवंटन नीति में यहाँ के स्थानीय स्वायत्त परिषदों की ताकत को छीन लिया गया। लद्दाख का भविष्य विकास के नाम पर विनाश की ओर बढ़ रहा है। बड़े पैमाने पर पर्यटन, जल विद्युत और सौर ऊर्जा के नाम पर इसके जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों पर हमला किया जा रहा है।

लद्दाख बर्फीला बंजर रेगिस्तान है यहाँ पानी की बेहद कमी है। लोग पीने, सिंचाई और ऊर्जा उत्पादन के लिए ग्लेशियरों के पिघलने पर निर्भर रहते हैं। छोटे–बड़े झरने जो ग्लेशियरों से निकलते हैं वे पहाड़ों के ऊपर ग्लेशियरों के पीछे हटने के कारण सूखते जा रहे हैं। वहीं ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर झीलों का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है। केन्द्र सरकार द्वारा यहाँ बनायी जा रही बड़ी–बड़ी जल विद्युत परियोजनाएँ इस समस्या को विकराल रूप से बढ़ाने का काम करेंगी। यह वैसे ही भयावह आपदा का कारण बनेगा जैसा सिक्किम में पिछले साल ल्होनक ग्लेशियर झील के फटने से तीस्ता डैम में हुआ। इस तबाही ने सैकड़ों लोगों की जिन्दगियाँ निगल ली थी और हजारों आशियानों को मलबे का ढेर बना दिया था। इसी तरह उत्तराखण्ड के केदारनाथ, जोशीमठ और चमोली में आयी तबाही का मंजर भी हमारी आँखों से ओझल नहीं है।

पर्यटन के लिए हर साल यहाँ लाखों की भीड़ उमड़ रही है। लेह के एयरपोर्ट का विस्तार करके इसकी क्षमता को 20 लाख से अधिक यात्रियों तक पहुँचा दिया गया है। पिछले कुछ ही सालों में यहाँ होटलों की संख्या 250 से बढ़कर 1100 तक पहुँच गयी। साल 2022 की गर्मी में लेह में पर्यटकों की संख्या ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिये। केवल जून और जुलाई के महीने में लगभग 2–5 लाख से अधिक लोग यहाँ घूमने आये। यह संख्या लेह शहर की स्थानीय आबादी से लगभग आठ गुना और लेह जिले की आबादी से लगभग दोगुना है। जलवायु संकट के प्रति पहले से ही संवेदनशील इस शहर के लिए इतना अनियंत्रित पर्यटन बेहद घातक है। इसका तात्कालिक प्रभाव यहाँ के भूजल पर पड़ रहा है। आज लेह शहर जल संकट के कगार पर खड़ा है।

यह केवल लद्दाख का मामला नहीं है क्योंकि अगर लद्दाख जलेगा तो पूरे उत्तर भारत तक इसकी तपिश पहुँचेगी। आज जलवायु परिवर्तन की मार पर्यावरण पर कहर बनकर टूट पड़ी है जिसका खामियाजा हिमालयी क्षेत्र और उससे जुड़े मैदानी इलाकों की मेहनतकश जनता को भुगतना पड़ रहा है। दुनियाभर के पर्यावरणविदों की सबसे बड़ी चिन्ता हिमालय की लगातार बिगड़ती सेहत को लेकर है। लद्दाख से फैली एक चिंगारी ने देशभर की 67 से अधिक पर्यावरण संस्थाओं को एकजुट किया है जो हिमालयी राज्यों के भविष्य और पर्यावरण संकट की चिन्ताओं को लेकर एकजुट हुए हैं। इन संस्थाओं ने हिमालय को आपदाओं से बचाने के लिए ‘पीपुल फॉर हिमालय अभियान–2024’ चलाया है। आज हिमालय की पारिस्थितिकी से लगातार हो रहे छेड़छाड़ और पूँजीपतियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट के खिलाफ देश की जनता को एकजुट होना ही होगा। 

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