अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

कश्मीर निश्चित तौर पर बोलेगा

जम्मू–कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के बाद यह लेख अरुंधति रॉय ने न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लिखा था।

भारत ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी की 73वीं वर्षगांठ मना रहा है और राजधानी दिल्ली के ट्रैफिक भरे चैराहों पर चिथड़ों में लिपटे नन्हे बच्चे राष्ट्रीय ध्वज और कुछ अन्य स्मृति चिन्ह बेच रहे हैं, जिन पर लिखा है, ‘मेरा भारत महान’। ईमानदारी से कहें तो इस पल ऐसा कुछ महसूस नहीं हो रहा क्योंकि लग रहा है जैसे हमारी सरकार धूर्तता पर उतर आई है।
पिछले सप्ताह सरकार ने एकतरफा फैसला लेते हुए ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’, की उन मौलिक शर्तों को तार–तार कर दिया जिनके आधार पर जम्मू–कश्मीर की पूर्व रियासत भारत में शामिल हुई थी। इसकी तैयारी के लिए 4 अगस्त को पूरे कश्मीर को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया गया। सत्तर लाख कश्मीरी अपने घरों में बन्द कर दिये गये, इंटरनेट और टेलीफोन सेवाएं भी बन्द कर दी गयीं।
5 अगस्त को भारत के गृहमंत्री ने संसद में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त कर देने का प्रस्ताव रखा। यह अनुच्छेद ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’, में तय कानूनी दायित्वों को परिभाषित करता है। विपक्षी दल भी हाथ मलते रह गये। अगली शाम को जम्मू–कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019 को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया।
इस एक्ट के माध्यम से जम्मू–कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जा समाप्त हो गया जिसके तहत जम्मू–कश्मीर को अपना अलग संविधान और अलग झण्डा रखने का अधिकार था। इस एक्ट के अनुसार जम्मू–कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो केन्द्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया। पहला, जम्मू–कश्मीर जिसे केन्द्र सरकार द्वारा संचालित किया जायेगा, जिसके पास निर्वाचित विधानसभा तो होगी लेकिन उसके पास शक्तियाँ बहुत कम होंगी। दूसरा लद्दाख, इसे भी केन्द्र सरकार संचालित करेगी पर इसके पास अपनी विधानसभा नहीं होगी।
संसद में इस एक्ट के पारित होते ही, ब्रिटिश–परम्परा के अनुसार, मेज थपथपाकर इसका स्वागत किया गया। सदन में उपनिवेशवाद की बयार बह रही थी। हुक्मरान खुश हो रहे थे कि एक अक्खड़ उपनिवेश को, निसन्देह उसके अपने फायदे के लिए, आखिरकार शाही ताज के अधीन कर लिया गया है।
भारतीय नागरिक अब अपने इस नये अधिकार क्षेत्र में जमीन खरीद सकते हैं और वहाँ बस सकते हैं। इन नये प्रदेशों के दरवाजे व्यापार के लिए भी खुले हैं। देश के सबसे अमीर उद्योगपति– रिलायंस के मुकेश अम्बानी ने शीघ्र ही कई नयी घोषणाएं करने का वादा तक कर दिया है।
इस सबका असर लद्दाख और कश्मीर में स्थित हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी, विशाल ग्लेशियरों वाले भूखण्ड, अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित झीलों और वहाँ की पाँच मुख्य नदियों पर क्या होगा–– इसकी परवाह किसी को नहीं है।
प्रदेश के विशेष कानूनी दर्जे को खत्म करने से अनुच्छेद 35ए भी खत्म हो गया जिसके चलते वहाँ के निवासियों को वे हक और विशेषाधिकार प्राप्त थे जो उन्हें अपने प्रदेश का प्रबन्धक भी बनाते थे। इसलिए, यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ‘व्यापार के लिए दरवाजे खोल देने’ का अर्थ वहाँ इजराइल की तरह बसावट या तिब्बत की तरह आबादी के तबादले के लिए दरवाजे खोल देना भी हो सकता है।
कश्मीरियों का सबसे पुराना और असल डर यही रहा है। उनका सबसे डरावना ख्वाब कि उनकी हरी–भरी घाटी में एक अदद मकान की इच्छा रखने वाले विजयी भारतीयों का तूफान उन्हें बहाकर ले जायेगा, आसानी से सच भी हो सकता है।
जैसे ही इस एक्ट के पारित होने का समाचार प्रचारित हुआ, हर तरह के भारतीय राष्ट्रवादी झूम उठे। मुख्यधारा का मीडिया, ज्यादा तर इस निर्णय के समक्ष नतमस्तक दिखा। लोग गलियों में नाच रहे थे और इंटरनेट पर भयानक स्त्रीद्वेषी माहौल था।
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राज्य के विषम लिंगानुपात को सुधारने सम्बन्धी अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए मजाक किया, “हमारे धनखड़ जी कहते थे कि हम बिहार से लड़कियाँ लाएँगे। अब कहा जा रहा है कि कश्मीर भी खुला है, वहाँ से भी लड़कियाँ ला सकते हैं।”
इस तरह के असभ्य उत्सव के शोर–शराबे से कहीं ज्यादा गश्त लगाते सुरक्षाबलों से भरी और बैरिकेडों से बन्द गलियों और उनमें रहने वाले कैद और कांटेदार तारों से घिरे, करीब सत्तर लाख अपमानित कश्मीरी, जिन पर ड्रोन से लगातार चैकसी की जा रही है और जो बाहर की दुनिया से कोई सम्पर्क साध पाने की स्थिति में नहीं हैं, के सन्नाटे की आवाज आज सबसे ज्यादा बुलन्द है।
सूचना के इस युग में, कोई सरकार कितनी आसानी से एक पूरी आबादी को बाकी दुनिया से कैसे काट भी सकती हैय इससे पता लगता है कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं।
कश्मीर के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह ‘विभाजन’ के अधूरे कामों में से एक है। ‘विभाजन’– जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप के बीच में अत्यंत लापरवाही से एक लकीर खींच दी और यह मान लिया गया कि उन्होंने ‘सम्पूर्ण’ को विभाजित कर दिया है। सच यह है की ‘सम्पूर्ण’ जैसा कुछ था नहीं।
ब्रिटेन के अधीन भारत के अतिरिक्त ऐसे सैकड़ों आजाद रजवाड़े थे जिनसे अलग–अलग मोल–तोल किया गया कि वे किन शर्तों पर भारत या पाकिस्तान के साथ जाएँगे। जो रियासतें इसके लिए तैयार नहीं थीं, उनसे जबरदस्ती मनवा लिया गया।
एक और विभाजन और उसके दौरान हुई हिंसा ने उपमहाद्वीप को पीड़ा और कभी न भरने वाले जख्म दिये, वहीं दूसरी ओर उस दौर की हिंसा और बाद के सालों में भारत और पाकिस्तान में हुई हिंसा का, कई इलाकों के अनुकूलन की प्रक्रिया से वैसा ही वास्ता है जैसा विभाजन से।
राष्ट्रवाद के नाम पर अन्य प्रदेशों की इस सम्मिलन अथवा अनुकूलन परियोजना का सीधा–सीधा अर्थ यह है कि 1947 के पश्चात कोई भी साल ऐसा नहीं गया जब भारतीय सेना को भारत में ही ‘अपने लोगों’ के विरुद्ध तैनात न किया गया हो–– और यह सूची बहुत लम्बी है–– कश्मीर, मिजोरम, नगालैण्ड, मणिपुर, हैदराबाद, असम।
अनुकूलन की प्रक्रिया न सिर्फ अत्यंत जटिल और पीड़ादायी रही है बल्कि इसने हजारों जानें भी ली हैं। आज पूर्ववर्ती जम्मू–कश्मीर की सीमा के दोनों ओर जो हो रहा है वह अधकचरे अनुकूलन का नमूना है।
पिछले सप्ताह जो कुछ भारतीय संसद में हुआ वह इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ के अंतिम–संस्कार जैसा था। जटिल स्थितियों से उत्पन्न इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे पहले से ही भरोसा खो चुके हिन्दू डोगरा राजा महाराजा हरि सिंह ने। उनकी अस्थिर और खस्ताहाल रियासत भारत और पाकिस्तान की नयी सीमा के बीचोबीच फँस कर रह गयी थी।
इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन
1945 में महाराजा के खिलाफ हुई बगावत ने जोर पकड़ लिया था और विभाजन की आग ने इसे और भड़का दिया। पुंछ के पश्चिमी पर्वतीय जिले के बहुसंख्यक मुसलमान महाराजा की सेना और हिन्दू नागरिकों से भिड़ गये। और उधर दक्षिण स्थित जम्मू में महाराजा की सेना ने दूसरी रियासतों की फौज की मदद से मुसलमानों का कत्लेआम शुरू कर दिया।
इतिहासकारों और अन्य कई रिपोर्टों के अनुसार जम्मू और आसपास के शहरों की गलियों में 70,000 से 2,00,000 के बीच लोग मौत के घाट उतार दिये गये। जम्मू में हुए नरसंहार की खबर सुनकर उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रदेश के पर्वतों से उतरे पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर घाटी में आगजनी और लूटपाट से हाहाकार मचा दिया।
हरि सिंह कश्मीर से जम्मू दौड़े और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मदद के लिए गुहार लगाई। जिस दस्तावेज के तहत भारत की सेना कश्मीर में कानूनी रूप से दाखिल हो पाई, उसे ही ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है। स्थानीय लोगों की मदद से भारतीय सेना ने पाकिस्तानी कबायलियों को पीछे तो धकेल दिया, पर सिर्फ घाटी के मुहाने के पहाड़ों तक ही। और इस तरह पूर्व डोगरा राज्य भारत और पाकिस्तान में बँट गया।
‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ नाम के इस दस्तावेज की, जम्मू–कश्मीर के लोंगों के बीच, एक जनमत संग्रह के माध्यम से उनकी राय लेकर पुष्टि की जानी थी। जिस जनमत संग्रह का वादा किया गया था वह कभी पूरा नहीं हुआ। और इसी के साथ भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे अशिष्ट और खतरनाक राजनीतिक समस्या का जन्म हुआ।
तबसे बीते 72 साल में आई हर केन्द्र सरकार ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ की शर्तों के साथ तब तक खिलवाड़ किया जब तक यह सिर्फ दिखावे मात्र का नहीं रह गया। अब उस बचे–खुचे दिखावे को भी उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया है।
यहाँ तक आने में क्या जोड़–तोड़ हुए, उसका सार लिखने की कोशिश एक बेवकूफी ही होगी। सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि यह सब उतना ही जटिल और भयानक है, जितना 50 और 60 के दशक में अमरीका ने दक्षिणी वियतनाम में अपने कठपुतली शासकों के साथ खेला था।
चुनावी जोड़–तोड़ के लम्बे अध्याय के बाद 1987 में वो विभाजनकारी दौर आया, जब नयी दिल्ली ने नीचता की हद तक जाकर राज्य के चुनावों में बड़े स्तर पर धाँधली की। 1989 आते–आते आत्म–निर्णय की यह अहिंसक माँग पूरी तरह आजादी की एक लड़ाई में बदल गयी। हजारों लोग सड़कों पर उतर आये और एक के बाद एक कत्लेआम के शिकार होने लगे।
जल्द ही कश्मीर घाटी, पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित और हथियारों से लैस करवाये गये कश्मीरी आतंकी– जिनमें सीमा के दोनों ओर के कश्मीरी थे–– और विदेशी लड़ाकों से भर गयी, जिनका अधिकांश इलाके में कश्मीरी लोगों ने भी साथ दिया।
एक बार फिर कश्मीर पूरे उपमहाद्वीप पर छाये राजनीतिक बवण्डर में फँस गया–– एक तरफ पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आया इस्लाम का कट्टर रूप, जिससे कश्मीरी संस्कृति का कभी कोई वास्ता नहीं रहा था और दूसरी ओर भारत में धर्मांध हिन्दू राष्ट्रवाद अपने उभार पर था।
इस विद्रोह की पहली बलि चढ़ा, सदियों पुराना कश्मीरी मुसलमानों और स्थानीय तौर पर कश्मीरी पण्डित के नाम से जाना जाने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं का रिश्ता।
स्थानीय संगठन कश्मीरी पण्डित संघर्ष समिति (केपीएसएस) के अनुसार, जब हिंसा शुरू हुई तो आतंकवादियों द्वारा करीब 400 पण्डितों को निशाना बनाकर उनकी हत्या कर दी गयी। सरकारी अनुमान के मुताबिक 1990 के आखिर तक 25,000 पण्डित परिवार घाटी छोड़ कर चले गये।
कश्मीरी पण्डितों से न सिर्फ अपना घर और जन्मभूमि बल्कि जो कुछ भी उनके पास था, सब छिन गया। अगले कुछ वर्षों में हजारों और चले गये–– लगभग सारे पण्डित परिवार। संघर्ष जब और बढ़ा तो हजारों मुसलमानों के अलावा, केपीएसएस के अनुसार 650 पण्डित भी मारे गये।
तब से बड़ी संख्या में पण्डित जम्मू स्थित शरणार्थी शिविरों में अत्यंत विकट स्थितियों में रह रहे हैं। बीते 30 सालों में किसी भी सरकार ने उनको घर लौटाने का कोई प्रयास नहीं किया। उन्हें यथास्थिति में बनाये रख उनके गुस्से और कड़वाहट को कश्मीर के बारे में सबसे प्रभावी राष्ट्रवादी नैरेटिव के रूप में इस्तेमाल किया गया।
इस पूरी त्रासद–कथा के एक पक्ष पर हो–हल्ला मचाकर बड़ी चतुराई से बाकी पूरे भयावह कथानक पर पर्दा डाल दिया गया। आज कश्मीर दुनिया के सबसे बड़े सैन्य क्षेत्रों में से एक है या शायद दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य क्षेत्र।
मुठ्ठीभर ‘आतंकवादियों’ को काबू करने के लिए पाँच लाख सैनिक नियुक्त किये गये हैं, इस तथ्य को सेना ने भी स्वीकार किया है। पूर्व में भले ही इस बारे में सन्देह भी रहा हो पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि वास्तविक दुश्मन कश्मीरी लोग हैं।
भारत ने पिछले 30 वर्षों में कश्मीर में जो कुछ किया है वह अक्षम्य है। इस संघर्ष में अब तक करीब 70,000 लोग, जिनमें आम नागरिक, आतंकी और सेना के जवान सभी शामिल हैं, मारे गये हैं। सैकड़ों लोग लापता हैं। हजारों लोग इराक की अबु–गरेब जेल जैसी पीड़ा से गुजरे हैं।
पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों किशोरों को पैलेट गन के छर्रों ने अंधा किया है। सुरक्षा संस्थानों के लिए पैलेट गन भीड़ को नियंत्रित करने का पसन्दीदा हथियार है। कश्मीरी लड़ाकों में अधिकांश नौजवान है जिन्हें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित किया जाता है और उन्हें हथियार मुहैया कराये जाते हैं।
वे यह भली भाँति जानते होते हैं कि हाथ में बन्दूक लेने के बाद उनकी जिन्दगी छह महीने से ज्यादा की नहीं है। जब भी कोई ‘आतंकवादी’ मारा जाता है तो हजारों कश्मीरी उसे एक शहीद के तौर पर सम्मान देते हुए उसकी जनाजे में शामिल होते हैं।
तीस साल से सेना के कब्जे का यह मोटा–मोटा लेखा–जोखा है। बीते दशकों में इस कब्जे के क्या–क्या भयानक प्रभाव पड़े हैं, उन सबका ब्यौरा इस छोटे–से लेख में दे पाना नामुमकिन है।
प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में उनके कट्टर रुख के चलते कश्मीर में हिंसा की स्थिति बदतर ही हुई है। इसी साल फरवरी में, जब कश्मीर में एक आत्मघाती हमले में सुरक्षाबल के 40 जवान मारे गये तो भारत ने पाकिस्तान पर हवाई हमला कर दिया। पाकिस्तान ने भी ठीक उसी रूप में इस हमले का जवाब दिया।
इतिहास में यह पहली बार हुआ कि दो देश, जो न्यूक्लियर ताकतें भी हैं, ने एक दूसरे पर हवाई हमले किये हों। मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले दो महीने में सरकार ने अपनी सबसे खतरनाक चाल चल दी है और यह काम बारूद को चिन्गारी दिखाने जैसा है।
हद तो तब हो गयी जब इस सारे काम को बड़े सस्ते, धोखेबाजी और शर्मनाक तरीके से अंजाम दिया गया। जुलाई के अंतिम सप्ताह में किसी न किसी बहाने से कश्मीर में 45,000 आतिरिक्त सुरक्षाबल तैनात कर दिये गये।
इस बात को सबसे ज्यादा उछाला गया कि अमरनाथ यात्रियों पर पाकिस्तानी ‘आतंक’ का साया मण्डरा रहा है।
अमरनाथ यात्रा में हर साल लाखों हिन्दू श्रद्धालु ऊँचे पहाड़ों के बीच से पैदल (या कश्मीरी पिट्ठू ढोने वालों की मदद से) अमरनाथ गुफा तक जाते हैं और प्राकृतिक रूप से बर्फ से निर्मित एक आकृति– जिसे वे शिव का अवतार मानते हैं– की पूजा करते हैं।
1 अगस्त को कुछ भारतीय टीवी चैनलों ने एक खबर प्रसारित की जिसके अनुसार अमरनाथ यात्रा के रास्ते पर एक बारूदी सुरंग पायी गयी है, जिस पर पाकिस्तानी निशान अंकित है। 2 अगस्त को सरकार ने एक नोटिस जारी किया और न केवल अमरनाथ यात्रियों को बल्कि सामान्य पर्यटकों को भी, जो अमरनाथ यात्रा के रास्ते से काफी दूर थे, तुरंत घाटी छोड़ने का आदेश दे दिया।
करीब दो लाख प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों की फिक्र किसी को नहीं थी। मेरे ख्याल से वे इतने गरीब थे कि उनकी परवाह कोई मायने नहीं रखती। 3 अगस्त शनिवार तक सभी तीर्थयात्री और पर्यटक चले गये और पूरी घाटी के चप्पे–चप्पे पर सुरक्षाबलों तैनात हो गये।
रविवार की आधी रात तक घेराबन्दी कर कश्मीरियों को अपने–अपने घर तक सीमित कर दिया गया और संचार के सभी साधन ठप कर दिये गये। अगली सुबह हमें पता लगा कि जम्मू–कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूख अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ़्ती को गिरफ्तार कर लिया गया है।
ये सब मुख्यधारा के भारत समर्थक राजनेता हैं जो मुश्किल हालात में भी भारत के साथ खड़े रहे हैं। अखबारों में खबर है कि जम्मू–कश्मीर पुलिस से हथियार ले लिए गये हैं। जम्मू–कश्मीर के पुलिसकर्मी हमेशा किसी भी संघर्ष में अग्रणी पंक्ति में रहे हैं। उन्होंने फौज के लिए जमीनी काम किया, उसकी हर तरह से मदद की।
वे अपने मालिकों के निर्मम इरादों के मोहरे बने रहे और इसके बदले उनके हिस्से आयी अपने ही लोगों की नाराजगी। यह सब इसलिए कि कश्मीर में भारतीय तिरंगा फहराता रह सके। और अब जब स्थिति एकदम विस्फोटक हो गयी है तो उन्हें उग्र भीड़ के सामने बलि के बकरे के तौर पर छोड़ दिया गया है।
नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा भारत के मित्रों के साथ–– जिन्हें भारतीय शासन शैली ने बरसों तक सींचा है–– विश्वासघात और उनका सार्वजनिक निरादर दरअसल अज्ञान और अभिमान की उपज है। अब जब यह सब हो ही गया है तो अब स्थिति सड़क बनाम सैनिक की सी हो गयी है। सड़कों पर उतरे कश्मीरी नौजवानों के साथ इस स्थिति में जो होगा सो होगा, सैनिकों के लिए भी यह स्थिति बेहद खराब है।
कश्मीर की आबादी के उस उग्र वर्ग के लिए, जो आत्म–निर्णय अथवा पाकिस्तान की ओर जाने का समर्थक है, भारतीय कानून और संविधान की कोई अहमियत नहीं है। निसन्देह वे लोग खुश हो रहे होंगे कि चलो अब भ्रम से परदा उठ गया और जिन्हें सहयोगी समझा जा रहा था दरअसल वे दगाबाज निकले। लेकिन उनकी खुशी भी ज्यादा टिकने वाली नहीं हैं। क्योंकि अब नये भ्रम और परदे फैलाये जाएँगे। नये राजनीतिक दल आएँगे और नये खेल खेले जाएँगे।
कश्मीर की तालाबन्दी के चार दिन बाद, नरेंद्र मोदी, जाहिर तौर पर उत्सवरत भारत और कैद कश्मीर को सम्बोधित करने के लिए टीवी पर प्रकट हुए। वे एक बदले हुए व्यक्ति प्रतीत हो रहे थे। आमतौर पर अपने भाषणों में उग्र भाषा का इस्तेमाल और दोषारोपण करने वाले मोदी की वाणी में एक युवा माँ जैसी कोमलता थी। यह अब तक का उनका सबसे डराने वाला अवतार था।
जब उन्होंने बताना शुरू किया कि अब जब कश्मीर को पुराने और भ्रष्ट नेताओं से मुक्ति मिल गयी है, सीधे नयी दिल्ली से शासन चलेगा और कैसी नयी–नयी सौगातें कश्मीर पर झमाझम बरसेंगी, तब उनकी आवाज में एक कम्पन और आँखों में अनछलके आंसुओं की चमक थी।
वे भारतीय आधुनिकता के चमत्कारों के बारे में ऐसे बता रहे थे, मानो बीते समय की सामन्ती व्यवस्था से निकले किसानों को शिक्षित कर रहे हों। उन्होंने बताया कि कैसे फिर एक बार उनकी सब्ज घाटी में बॉलीवुड फिल्मों की शूटिंग हुआ करेगी।
जब वे अपना भावोत्तेजक भाषण दे रहे थे, तब उन्होंने यह नहीं बताया कि इस वक्त कश्मीरियों को घरों में बन्द रखने और सभी संचार साधनों को काट देने की जरूरत क्यों पड़ी। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि जिस निर्णय को लागू करके कश्मीर को काफी फायदा होने वाला है, उसे लेने से पहले उनसे राय क्यों नहीं ली गयी।
उन्होंने यह भी नहीं बताया कि सेना के कब्जे के क्षेत्र में रहने वाले लोग भारतीय लोकतंत्र की बड़ी–बड़ी सौगातों का आनन्द कैसे ले सकते हैं। हालाँकि चार दिन बाद आने वाली ईद की मुबारक देना उन्हें याद रहा। उन्होंने ऐसा भी कोई वादा नहीं किया कि यह तालाबन्दी किस त्योहार पर खत्म की जायेगी। (और इसे खत्म किया भी नहीं गया।)
अगली सुबह, भारतीय अखबार और कई उदारवादी टिप्पणीकार, जिनमें कुछेक नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक भी थे, उनके भावमयी भाषण से मंत्रमुग्ध थे। सच्चे उपनिवेशकों की तरह, भारत में बहुत लोग हैं जो अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के हनन के प्रति तो अत्यंत जागरूक हैं पर कश्मीर के लिए उनके मानदण्ड भिन्न हैं।
15 अगस्त, बृहस्पतिवार को लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने उद्बोधन में नरेंद्र मोदी ने गर्व से कहा कि उनकी सरकार ने आखिरकार ‘एक राष्ट्र–एक संविधान’ का सपना साकार कर दिया है।
इस भाषण की पिछली ही शाम भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों, जिनमें से अधिकांश को पूर्व जम्मू–कश्मीर की तरह विशेष दर्जा हासिल है, के कुछ विद्रोही गुटों ने स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार करने का ऐलान किया था। जब लालकिले के श्रोता नरेंद्र मोदी के भाषण पर तालियाँ बजा रहे थे, 70 लाख कश्मीरी तब भी बन्द थे।
ऐसा सुनने में आ रहा है कि संचार–साधनों को अभी कुछ और दिन बाधित रखा जा सकता है। जब यह खत्म होगा, जो होना ही है तो इसके बाद कश्मीर में बुनी हिंसा निसन्देह भारत की ओर बहेगी।
इस हिंसा का इस्तेमाल भारतीय मुसलमानों के खिलाफ और भड़काने के लिए होगा, जिनका पहले से ही दानवीकरण कर दिया गया है, जिन्हें अलग–थलग कर आर्थिक रूप से नीचे धकेला जा रहा है और साथ ही उन्हें निरंतर भयानक मॉब–लिंचिंग का शिकार बनाया जा रहा है।
सरकार द्वारा इस मौके का अपने तरीके से इस्तेमाल किया जायेगा और वह उन सामजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, कलाकारों, छात्रों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों पर टूट पड़ेगी, जिन्होंने अत्यंत साहस से और खुले तौर पर इस कृत्य का विरोध किया है।
खतरा कई दिशाओं से आएगा। कट्टर दक्षिणपंथी और भारत के सबसे शक्तिशाली संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जिसमें नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रियों सहित छह लाख से अधिक कार्यकर्ता हैं, के पास प्रशिक्षित स्वयंसेवी सेना है और जिसकी प्रेरणास्त्रोत मुसोलिनी की ‘ब्लैक शर्ट्स’ वाली फौज है।
हर गुजरते दिन के साथ, आरएसएस भारतीय गणराज्य की हर संस्था पर अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। सच तो यह है कि इसकी ताकत इतनी बढ़ गयी है कि यह अपने आप में ही सत्ता है। इस प्रकार की सत्ता की उदार छतरी के नीचे कई छोटे–बड़े हिन्दू सतर्कता संगठन, हिन्दू राष्ट्र के हमलावर दस्ते देश के कोने–कोने में न सिर्फ फल–फूल रहे हैं बल्कि अत्यंत धार्मिक भाव से इस घातक खेल को आगे बढ़ा रहे हैं।
बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों की स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है। मई के महीने में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आम चुनाव जीतने के ठीक दूसरे दिन, आरएसएस के पूर्व प्रवक्ता और पार्टी के महासचिव राम माधव ने लिखा कि जिन ‘बचे–खुचे’, ‘छद्म धर्म–निरपेक्ष/लिबरल संगठनों का देश के बौद्धिक और नीतिगत संस्थानों पर अत्यधिक प्रभाव और नियंत्रण है उन्हें देश के शैक्षणिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परिदृश्य से उखाड़ फेंकने की जरूरत है।’
1 अगस्त को इस ‘उखाड़ फेंकने’ की प्रक्रिया की तैयारी के लिए पहले से ही अत्यंत क्रूर कानून ‘अनलॉफुल एक्टिविटिज प्रिवेंशन एक्ट’ (यूएपीए) में संशोधन कर ‘आतंकवादी’ की परिभाषा का दायरा बढ़ाते हुए सिर्फ संगठनों को नहीं बल्कि व्यक्तियों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है।
इस संशोधन के बाद सरकार को किसी भी व्यक्ति को प्राथमिकी दर्ज किये, चार्जशीट दर्ज किये और मुकदमा चलाये बिना आतंकवादी घोषित करने का अधिकार मिल गया है।
किस तरह का व्यक्ति इस श्रेणी में आ सकता है–– यह हमारे गृहमंत्री अमित शाह के संसद में दिये भाषण से स्पष्ट हो जाता है–– ‘महोदय, बन्दूक आतंकवाद को बढ़ावा नहीं देती। आतंकवाद की जड़ वह प्रचार है जो इसे फैलाता है––– अगर ऐसे सभी व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाये तो मुझे नहीं लगता कि किसी भी संसद सदस्य को इस पर आपत्ति होगी।’
हममें से कइयों ने उनकी सर्द निगाहों को खुद पर घूरते महसूस किया। यह जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अपने गृह राज्य गुजरात में कई हत्याओं के मुख्य आरोपी के तौर पर वे कुछ समय सलाखों के पीछे भी रहे हैं।
उनके मुकदमे के जज ब्रजगोपाल हरकिशन लोया की मुकदमे के दौरान रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो गयी और आनन–फानन में एक नये जज को उनकी जगह नियुक्त किया गया, जिसने जल्दी ही अमित शाह को बरी कर दिया।
इस सबसे उत्साहित होकर देशभर के सैकड़ों न्यूज चैनलों के दक्षिणपंथी टीवी एंकरों ने अब असहमति रखने वाले लोगों पर न सिर्फ खुले तौर पर गम्भीर आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं बल्कि उन्हें गिरफ्तार करने का आह्वान तक किया जाता है। सम्भवत: ‘टीवी लिंचिंग’ नये भारत का नया राजनीतिक अस्त्र बनने को है।
दुनिया जब यह सब देख रही है, भारतीय फासीवाद शीघ्रता से अपना वास्तविक आकार ले रहा है। मैंने 28 जुलाई के लिए कश्मीर में कुछ दोस्तों से मिलने के लिए टिकट बुक करवाई थी। वहाँ पर समस्या और सुरक्षाबलों की तैनाती की आहटें आने लगीं थीं। जाने के बारे में मन में दोनों तरह के ख्याल आ रहे थे।
एक मित्र और मैं मेरे घर बैठे इस बारे में चर्चा कर रहे थे। मेरे मित्र मुसलमान हैं और एक सरकारी अस्पताल में वरिष्ठ डॉक्टर हैं और उन्होंने अपना सारा जीवन जनसेवा में लगाया है। हमने इस नयी प्रवृति के बारे में बात करना शुरू किया, जिसमें भीड़ लोगों, खासकर मुसलमानों को, घेरकर उनसे जबरदस्ती ‘जय श्रीराम’ का नारा लगवाती है।
अगर कश्मीर सुरक्षाबलों से भरा है तो भारत उन्मादी भीड़ से।
उन्होंने कहा कि वह भी आजकल अक्सर इस बारे में सोच रहे हैं, क्योंकि उसे अपने परिवार, जो दिल्ली से कुछ घंटों की दूरी पर रहता है, से मिलने के लिए गाड़ी चलाकर जाना पड़ता है।
उन्होंने कहा, ‘मुझे आसानी से रोका जा सकता है।’
मैंने कहा, ‘तब तो तुम्हे यह नारा लगा ही देना चाहिए। जिन्दा भी तो रहना है।’
‘मैं नहीं लगाऊँगा क्योंकि दोनों ही सूरतों में मुझे मार दिया जायेगा, जैसे उन लोगों ने तबरेज अंसारी को मार दिया।’
यह उस तरह की बातचीत है जो भारत में चल रही हैं, वहीं हम कश्मीर के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और वह निश्चित तौर पर बोलेगा।
(यह लेख मूल रूप से द न्यूयॉर्क टाइम्स में 15 अगस्त को प्रकाशित हुआ है, हिन्दी में द वायर पर प्रकाशित हो चुका है। अनुवादक–– कुमार मुकेश)
 

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