सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

क्या हमारे समाज में भाईचारे और एकजुटता की भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं?

(विश्व–प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने दलित कैमरा पोर्टल को एक लम्बा साक्षात्कार दिया है। इसमें उन्होंने अमरीका और यूरोप में चल रहे नस्लवाद विरोधी आन्दोलन से लेकर भारत में कोरोना की स्थित तक पर अपने विचार जाहिर किये हैं। उनका कहना है कि अमरीका और यूरोप के मुकाबले भारत में असमानता की जड़ें बेहद गहरी हैं। लेकिन इसके खिलाफ मुकम्मल लड़ाई की अभी दूर–दूर तक कोई सम्भावना नहीं दिख रही है। इसके साथ ही इस साक्षात्कार में उन्होंने ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल विस्तार से जुड़े सवालों का भी जवाब दिया है। अरुंधति ने मौजूदा निजाम की फासीवादी प्रवृत्तियों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि इसके रहते देश में किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित इस साक्षात्कार का हिन्दी अनुवाद सामाजिक कार्यकर्ता कुमार मुकेश ने किया है।)

हम अमरीका में चल रहे आन्दोलन का समर्थन किस तरह करें और भारत में विरोध कर रहे लोगों के साथ कैसे एकजुटता जाहिर करें?

मेरे ख्याल से आपका आशय श्वेत अमरीकी पुलिस द्वारा अफ्रीकी अमरीकियों की हत्याओं की लम्बी श्रृंखला में नवीनतम जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद बड़े पैमाने पर भड़के विरोध प्रदर्शनों से है। मेरे विचार से इस आन्दोलन का समर्थन करने का सबसे अच्छा तरीका सबसे पहले यह समझना है कि इसका मूल कहाँ है। गुलामी का इतिहास, जातिवाद, नागरिक–अधिकार आन्दोलन इन सबकी सफलताओं और असफलताओं की जड़ें कहाँ हैं? अत्यन्त सूक्ष्म तरीके से जाँच करने की आवश्यकता है कि उत्तरी अमरीका में अफ्रीकी अमरीकियों को “लोकतंत्र” के ढाँचे के भीतर आखिर इतनी क्रूरता, असंगतता और असंतोष का सामना क्यों करना पड़ता है? इससे पूर्व यह भी समझना होगा कि अमरीका में भारतीय समुदाय के अधिकांश लोगों की इसमें क्या भूमिका है? पारम्परिक रूप से भारतीय समुदाय किसके साथ जुड़ा रहा है? इन प्रश्नों के उत्तर हमें अपने समाज के बारे में बहुत कुछ बताएँगे। विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों के सामूहिक रोष और प्रदर्शनों का समर्थन हम तभी कर सकते हैं, जब हम ईमानदारी से अपने स्वयं के मूल्यों और कार्यों का आकलन करें। हम खुद एक ऐसे बीमार समाज में रहते हैं, जिसमें भाईचारे और एकजुटता की भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है।

क्या अमरीका के “कू क्लक्स क्लान” और भारत के “गौ–रक्षक हिन्दुओं” की विचारधारा और कार्य–प्रणाली में समानताएँ हैं?

निस्सन्देह इनमें समानताएँ हैं। अन्तर इतना है कि “कू क्लक्स क्लान” जब हत्याएँ करता था तो उसकी शैली कुछ अलग थी। आरएसएस की तरह, एक जमाने में, क्लान अमरीका के सबसे प्रभावशाली संगठनों में से एक हुआ करता था। इसके सदस्य पुलिस और न्यायपालिका सहित सभी सार्वजनिक संस्थाओं में प्रवेश कर गये थे। क्लान द्वारा की गयी हत्याएँ सिर्फ हत्याएँ नहीं थीं, वे एक तरह के अनुष्ठानिक प्रदर्शन थे जो आतंक पैदा करने और सबक सिखाने के इरादे से किये जाते थे। ‘कू क्लक्स क्लान’ द्वारा काले लोगों की लिंचिंग उतनी ही सत्य है जितनी हिन्दू रक्षक समूहों द्वारा दलितों और मुस्लिमों की लिंचिंग।

सुरेखा भोतमाँगे और उनके परिवार को याद कीजिये? बेशक सुरेखा भोतमाँगे और जॉर्ज फ्लॉयड की पृष्ठभूमि और संघर्ष बहुत अलग हैं। सुरेखा और उसके परिवार को भी उसके ही गाँव के लोगों ने मौत के घाट उतार दिया। पुलिसिये डेरेक चाउविन ने बहुत सोचते–समझते हुए जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या कर दी। उसका एक हाथ जेब में और एक घुटना फ्लॉयड की गर्दन पर था। उसके पास खुद की मदद के लिए लोग थे। उसके कृत्य पर ध्यान रखने के लिए उसके साथ अन्य पुलिस वाले थे। आसपास दर्शक भी थे। वह यह भी जानता था कि उसे फिल्माया जा रहा है। इन सब के बीच उसने इस कत्ल को अंजाम दिया। उसका मानना था कि इसके बावजूद वह सुरक्षित और दण्ड मुक्त है। फिलहाल श्वेत वर्चस्ववादी और हिन्दू वर्चस्ववादी दोनों से ही सहानुभूति रखने वाले, उच्च पदों पर आसीन लोग मौजूद है (विनम्रता से कहें तो)। इसलिए दोनों कामयाबी से आगे बढ़ रहे हैं।

एक ओर हम भारतीयों को भी सोशल मीडिया आन्दोलन ब्लैक–लाइव्स–मैटर ट्रेण्ड करते हुए देखते हैं लेकिन इसी देश में हमें लगातार काले लोगों पर हमले देखने को मिलते हैं? भारतीय काले लोगों को किस रूप में देखते हैं या उनके बारे में हम भारतीयों की परम्परागत राय क्या है?

गोरी त्वचा के प्रति भारतीय जुनून को देखें। हमारे बारे में यह सबसे ज्यादा बीमार करने वाली चीजों में से एक है। यदि आप बॉलीवुड फिल्में देखते हैं तो आपको लगेगा जैसे भारत गोरे लोगों का देश हो। काले लोगों के प्रति भारतीयों का नस्लवाद गोरों के नस्लवाद से कहीं ज्यादा बदतर है। ये अविश्वसनीय है। मैंने अपने काले मित्रों के साथ ऐसा घटित होते हुए सड़कों पर देखा है। और कभी–कभी यह प्रवृति ऐसे लोगों में भी दिखाई देती है जिनकी त्वचा का रंग वास्तव में कालों से कुछ ज्यादा अलग नहीं है! शायद ही मैंने कभी इतना क्रोधित और लज्जित महसूस किया हो। और यह नस्लवाद अचानक हमलों के रूप में भी प्रकट होता रहा है।

2014 में, आम आदमी पार्टी द्वारा दिल्ली चुनाव में भारी जनादेश हासिल करने के तुरन्त बाद, कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने आधी रात को लोगों के एक समूह का नेतृत्व करते हुए छापे मारे। दिल्ली के खिड़की क्षेत्र में इस समूह ने “अनैतिक और अवैध गतिविधियों” में संलिप्त कांगो और युगाण्डा की महिलाओं पर शारीरिक हमला किया और उन्हें अपमानित किया।

इसी तरह 2017 में अफ्रीकी छात्रों पर ड्रग बेचने के आरोप लगाते हुए ग्रेटर नोएडा में भीड़ द्वारा हमला कर उन्हें पीटा गया। लेकिन भारत में मौजूद नस्लवाद विशाल और विविध प्रकार का है। नोएडा हमले के बाद संसद सदस्य और भाजपा नेता तरुण विजय द्वारा नस्लवाद के बचाव में दिये बयान को कौन भूल सकता है–– “अगर हम नस्लवादी होते, तो पूरे दक्षिण भारत तमिलों को आप जानते हैं, आप केरल, कर्नाटक और आंध्र को जानते हैं हम फिर उनके साथ क्यों रहते हैं? वे हमारे साथ क्यों रहते हैं?”

वह हमें काले दक्षिण भारतीय लोगों के बारे में बता रहा था। मैं उससे इसके कारणों के बारे में जानना चाहती हूँ।

जब अफ्रीकी–अमरीकी सोशल मीडिया आन्दोलन ब्लैक–लाइव्स–मैटर, एशियाई आन्दोलन एशियन–लाइव्स–मैटर और गोरे आन्दोलन ऑल–लाइव्स–मैटर के पक्ष में तर्क देते हैं तो––––

यह व्यर्थ तर्कों का सहारा लेकर असल मुद्दे को खत्म करने का धूर्त तरीका है। एशियाई अमरीकियों अथवा श्वेतों की हत्यायें नहीं हो रही हैं या उन पर उस तरह के जुल्म नहीं हो रहे हैं जिनका सामना अक्सर अमरीका में अफ्रीकी अमरीकी लोग करते हैं। जब से अमरीका में गुलाम–प्रथा समाप्त हुई है, अफ्रीकी अमरीकियों को अन्य तमाम तरीकों–– हिंसक तरीकों, जो एक लोकतंत्र के सामाजिक अनुबन्ध और कानूनी ढाँचे में फिट होते हैं, के द्वारा गुलाम बनाये रखने के लिए ठोस प्रयास किया जाता रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके युद्धों की अन्तर्राष्ट्रीय कहानियाँ वियतनाम, जापान, इराक, अफगानिस्तान में नरसंहार की कहानियाँ––– मुझे नहीं लगता कि सोशल मीडिया आन्दोलन एशियन–लाइव्स–मैटर और ऑल–लाइव्स–मैटर में इन कहानियों का कोई भी सन्दर्भ है।

जब दलित सोशल मीडिया आन्दोलन दलित–लाइव्स–मैटर चला रहे हैं तो क्या यह सदियों से चल रहे काले लोगों के संघर्ष को कमजोर नहीं करता? क्या दलित–लाइव्स–मैटर आन्दोलन नस्लवाद से भी ऊपर है?

जातिवाद और नस्लवाद का इतिहास अलग–अलग होने के बावजूद ये दोनों ज्यादा अलग नहीं हैं सिवाय इसके कि जातिवाद किसी दैवीय आदेश का दावा करता है। इसलिए मुझे यह लगता है कि यह कहना थोड़ा कठोर होगा कि सोशल मीडिया आन्दोलन दलित–लाइव्स–मैटर सदियों से चल रहे काले लोगों के संघर्ष को कमजोर करता है। मुझे लगता है कि यह ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ से एक साझा उद्देश्य स्थापित करने, एकजुटता बनाने और उससे एक रोशनी पाने की कोशिश है।

जो आन्दोलन अमरीका में हो रहा है वह किसी भी अन्य आन्दोलन की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली और दृश्यमान है। भारत का जातिवाद लम्बे समय से अन्तरराष्ट्रीय जाँच के रडार के दायरे से बाहर चला गया है। और इसे इस स्थिति तक पहुँचाने के लिए कई प्रसिद्ध, सम्मानित बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों ने भी मदद की है।

कोई भी जातिवाद से ऊपर नहीं है। अलग–अलग जगहों पर इसके अलग–अलग रूप हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण अफ्रीका में ब्लैक साउथ अफ्रीकी, नाइजीरियाई और अन्य अफ्रीकी देशों के अफ्रीकियों से घृणा करते हैं। और भारत के बारे में तो हम जानते ही हैं कि जातिगत उत्पीड़न और ब्राह्मणवाद, हर उस जाति में प्रचलित है जिसमें अपने से नीचे की जाति पर अत्याचार किया जाता है। और यह प्रवृत्ति समाज के निचले से निचले पायदान तक जाती है, यहाँ तक कि “दलित” नाम की राजनीतिक श्रेणी में भी। आपने भी अपने संघर्षों में इसे अनुभव किया होगा। आप किसी भी चीज को लम्बे समय तक घूरते रहें तो वह चीज अपने चारों ओर के शब्दाडम्बर की तुलना में और अधिक जटिल हो जाती है। लेकिन शब्दाडम्बर का भी अपना महत्त्व है। यह लोगों को अपने विचारों को व्यवस्थित करने के लिए एक ढाँचा प्रदान करता है।

भारत के जनमानस, समाचार और मनोरंजन मीडिया में काले लोगों को आज भी नशीली दवाओं के सौदागर, बर्बर और नरभक्षी के रूप में क्यों चित्रित किया जाता है?

क्योंकि हम एक नस्लवादी संस्कृति हैं। पिछले साल मैंने एक मलयालम फिल्म अब्राहमिन्दे संथाथिकल (द सन्स ऑफ अब्राहम) देखी। इस फिल्म के सभी शातिर, बेवकूफ–अपराधी खलनायक, सभी ब्लैक अफ्रीकन थे–– और जाहिर तौर पर मलयाली सुपर हीरो अन्त में उन सबका सर्वनाश कर देता है। केरल में अफ्रीकियों का कोई समुदाय नहीं रहता फिर भी फिल्म निर्माता ने नस्लवाद को उखाड़ फेंकने के लिए एक काल्पनिक कहानी आयात कर ली! यह कोई राज्य द्वारा अत्याचार नहीं है। यह हमारा समाज है। ये सब यहीं के लोग हैं। ये वही दक्षिण भारतीय कलाकार, फिल्म निर्माता, अभिनेता और लेखक हैं जिनकी काली चमड़ी के लिए उत्तर भारतीयों द्वारा हमेशा उनका मजाक उड़ाया जाता है। ठीक इन्हीं कारणों से दक्षिण भारतीय अफ्रीकियों को अपमानित करते हैं। यह एक ऐसे बोरवेल में गिरने जैसा है जिसका कोई तल नहीं है।

अमरीका में विरोध प्रदर्शनों के दौरान गाँधी की मूर्ति को तोड़ दिया गया, इसका क्या कारण हो सकता है?

यह जान पाना बेहद कठिन है। समाचार रिपोर्टों में कहा गया है कि मूर्ति को तोड़कर उस पर ग्रेफिटी का छिड़काव कर दिया गया। लेकिन तस्वीरों में मूर्ति को लिपटा हुआ दिखाया गया है। इसलिए किसी को पता नहीं है कि उस पर क्या ग्रेफिटी चित्रित की गयी थी।

क्या यह कृत्य, उन लोगों द्वारा किया गया जो गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान काले अफ्रीकियों के खिलाफ गाँधी की नस्लवादी टिप्पणियों और भारत में जाति–व्यवस्था पर उनकी स्थिति से अवगत हैं? या यह उन लोगों का काम था जो भारत के प्रधानमंत्री और ट्रम्प के सम्मान में हाउडी मोदी और नमस्ते ट्रम्प जैसे विशाल प्रदर्शनों के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करना चाहते थे।

मुझे वास्तव में इसके बारे में जानकारी नहीं है। परन्तु यह भी सच है कि कई प्रदर्शनकारियों ने गाँधी की तस्वीरों के साथ, उन्हें अपनी प्रेरणा बताते हुए, एक शिक्षक और संरक्षक के रूप में और अहिंसक सविनय अवज्ञा जैसी उनकी रणनीति के पक्ष में ट्वीट किये। इसलिए गाँधी अपने कई अवतारों में उन सड़कों पर मौजूद रहे हैं।

जिस मूर्ति का जिक्र हम कर रहे हैं उसे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने प्रायोजित किया था। अन्य कई अफ्रीकी देशों में भी उनकी प्रतिमाएँ प्रायोजित की जाती रही हैं। भारत सरकार गाँधी की प्रतिमाओं का निर्माण क्यों प्रायोजित करती है? यही भारत सरकार विदेशों में गाँधी की मूर्तियों को बढ़ावा देती है जबकि भारत में ही इसकी सबसे बड़ी रणभूमि है और साथ ही आज का भारतीय समाज और ज्यादा असहिष्णु हो गया है। इसे कैसे समझा जाये?

अच्छे के लिए या फिर बुरे के लिए, गाँधी भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण निर्यात हैं। गाँधी का अहिंसा का सन्देश और भारत सरकार द्वारा देश के लगभग हर हिस्से में चरम हिंसा और सैन्यवाद की सुलभ क्षमताय यह दोनों चीजें अत्यन्त सुगमता से साथ–साथ चलती हैं। उनके लिए गाँधी एक उपकरण हैं, एक उपयोगिता, धुम्रावरण, शायद आँसू गैस। यहाँ तक कि सामाजिक और बौद्धिक रूप से स्वयं को गाँधीवादी कहने में उन लोगों को भी कोई विरोधाभास महसूस नहीं होता जो ताकतवर जातियों से सम्बन्ध रखते हैं, जाति–व्यवस्था को स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। जिस व्यवस्था के बारे में हम जानते हैं कि वह केवल उसी वातावरण में जिन्दा रह सकती है जिसमें इस व्यवस्था की अवहेलना करने वालों के खिलाफ हिंसा की धमकियाँ और शारीरिक हिंसा स्थायी रूप से मौजूद रहती हैं। इस पाखण्ड की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता।

अनेक भारतीय ब्रिस्टन में गुलामों के व्यापार के मालिक एडवर्ड कॉलस्टन की प्रतिमा को गिराते हुए “ब्लैक लाइक मेटेर” आन्दोलन की तस्वीरों को साझा कर रहे हैं और उत्सव मना रहे हैं। लेकिन भारत में ही राजस्थान उच्च न्यायालय के ठीक सामने मनु की प्रतिमा स्थापित हैय इसके अतिरिक्त “केवल ब्राह्मण” घरों जैसे कई और प्रतीक मौजूद है जो जातिवाद को प्रोत्साहित करते हैं। फिर भी हम उन्हें गिराना तो दूर उन्हें खारिज तक करने में भी दिलचस्पी नहीं दिखाते इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?

हम एक जातिवादी, हिन्दू राष्ट्रवादी देश में रहते हैं। हम उस दिन से अभी बहुत दूर हैं जब हमारे यहाँ ऐसी मूर्तियों को हटाया या गिराया जाएगा। हम तो उस अवस्था में हैं जब ऐसी मूर्तियों को स्थापित किया जा रहा है और उनका उत्सव मनाया जा रहा है। दुख की बात तो यह है कि कभी दलित पैंथर्स जैसे क्रान्तिकारी आन्दोलनों का हिस्सा रहे, लोगों ने भी इन नये शासकों से हाथ मिला लिया है। आज जैसा विद्रोह हम अमरीका में देख रहे हैं, वह दरअसल अरसे के संघर्ष और संगठन के साथ–साथ कविता, कला, संगीत, साहित्य के उन आयोजनों और स्मृतियों का परिणाम है जिनके माध्यम से अफ्रीकी अमरीकी खुद की कहानी सुनते–सुनाते रहे हैं। नस्लीय विभाजन की जीवंत उपस्थिति को लेकर अमरीकियों की नयी पीढ़ी में बेहद शर्म और रोष है। एकजुटता का ऐसा प्रदर्शन एक आश्चर्यजनक घटना है।

क्या आपको लगता है कि कोविड–19 से निपटने के लिए लॉकडाउन और सरकार द्वारा उठाये गये अन्य असाधारण कदम ठीक थे? या यह जल्दबाजी में की गयी कार्यवाई थी जिसके कारण अनेक लोगों का जीवन अस्त–व्यस्त हो गया? और अब अचानक “अनलॉक” पर आप के क्या विचार हैं?

भारत में कोविड–19 का पहला मामला 30 जनवरी को दर्ज किया गया। डब्ल्यूएचओ द्वारा 11 मार्च को इसे महामारी घोषित कर देने के बाद भी भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि अभी स्वास्थ्य–आपातकाल जैसी स्थिति नहीं है। जब सरकार द्वारा अन्तरराष्ट्रीय हवाईअड्डों को बन्द और अन्तरराष्ट्रीय यात्रियों को क्वारन्टीन कर देना चाहिए था, उन्होंने नहीं किया। शायद इसकी वजह ट्रम्प की प्रस्तावित यात्रा थी। फरवरी के अन्तिम सप्ताह में ट्रम्प भारत पहुँचे। नमस्ते ट्रम्प जैसे आयोजन में भाग लेने के लिए हजारों लोगों ने अमरीका से मुंबई और अहमदाबाद के लिए उड़ान भरी और सैकड़ों–हजारों लोगों ने इसमें भाग लिया। इन दो शहरों पर कोरोना वायरस ने भयानक हमला कर दिया। क्या यह मात्र एक संयोग है?

 तबलीगी जमात को कलंकित करने और नमस्ते ट्रम्प के महिमामण्डन को कैसे जायज ठहराया जा सकता है? शीर्ष से शुरू करने और हवाई–यात्राएँ करने वाले वर्ग को क्वारन्टीन करने के बजाय, सरकार ने इन्तजार करना जारी रखा। और इसकी कीमत चुकाई मजदूर तबके ने। जब मात्र चार घण्टे के नोटिस पर लॉकडाउन की घोषणा की गयी तो देश में संक्रमण के 545 मामले थे और तब तक 10 मौतें हुर्इं थीं। इस कट–एण्ड–पेस्ट लॉकडाउन को इटली और स्पेन से आयात किया गया था, जिन्होंने इसे “सोशल डिस्टेंसिंग” के लिए लागू किया था। बिना किसी ठोस योजना के थोप दिया जाने वाला लॉकडाउन मानवता के खिलाफ अपराध से कम नहीं है।

भारत में केवल अमीर लोग ही शारीरिक दूरी बना सकने में समर्थ हैं। गरीब तो शारीरिक रूप से हर जगह अटा पड़ा हैय झुग्गियों में, छोटे–छोटे घरों में, अनधिकृत कॉलोनियों में। ऑपरेशन वन्दे–भारत द्वारा विदेशों में रहने वाले भारतीयों को तो वहाँ से निकाल लाया गया, पर लाखों मेहनतकश मजदूर बिना किसी आश्रय, भोजन या पैसे के, जिन शहरों में थे वहीं फँस कर रह गये। परिवहन का कोई साधन उपलब्ध नहीं था तो वे सब हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँवों की ओर लौटने लगे। सैकड़ों–हजारों लोगों को जबरन क्वारन्टीन शिविरों में रख दिया गया और फिर कुछ समय बाद उन्हें छोड़ने की अनुमति जारी कर दी गयी। बसों और ट्रेनों में ठूँस कर उन्हें वापस भेजा जाने लगा। वायरस भी उनके साथ सफर में था।

इस सारे प्रकरण में नजर यही आया कि प्रधानमंत्री, जो चुनाव जीतने के मामले में तो बेहद चतुर हैं पर उन्हें उस देश के बारे में कोई जानकारी नहीं है, जिसके वह संचालक हैं। कोई जानकारी तक नहीं, पर उनके अभिमान का कोई मुकाबला नहीं और विशेषज्ञों की राय लेने का तो किंचित प्रयास ही नहीं। उन्होंने चार घण्टे के नोटिस पर 138 करोड़ लोगों को अपने घरों में बन्द कर दिया। क्यों? कैसे? क्योंकि वह ही यह कर सकते थे। भाजपा में राजनेता, नौकरशाह, व्यापारी–वर्ग, उद्योगपति और यहाँ तक कि उनके अपने सहयोगी भी मुँह खोलने के परिणामों से भयभीत रहते हैं। उनके दिमागों में या तो डर भरा है या वे प्रधानमंत्री को खुश रखने या उनकी कृपा प्राप्त करने की जुगत भिड़ाने में व्यस्त रहते हैं। हमीं ने उन्हें दो तरफा हथौड़ा चलाने और देश को नष्ट करने का जनादेश दिया है।

लॉकडाउन के दौरान संक्रमण के केसों में तेजी से वृद्धि होती रही। अब संक्रमण का ग्राफ किसी खड़ी चट्टान की तरह हो गया है। इस समय देश में करीब पौने तीन लाख से अधिक संक्रमण के मामले हैं, अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है और अब सरकार ने लॉकडाउन खत्म कर दिया है। सौभाग्य से, रोगियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिनमें बीमारी के गम्भीर लक्षण नहीं हैं। अगर हम संख्याओं पर भरोसा कर सकते हैं तो मृतकों की संख्या अमरीका और यूरोप की तुलना में बहुत कम है। लेकिन लाखों लोगों की रोजी–रोटी छिन चुकी है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी के कगार पर है। जिन गाँवों में लोग लौट कर गये हैं वहाँ क्या हो रहा है? वहाँ जातिवाद, सामन्तवाद, लिंगभेद जैसे जिन्न पहले से ही मौजूद हैं और ऐसे भय और निराशा के क्षणों में आखिर ये लोग कैसे गुजर–बसर करेंगे?

लेकिन मोदी अब भी राफेल फाइटर जेट खरीदना और वास्तुशिल्प की विरासत छोड़ने और केन्द्रीय दिल्ली को नयी शक्लो–सूरत देने के इरादे से बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करना चाहते हैं। इस बीच, वह आपदा–प्रबन्धन के काम को उन राज्य सरकारों के लिए छोड़ देंगे जिनसे उन्होंने लॉकडाउन घोषित करने से पहले कभी भी कोई सलाह नहीं ली थीय लेकिन अब वही राज्य–सरकारें किसी भी किस्म की अफरा–तफरी के लिए दोषी होंगी।

मोदी और उनका गोदी–मीडिया इस दोहरी विपदा को उपलब्धि के तौर पर बेचेगा। बिहार में 72,000 एलईडी स्क्रीन के साथ आभासी चुनाव अभियान शुरू किया ही जा चुका है। लोग भूखे हैं पर उनके पास इस काम के लिए पैसे हैं। एक बार फिर उनकी पटकथा साम्प्रदायिकता की ओर लौट रही है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जेएनयू के छात्रों पर उन्ही के विश्वविद्यालयों में पुलिस और हिन्दुत्ववादी गुण्डों द्वारा बेरहमी से हमला, जो मुख्य तौर पर मुस्लिमों पर लक्षित था, किया जा रहा था। उन्हीं छात्रों को पूर्वाेत्तर दिल्ली में हिंसा के साजिशकर्ता के रूप में गिरफ्तार किया जा रहा है! यह भीमा–कोरेगाँव का दिल्ली संस्करण है। इन दो घटनाओं के बीच भारत के कुछ सबसे अच्छे वकील, कार्यकर्ता, शिक्षक और बुद्धिजीवी निराधार आरोप लगाकर जेलों में बन्द कर दिये गये हैं। किसी ने कहा कि मोदी गंजे को भी कंघी बेच सकते हैं। अगर हम इस कंघी को खरीदते हैं तो हम इसी लायक हैं। हम मूर्खों की भाँति अपने गंजे सिरों पर कंघी फेरते रह सकते हैं।

सरकार ने “तीव्र आर्थिक विकास और नागरिक सशक्तिकरण” के लिए “डिजिटल तकनीकों का दोहन” करने के लिए डिजिटल इंडिया परियोजना शुरू की है। आरोग्यसेतु एप और माय–गोव–कोरोना–हब को इस परियोजना के हिस्से के रूप में पेश किया गया है। आपकी राय में, डिजिटल तकनीकों का दोहन करने से भारत सरकार का क्या अभिप्राय है? यह किस भारतीय नागरिक को, किन तरीकों से सशक्त करने के लिए आरम्भ की गयी है? और क्या नागरिकों की बहुसंख्या इस परियोजना के दायरे से बाहर नहीं है?

भारत में 2022 तक स्मार्टफोन उपयोगकर्ताओं की संख्या 44 करोड़ हो जाने का अनुमान है। यह संख्या उस समय की अनुमानित कुल आबादी के एक तिहाई से भी कम है। और आज बच्चों तक से ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन रखने की उम्मीद की जा रही है। डिजिटल इंडिया की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं में बहुसंख्यक आबादी शामिल ही नहीं है। जिन ऐप्स का आपने उल्लेख किया है उन्हें अधकचरा और अपूर्ण होने के बावजूद पेश कर दिया गया है। बिल गेट्स की तरह के दृष्टिकोण, तकनीक या आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस जैसे विचार, जिनके अनुसार इनसे स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबी जैसी समस्याओं का समाधान हो जायेगा, बेहद खतरनाक साबित होंगे। हमें राजनीतिक समाधान की आवश्यकता है। अन्याय, भूख, नव–नस्लवाद, नव–जातिवाद, इस्लामोफोबिया और पारिस्थितिकी–विनाश जैसी चीजें नव–उदारवादी पूँजीवादी परियोजना का हिस्सा हैं। ऐप्स और खुद से मान ली गयी डिजिटल दक्षता, समस्या को न तो हल कर सकते हैं और न ही कर पायेंगे। ये उपाय हमें निजीकृत पूँजीवादी और नागरिकों पर निगरानी रखने वाली सत्ता के साथ नत्थी करने के लिए हैं।

हाल ही में, एक दलित छात्रा देविका ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके पास ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँचने के साधन नहीं थे। केरल सरकार द्वारा इस प्रणाली को नियमित करने की कोशिश की जा रही थी। ऐतिहासिक रूप से, प्रौद्योगिकी को समाज को लोकतांत्रिक बनाने का एक साधन माना जाता है। देविका और ऑनलाइन शिक्षा इत्यादि जैसे मामलों में हमने देखा है कि भारत में, प्रौद्योगिकी लोगों को हाशिए पर अथवा उससे बाहर धकेलने का माध्यम बन गयी है। वर्तमान विशिष्ट सन्दर्भ में इस विरोधाभास से कैसे निपटा जा सकता है?

मुझे लगता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर आपके पूर्व–प्रश्न में दे चुकी हूँ। किसी विशेषाधिकार रहित पृष्ठभूमि वाले बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा एक आपदा बन सकती है। देविका ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह बहिष्कार के गहरे कुएँ में धकेल दी गयी थी। उसके पास स्मार्टफोन नहीं था और टीवी सेट की मरम्मत तक कराने के लिए उसके परिवार के पास पैसे नहीं थे। देविका जैसे लाखों बच्चे हैं। लेकिन उन युवाओं के लिए भी जिनके पास स्मार्टफोन हैं–– स्कूल और विश्वविद्यालय के परिसर में कक्षाओं के बाहर जो कुछ होता है वह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कक्षा में चलने वाली गतिविधियाँ।

दलित, आदिवासी और आजकल मुस्लिम छात्रों को स्कूल और कॉलेज परिसरों में अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। हम सब को मिलकर इन लड़ाइयों को भी लड़ना होगा। ऑनलाइन हो कर खुद को सबसे अलग कर लेना हमारे समाज के लिए बेहद खतरनाक होगा। मैं ऑनलाइन शिक्षा के इस नये विचार को लेकर अत्यन्त भयभीत हूँ। जो सरकारें, लम्बे समय से शिक्षा में विनिवेश की इच्छुक रही हैं वे इस माध्यम का सहारा लेकर शिक्षा का निजीकरण करने की कोशिश करेंगी। उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।

हाल ही में अनेक अतर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के साथ मिलकर आपने “प्रोग्रेसिव इण्टरनेशनल” नाम का मंच स्थापित किया है। इससे पूर्व भी “लेफ्ट इण्टरनेशनलिज्म” और “ब्लैक इण्टरनेशनलिज्म” जैसे मंच बने हैं। इस तरह के अधिकांश प्रयास विघटित हो गये और हमारी राजनीतिक कल्पनाएँ भी कहीं न कहीं राष्ट्रीय और नस्लीय हैं। ऐसे में “प्रोग्रेसिव इण्टरनेशनलिज्म” राष्ट्रीय स्तर पर लोकलुभावनवाद और विश्व व्यवस्थाओं की पूर्ण विफलता के सन्दर्भ में आगे कैसे बढ़ेगा?

अन्तर्राष्ट्रीय पहलकदमियों का विशेष महत्त्व है। ऐसी पहलकदमियाँ हमें परिप्रेक्ष्य, समझ, संरक्षण के तरीके और एकजुटता के मार्ग सुझाती हैं। विशेष रूप से तब जब हमारे जैसे देशों में, राजनीतिक बयानबाजी के नाम पर बदसूरत हिन्दू राष्ट्रवाद का बोलबाला है। लेकिन यह भी सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीयतावाद स्थानीय सांगठनिक कार्य और विरोध की जगह नहीं ले सकता। ऐसा करना एक बड़ी गलती होगी। हमें अपनी लड़ाइयाँ लड़नी होगी, और इस लड़ाई के अधिकांश हिस्से में हम अकेले ही होंगे। इसमें कोई अन्य हमारी मदद नहीं कर सकता।

वैश्विक स्तर पर प्रतिरोध आन्दोलन क्रमिक सुधारवादी आशावादी कार्यों के बजाय आमूलचूल और व्यवस्थागत परिवर्तन की माँग कर रहे हैं। भारत में, हिन्दू नाजी शासन में भी हिन्दू उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी अपने आशावादी सुधारवादी राजनीतिक एजेण्डे पर जोर देते हैं। आप इसे भारतीय सन्दर्भ में कैसे देखती हैं?

इसका संक्षिप्त उत्तर तो यही है कि यथास्थिति में जिन लोगों का सामाजिक / आर्थिक / बौद्धिक कोई भी स्वार्थ होता है, उनके लिए क्रान्ति करना विरली ही बात होती है। वे व्यवस्था में थोड़ा बहुत रंग–रोगन कर या उसे ठोक–पीट कर ठीक करना चाहते हैं। चीजों का थोड़ा–बहुत इधर–उधर हेर–फेरय इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए वे अपना विश्वास बनाये रखते हैं, आज भारत की लगभग हर सार्वजनिक संस्था न्याय, समतावाद और लोकतंत्र की कसौटी पर खरी उतरती नहीं दिखाई देती। वर्तमान हिन्दू नाजी शासन में आप द्वारा किये गये वर्गीकरण में शामिल कई लोग बह जाएँगे। लेकिन फासीवादी विचारधारा में श्रेष्ठताबोध का विचार, ब्राह्मणवाद और उस देव के विचार से भिन्न नहीं है, जिसके अनुसार ब्राह्मण ही भूमि का देवता है। यह देख पाना कठिन नहीं है कि ‘दैवीय आदेश के कारण कुछ लोग श्रेष्ठ ही पैदा होते हैं और कुछ हीन’ जैसे विचार श्रेष्ठताबोध से ग्रसित फासीवादी विचारधारा से कैसे घुल–मिल जाते हैं।

हमने देखा है कि कैसे एनआरसी–सीएए–एनपीआर आन्दोलन में, संविधान और भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का इस्तेमाल प्रमुखता से किया गया। हमारा प्रश्न विशेष रूप से संविधान के बारे में है। क्या आपको लगता है कि संविधान का इस्तेमाल, दलित–बहुजन–मुस्लिम के मुख्य सवाल से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है? आपके अनुसार इसके निहितार्थ क्या होंगे?

यह अत्यन्त जटिल मामला है। सोचे–समझे कारणों से लोगों को अपनी पहचान चेहरे पर पोत कर अलग–थलग पड़ जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। भारतीय संविधान, डॉ– अम्बेडकर ने जिसकी मसौदा समिति की अध्यक्षता की थी, अपने समय से बहुत आगे का दस्तावेज था। भारत में पहली बार नैतिक और कानूनी रूप से निर्धारित किया गया कि सभी मनुष्य समान हैं और उनके समान अधिकार हैं। भारत जैसे जाति प्रथा से ग्रस्त विविध समाज में सबसे ऊपर और सब से नीचे की पायदान पर बैठे लोगों के अतिरिक्त सभी लोग किसी न किसी पर अत्याचार करते हैं और किसी न किसी का अत्याचार सहन करते हैं। ऐसे समाज के लिए समानता और संवैधानिक नैतिकता का विचार बहुत बड़ी बात थी।

दलितों के लिए विशेष रूप से यह एक पवित्र पुस्तक है। विडम्बना यह है कि अम्बेडकर खुद संविधान के कई पहलुओं से बहुत निराश थे और उनका मानना था कि इसे एक जीवन्त दस्तावेज होना चाहिए और हर पीढ़ी को इसे सुधारने की दिशा में काम करना चाहिए। पर हिन्दू दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा संविधान पर लगातार हमलों से बचाने की आवश्यकता है। हमें इसके लिए जुटना होगा ताकि संविधान को बचाया जा सके। अब जब आरएसएस सत्ता में है तो संविधान बचाने वालों को संविधानवाद जैसा कोई रास्ता अपनाना पड़ेगा।

साल 2019 बेहद चैंकाने वाला था। कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त कर दिया गया। मुस्लिम विरोधी नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू कर दिया गया। इन कदमों के माध्यम से सरकार द्वारा संविधान का घोर उल्लंघन किया गया। सरकार के इन कदमों का सीधा सा अर्थ यह है कि संविधान का पुनर्लेखन करने और भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के बजाय ऐसे व्यवहार किया जाये जैसे संविधान नाम की कोई चीज है ही नहीं। मुख्यधारा की मीडिया द्वारा मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी, पाकिस्तान–समर्थक और आतंकवादी के रूप में प्रदर्शित करना, उनके लिए भद्दी और अमानवीय भाषा का इस्तेमाल करना, अदालतों और पुलिस कार्रवाई में उनके प्रति पक्षपात और सड़कों पर उनके साथ खूनखराबाय ऐसी स्थिति में विरोध करने वाले मुसलमानों को लगा कि खुद को बचाने के लिए उनके पास सिर्फ एक ही रास्ता बचा है कि वे सड़कों पर उतर कर भारतीय ध्वज लहरायें और संविधान की प्रस्तावना का पाठ करें।

अब जब मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया जाने लगा है, अब जब मुख्यधारा का मीडिया कोरोना–जिहाद और मानव–बम जैसे हैशटैग के साथ समाचार प्रसारित करता है, जब सीएए विरोधी आन्दोलन और कोरोना संकट के दौरान मुसलमानों का इलाज करने से मना कर देने जैसी खौफनाक खबरें सुनने को मिलती हैंय ऐसे हालात में भाजपा नेता कपिल मिश्रा अकड़भरी डींगे हाँक रहा है और वित्त–राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर जिसने “देश के गद्दारों को, गोली मारों सालों को” जैसे नारे लगाये, वित्त मंत्री की बगल में बैठकर प्रेस–वार्ता को सम्बोधित करता है। जनता को इस तरह के निर्लज्ज संकेत शीर्ष से मिल रहे हैं। 

क्या हम उस दृश्य को भूल सकते हैं जब फैजान, जिसके गले में लाठी उतार कर पुलिस ने उसे पहले राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर किया और फिर सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया? क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि अगर ऐसा ही कुछ अमरीका में किसी अफ्रीकी अमरीकी के साथ होता तो उसका परिणाम क्या होता? हमारी शर्म कहाँ खो गयी है?

खैर, संविधानवाद पर आपके प्रश्न का उत्तर देते हुए मैं इतना ही कह सकती हूँ कि किसे विरोध करने दिया जाएगा, किसे बोलने दिया जाएगाय यह विरोध करने और बोलने वाले के धर्म, जाति, नस्ल और लिंग पर निर्भर करता है। यहाँ समानता नाम की कोई चीज नहीं हैय समानता के विचार का कोई संकेत ही नहीं है, दिखावे भर के लिए भी नहीं। इसी वजह से हम बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से एक राष्ट्र के तौर पर अभिशप्त हो रहे हैं। सभी के लिए न्याय, सम्मान और गरिमा की कोशिश करने से अधिक मुक्तिकामी और उल्लासपूर्ण कुछ और हो नहीं सकता। ऐसा करने के लिए हमें वर्ग, जाति, लिंग के साथ–साथ सम्प्रदायवाद के प्रिज्म से देखना होगा। यह प्रतिरोध–आन्दोलनों के भीतर देखने पर भी उतना ही लागू होता है और जितना जिनके खिलाफ हम लड़ रहे हैं उन्हें देखने के लिए भी। और जब तक हम यह नहीं सीखते तब तक हम बौने ही बने रहेंगे। 

 
 

 

 

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