दिसंबर 2018, अंक 30 में प्रकाशित

फहमीदा रियाज का गुजर जाना...

21 नवम्बर को 72 साल की उम्र में हमारी पसन्दीदा शायरा फहमीदा रियाज ने दुनिया को अलविदा कह दिया। वह लम्बे समय से पाकिस्तान के लाहौर में बीमारी से जूझ रही थीं। उनका जन्म 28 जुलाई 1946 को मेरठ में एक साहित्यकार घराने में हुआ था। बाद में वह अपने पिता की नौकरी में तबादले के चलते हैदराबाद होती हुई सिंध चली गयीं। भारत, पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया में वे महिला अधिकारों और प्रगतिशील विचारों की मजबूत आवाज थीं।

उन्होंने उम्र भर हर तरह की कट्टरता और तानाशाही का विरोध किया। जिसके चलते उन्हें अपने देश के शासक वर्ग का भारी विरोध झेलना पड़ा और उन पर मुकदमे भी चलाये गये। 1980 के दशक में सैन्य तानाशाह जनरल जिया उल–हक के शासन के वक्त सात साल तक भारत में निर्वासित रहीं।

उन्होंने युवावस्था में ही लिखना शुरू कर दिया था। उनकी पहली कविता सिर्फ 15 साल की उम्र में कुनुस नामक पत्रिका में छपी थी। उन्होंने पाकिस्तानी रेडियो और बीबीसी उर्दू में भी काम किया। बाद में उन्होंने आवाज नाम से एक उर्दू पत्रिका निकाली। आवाज की निडरता ने जनरल जिया उल–हक सरकार का ध्यान अपनी ओर खींचा। जिसके चलते उन पर और उनके पति पर 10 मुकदमे दर्ज किये गये। पति को जेल भेज दिया गया। बाद में एक प्रशंसक द्वारा उन्हें जेल जाने से बचा लिया गया। पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह जनरल जिया–उल–हक को उनके तरक्कीपसन्द विचार पसन्द नहीं आये तो उसने फहमीदा को देश से  निर्वासित कर दिया। उस समय वह भारत में आकर रहीं। इसके बावजूद यह सैन्य तानाशाह उनके मनोबल को तोड़ नहीं पाया। उसके बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा उन्हें ‘भारत की एजेंट’ बताया गया।

इससे साफ जाहिर होता है कि उनके विचार तानाशाही के सख्त खिलाफ और लोकतंत्र के पक्के हिमायती थे। लोगों को अपने अधिकार मिलें इसके लिए उन्होंने दुनिया के तमाम देशों में मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में काम किया। वे कभी भी नहीं चाहती थीं कि जिस तरह से पाकिस्तान में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है उस तरह से भारत में हो। लेकिन जब कारगिल युद्ध के दौरान भारत में भी ऐसा माहौल बना तो भारत में बढ़ते धार्मिक कट्टरपंथ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हुई हिंसाओं की खबरों को देखते हुए फहमीदा ने भारत को यह पैगाम दिया कि ‘तुम बिलकुल हम जैसे ही निकले’––

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहाँ छुपे थे भाई?

वो मूर्खता, वो घामड़पन, जिसमें हमने सदी गँवाई,

आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई!

‘प्रेत धरम का नाच रहा है कायम हिन्दू राज करोगे?

सारे उल्टे काज करोगे? अपना चमन ताराज करोगे?

तुम भी बैठ करोगे सोचा, पूरी है वैसी तैयारी,

कौन है हिन्दू कौन नहीं है, तुम भी करोगे फतवे जारी

होगा कठिन यहाँ भी जीना, दाँतों आ जायेगा पसीना’

जैसी तैसी कटा करेगी, वहाँ भी सबकी साँस घुटेगी ,

भाड़ में जाये शिक्षा–विक्षा, अब जाहिलपन के गुण गाना,

आगे गड्ढा है मत देखो, वापस लाओ गया जमाना–––

फहमीदा रियाज ने बैखोफ होकर अपनी कलम को हमेशा इनसानियत के पक्ष में चलाया। उन्होंने अपनी लेखनी का मुद्दा समाज की सबसे पीड़ित आबादी–– महिला तबके को बनाया। वह महिलाओं के अधिकारों की मजबूत प्रवक्ता थीं।‘एक लड़की से’ शीर्षक से लिखी अपनी नज्म में वे कहती हैं ––––

संग–दिल रिवाजों की, ये इमारत–ए–कोहना

अपने आप पर नादिम, अपने बोझ से लर्जां

जिस का जर्रा जर्रा है, खुद–शिकस्तगी सामाँ

सब खमीदा दीवारें, सब झुकी हुई गुड़ियाँ

संग–दिल रिवाजों के, खस्ता–हाल जिन्दाँ में

इक सदा–ए–मस्ताना, एक रक्स–ए–रिन्दाना

ये इमारत–ए–कोहना, टूट भी तो सकती है

ये असीर–ए–शहजादी, छूट भी तो सकती है

ये असीर–ए–शहजादी

‘चादर और चारदीवारी’ नाम से कविता लिखने पर उन्हें पाकिस्तान की जिया–उल–हल सरकार ने देश निकाला दे दिया था। इस कविता में बड़ी सच्चाई के साथ पाकिस्तान में महिलाओं की हालत के बारे में लिखा गया था।

सियाह चादर तो बन चुकी है मिरी नहीं आप की जरूरत

कि इस जमीं पर वजूद मेरा नहीं फकत इक निशान–ए–शहवत

हयात की शाहराह पर जगमगा रही है मिरी जेहानत

जमीं के रुख पर जो है पसीना तो झिलमिलाती है मेरी मेहनत

ये चार–दीवारियाँ ये चादर गली–सड़ी लाश को मुबारक

खुली फजाओं में बादबाँ खोल कर बढ़ेगा मिरा सफीना

मैं आदम–ए–नौ की हम–सफर हूँ

कि जिस ने जीती मिरी भरोसा–भरी रिफाकत।

फहमीदा ने केवल पाकिस्तान और भारत की महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ ही नहीं बल्कि उन्होंने दुनिया की सभी महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ लिखा है। महिला विरोधी सामन्ती समाज में महिलाओं को हमेशा घर में कैद रखा जाता था। उन पर अत्याचार किये जाते थे। महिलाएँ भी खुले आसमान में साँस ले सकें और अपने सपनों को पूरा कर सकें। इसलिए फहमीदा महिलाओं को उत्साहित करने के लिए और महिला उत्पीड़न के खिलाफ ‘इन्कलाबी औरत’ शीर्षक नाम से एक कविता लिखती हैं––

रणभूमि में लड़ते–लड़ते मैंने कितने साल

इक दिन जल में छाया देखी चट्टे हो गये बाल

पापड़ जैसी  हुईं हड्डियाँ जलने लगे हैं दाँत

जगह–जगह झुर्रियों से भर गयी सारे तन की खाल

देख के अपना हाल हुआ फिर उस को बहुत मलाल

अरे मैं बुढ़िया हो जाऊँगी आया न था खयाल–––

एक पुरुषवादी समाज में पुरुष महिला को किस हद तक प्यार कर सकता है या महिलाओं के प्रति प्रेम के बारे में पुरुष का क्या नजरिया है––

कब तक मुझ से प्यार करोगे

कब तक?

जब तक मेरे रहम से बच्चे की तखलीक का खून बहेगा

जब तक मेरा रंग है ताजा,

जब तक मेरा अंग तना है

पर इस के आगे भी तो कुछ है

वो सब क्या है

किसे पता है

वहीं की एक मुसाफिर मैं भी

अनजाने का शौक बड़ा है

पर तुम मेरे साथ न होगे तब तक।

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