अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

यूएपीए : किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने वाला काला कानून

नया यूएपीए कानून सरकार को अभूतपूर्व शक्तियाँ देने वाला है, जो उसकी ताकत के साथ ही उसकी जवाबदेही भी बढ़ाता है।
क्या सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं को ‘भले ही वे अमित शाह की तरह नैतिक रूप से ईमानदार लोकतंत्रतवादी ही क्यों न हों’, ‘जिनका कानून के शासन का सम्मान करने का लम्बा रिकॉर्ड हो’ किसी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ घोषित कर देने का अधिकार दिया जा सकता है? वह भी बिना उस व्यक्ति पर मुकदमा चलाये और उसे दोषसिद्ध साबित किये बगैर?
नरेंद्र मोदी सरकार गैरकानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम यानी यूएपीए में एक संशोधन के जरिये खुद को ठीक इसी शक्ति से लैस करने की योजना बना रही है।
सबसे खराब यह है कि ये बदलाव जो कि भारत के इतिहास का अब तक सबसे खतरनाक कानून है लोकसभा और राज्यसभा दोनों से पारित हो चुका है। यूएपीए में संशोधन करने का विधेयक केन्द्रीय गृहमंत्री द्वारा लोकसभा में जुलाई के आखिरी सप्ताह में पहले लाया गया था और इसे संक्षिप्त बहस के बाद पारित कर दिया गया।
महुआ मोइत्रा और असदउद्दीन ओवैसी जैसे कुछ विपक्षी सांसदों ने इस विधेयक के खतरनाक पहलुओं की ओर ध्यान दिलाने की पूरी कोशिश की, लेकिन चूंकि एनडीए के पास लोकसभा में जबरदस्त बहुमत है, इसलिए उनकी चिन्ताओं को आसानी से खारिज कर दिया गया।
एनडीए के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, जिसका मतलब यह है कि इसके विरोधियों के पास सरकार को विधेयक को सलेक्ट कमेटी के पास समीक्षा के लिए भेजने के लिए मजबूर कर देने और इसमें संशोधन करवाने लायक संख्या थी, लेकिन आरटीआई कानून में संशोधन और तीन तलाक को अपराध घोषित करनेवाले कानून के साथ जो हुआ, उसे देखते हुए यह साफ है कि भाजपा ने विपक्ष को चुप कराने का गुर सीख लिया है।
यूएपीए को पहली बार 1967 में पारित किया गया था और अपने मूल रूप में इससे सरकार को किसी संगठन को गैरकानूनी घोषित कर देने की शक्ति मिल गयी थी। इसमें ‘गैरकानूनी गतिविधियों’ को परिभाषित और अपराध भी घोषित किया गया था।
2004 में आतंकवाद को अपराध के तौर पर परिभाषित करने के लिए इस अधिनियम को संशोधित किया गया था और किसी संगठन को आतंकवादी घोषित करने और उसे प्रतिबन्धित करने की शक्ति सरकार को दी गयी थी, हालाँकि इसकी न्यायिक समीक्षा कराई जा सकती थी।
2004 के संशोधनों ने भी पुलिस को पूछताछ की बढ़ी हुई शक्ति दी गयी थी और गिरफ्तार किये गये व्यक्ति के लिए जमानत लेना काफी मुश्किल बना दिया गया था। जमानत के लिए यह जरूरी था कि कोर्ट को इस बात का यकीन हो जाये कि गिरफ्तार किया गया व्यक्ति उस पर लगाये गये अपराध के आरोप का प्रथमद्रष्टया दोषी नहीं है।
नया विधेयक इस कानून में दो महत्त्वपूर्ण तत्व जोड़ता है। पहला, यह राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के लिए वैसे मामलों को भी सीधे अपने नियंत्रण में लेने का रास्ता तैयार करेगा, जो अन्यथा राज्य पुलिस के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
यह भारत के संघीय ढाँचा को और कमजोर करने और केन्द्र सरकार के हाथ में बड़ी शक्ति देने वाला है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र को असली खतरा दूसरे बदलाव से है। यह संशोधन केन्द्र को न सिर्फ संगठन बल्कि किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने की शक्ति देता है।
लोकसभा में अमित शाह ने गोलमोल तरीके से यह कहा कि आतंकवादी घोषित करने की प्रक्रिया से सिर्फ उन लोगों को डरने की जरूरत है, जो आतंकवादी हैं––
“यूएपीए में व्यक्ति विशेष को कब आतंकवादी घोषित किया जायेगा, इसका प्रावधान है। आतंकवादी कार्यकर्ता है या उसमें भाग लेता है, अब इसमें दो राय हो सकती है क्या? कोई व्यक्ति आतंकवादी कार्य करेगा या भाग लेगा, तो उसको आतंकवादी घोषित करना चाहिए या नहीं करना चाहिए?
“इसके लिए, आतंकवाद को पोषण देने के लिए, तैयार करने के लिए, जो मदद करता है, अब उसको भी आतंकवादी घोषित करना चाहिए।
“कोई आतंकवादी को अभिवृद्धि देने के लिए धन मुहैया कराता है तो मैं मानता हूँ कि उसको भी आतंकवादी घोषित करना चाहिए।
“आतंकवाद के साहित्य को और आतंकवादी के सिद्धान्त को युवाओं के जेहन में उतारने के लिए जो प्रयास करता है। मान्यवर, मैं मानता हूँ आतंकवादी बन्दूक से पैदा नहीं होता, आतंकवाद को फैलाने के लिए जो अप–प्रचार होता है, उन्माद फैलाया जाता है, वो आतंकवाद का मूल है। और अगर इस सबको आतंकवादी घोषित करते हैं, तो मैं मानता हूँ कि सदन के किसी भी सदस्य को कोई आपत्ति नहीं होगी।”
शाह के तर्क बेहद दिखावटी हैं और बस दो सवाल के सामने भरभराकर ढह जाते हैं–– किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने का मकसद क्या है?
इस बात को परिभाषित कौन करेगा कि ‘आतंकवादी साहित्य और आतंकवादी सिद्धान्त’ क्या है और आखिर कौन–सी गतिविधियाँ इन विचारों को युवाओं के मन में भरनेवाली मानी जाएँगी?
डरने की वजह, भाग– 1
शाह सुविधाजनक ढंग से संसद को यह याद दिलाना भूल गये कि अगर कोई व्यक्ति, यूएपीए की परिभाषा के अनुसार आतंकवादी गतिविधियों में भाग लेता है, तो सरकार के पास पहले से ही मौजूद अधिनियम के अध्याय 4 के तहत उस पर मुकदमा चलाने और उसे सजा दिलाने की शक्ति है। वास्तव में ऐसे दर्जनों मुकदमे इसी बुनियाद पर चलाये गये हैं।
दूसरे शब्दों में, अगर अधिकारियों की नजरों में कोई ‘आतंकवादी’ है, तो उनके पास मौजूदा यूएपीए के तहत उसे गिरफ्तार करने और उस पर मुकदमा चलाने की पूरी शक्ति है। और अगर उनके पास अपने दावों के पक्ष में ठोस साक्ष्य हैं, तो न्यायालय निश्चित तौर पर उस व्यक्ति को दोषसिद्ध करार देगा और उसे जेल भेजेगा।
शाह को एक पहले से ही काम के बोझ के तले दबी व्यवस्था पर एक आतंकवादी के खिलाफ कार्रवाई की एक और परत लादकर– उसे औपचारिक तौर पर आतंकी घोषित करके और बोझ क्यों डालना चाहिए, जबकि एनआईए उसे सीधे दोषसिद्ध साबित कर सकती है और जेल भेज सकती है? खासकर तब जब नये कानून में आश्चर्यजनक ढंग आतंकवादी घोषित किये गये किसी व्यक्ति के लिए कानूनी अंजामों के बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है।
इसका जवाब और जिससे हमें चिन्तित होना चाहिए यह है कि किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करना, केन्द्र सरकार को किसी व्यक्ति पर आतंकवादी का ठप्पा लगाने और उसे लांछित करने की शक्ति देता है, भले ही उसके पास उस पर मुकदमा चलाने और उसे दोषसिद्ध साबित करने के लिए सबूत न हो। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह यह सजा का न्यायेतर रूप है।
अगर फर्जी एनकाउण्टर पुलिस को कोर्ट में गये बिना किसी व्यक्ति, उदाहरण के लिए कौसर–बी और उसके पति सोहराबुद्दीन को मौत की सजा देने की शक्ति देता है, किसी व्यक्ति को आतंकवादी करार देने की शाह की योजना सरकार को उसके निशाने पर आये किसी व्यक्ति को अदालत ले जाये बिना या जेल भेजे बिना उसकी जिन्दगी को जहन्नुम बनाकर उसे एक तरह के एकाकी कारावास में धकेलने की ताकत देता है।
एक बार किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर देने के बाद उसकी नौकरी चली जायेगी। उसका मकान मालिक उसे घर से निकाल देगा। उसके बच्चों के लिए स्कूल जाना मुहाल हो जायेगा। हर कोई उसे सन्देह की नजरों से देखेगा और पुलिस उसे और उससे मिलने वाले व्यक्तियों को परेशान करती रहेगी।
कहने के लिए यूएपीए के संशोधन में अपील की प्रक्रिया की व्यवस्था की गयी है, लेकिन तीन सदस्यीय समीक्षा समिति का गठन खुद सरकार के द्वारा किया जायेगा। इस समिति के दो सदस्य सेवारत नौकरशाह होंगे। इसके अध्यक्ष उच्च न्यायालय के सेवारत या अवकाशप्राप्त न्यायाधीश होंगे।
लेकिन राजनीतिक रूप से संवेदनशील आयोगों और समितियों के लिए अपनी पसन्द के व्यक्तियों को चुनने का इस सरकार का जो रिकॉर्ड रहा है, उसे देखते हुए सम्भावना यही है किसी व्यक्ति के लिए अपने ऊपर लगाये आतंकवादी के ठप्पे को चुनौती देना काफी मुश्किल होगा।
डरने की वजह, भाग– 2
शाह ने संसद में कहा कि जो लोग ‘प्रोपगेण्डा’ और ‘धार्मिक उन्माद’ के द्वारा युवाओं के दिमाग में आतंकवादी साहित्य और आतंकवादी सिद्धान्त भरने की कोशिश करते हैं, उन्हें नये कानून के तहत आतंकवादी घोषित किया जायेगा।
यूएपीए के साथ समस्या यह है कि यह आतंकवादी साहित्य और आतंकवादी सिद्धान्त को परिभाषित नहीं करता है।
और पुलिस के रवैये को देखते हुए और भारत में राजनीतिक विरोधियों और आलोचकों को निशाना बनाने के लिए सुरक्षा कानून के निरंतर दुरुपयोग की प्रवृत्ति को देखते हुए क्या हम सचमुच में गृह मंत्रालय के अधिकारियों को किसी व्यक्ति को सिर्फ इस बिना पर आतंकवादी करार देने का अधिकार देने के लिए तैयार हैं कि उसके घर में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो या माओ की लाल किताब है?
अगर झारखण्ड में पुलिस ने हजारों आदिवासियों पर पत्थलगड़ी आन्दोलन जो सिर्फ आदिवासियों को दिये गये संवैधानिक अधिकारों की बात करता है, को समर्थन देने के लिए राजद्रोह का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा चलाया है, तो आप इस बात के लिए निश्चिन्त रह सकते हैं कि किसी व्यक्ति को आतंकवादी करार देने की शक्ति का खुलकर दुरुपयोग किया जायेगा।
मौजूदा यूएपीए कानून का इस्तेमाल सुधा भारद्वाज जैसे निस्वार्थ और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के खिलाफ बेहद कमजोर मुकदमा दायर करने के लिए किया गया है। जीवन भर न्यायालयों के जरिये कामगारों, औरतों, आदिवासियों और किसानों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली भारद्वाज को पिछले साल अगस्त में गिरफ्तार किया गया था। इस अगस्त में उन्हें बिना जमानत के जेल में एक साल पूरा हो जायेगा।
उनके, सुरेंद्र गाडलिंग, वरवर राव, गौतम नवलखा, शोमा सेन, रोना विल्सन, महेश राउत और सुरेश धवले के खिलाफ मामला इस बात का सबूत है कि पहले से मौजूद यूएपीए कानून ही अपने आप में कितना दमनकारी है और जिसके द्वारा बिना मुकदमे या दोषसिद्धि के किसी व्यक्ति को महीनों हिरासत में रखा जा सकता है। अब जब सत्ता का उनके खिलाफ मामला आखिरकार कोई भी सबूत न होने के कारण टिक नहीं पाएगा, उन्हें आतंकवादी घोषित करने की यह नयी शक्ति उनके काम आएगी।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार ने 2004 में संशोधित यूएपीए को समुचित संसदीय जाँच के बगैर ही हड़बड़ी में पारित करवाया था और अब नरेंद्र मोदी सरकार इन दमनकारी संशोधनों के साथ ऐसा ही करने की योजना बना रही है।
यह नया कानून सरकार को अप्रत्याशित शक्ति प्रदान करेगा और इस बात को तय मानिए कि ज्यादा बड़ी शक्ति के साथ ज्यादा बड़ी गैर–जिम्मेदारी आएगी। यूएपीए संशोधनों को तैयार ही दुरुपयोग करने के लिए किया गया है।
इस कानून को लेकर जो चिन्ताएँ प्रकट की गयी हैं, उसके जवाब में सरकारी अधिकारियों की तरफ से जो लचर जवाब दिये गये हैं, उनमें इस विधेयक को मुख्य तौर पर हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे लोगों की तरफ लक्षित दिखाने की कोशिश की गयी है। यह पूरी तरह से धूर्तता से भरा जवाब है। शाह ने अपनी मंशा तब प्रकट कर दी जब उन्होंने लोकसभा में यह कहा कि ‘अर्बन माओवादियों के लिए काम करनेवालों को छोड़ा नहीं जायेगा।’ वे लोग कौन हैं, जिन्हें छोड़ा नहीं जायेगा?
पिछले महीने आरएसएस की एक प्रोपगेण्डा शाखा ने एक पर्चे का प्रकाशन किया, जिसका शीर्षक था ‘कौन हैं अर्बन नक्सली?’
इस पर्चे के मुताबिक दिल्ली विश्वविद्यालय में नक्सल समर्थक साहित्य पढ़ाया जा रहा है, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय अर्बन माओवादियों का गढ़ बन गया है, क्योंकि वहाँ मजदूर किसान संगठन समिति के निखिल डे ने व्याख्यान दिये हैं और मीडिया पत्रकार और स्तंभकार माओवादियों और आतंकवादियों की भाषा बोल रहे हैं।
इस नये कानून को तैयार करनेवालों और जो इसका इसका इस्तेमाल करेंगे, उनकी सोच आरएसएस के उन लोगों जैसी है जो हर बात में साजिश की खोज करते हैं। अब जब यूएपीए संशोधन विधेयक पारित हो गया है, तो यह उस सत्ता के हाथ में एक और हथियार बन जायेगा, जो इसकी नीतियों की हर आलोचना को अवैध करार देने पर आमादा है।
(द वायर से साभार)
 

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