अप्रैल 2022, अंक 40 में प्रकाशित

वैज्ञानिकों की गहरी खामोशी

भारत के पहले खगोल भौतिकविज्ञ और निर्वाचित सांसद मेघनाद साहा ने दिसम्बर 1954 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखा था–– “मेरा आपसे निवेदन है कि आप बिलकुल इयागो’ जैसे लोगों की बातों में आकर अपनी डेसडेमोनाओं का गला मत घोंटिये। मुझे कभी–कभी लगता है कि आपके चारों ओर इयागो जैसे बहुत से लोग हैंय जैसा कि इतिहास में सत्ता और प्रतिष्ठा वाले हर व्यक्ति के साथ होता रहा है।” दु:खी साहा ने शेक्सपीयर के नाटक ‘ओथेलो’ का हवाला देकर विज्ञान के उन बुरे हालातों पर दु:ख जताया, जिनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री के धूर्त्त सलाहकारों द्वारा विज्ञान और राज्य के मधुर सम्बन्धों को नष्ट किया जा रहा था।

एक भुला दी गयी गौरवशाली परम्परा

हम उस नेहरूवादी समय से बहुत दूर आ गये हैं, जब प्रधानमंत्री की प्रत्यक्ष आलोचना करने पर भी वैज्ञानिकों की प्रशंसा होती थी। कुछ सालों से असहिष्णुता और अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाला एक घातक राजनीतिक परिदृश्य विकसित हो गया है। यह प्रमाणित वैज्ञानिक तरीकों और जाँच की उनकी आजादी के लिए प्रतिकूल साबित हुआ है। ज्ञान सृजन के लिए किसी को भी चिन्तन और खुद को मुक्त रूप से अभिव्यक्त करने के योग्य होना चाहिए। लोकतंत्र के फलने–फूलने के लिए असहमति को भी जगह देने की जरूरत होती है। क्या हमारे वैज्ञानिक विचारों की आजादी के पक्ष में और छद्म विज्ञान के खिलाफ बहस खड़ी ना होने के लिए पर्याप्त रूप से मुखर हैं ? उनकी खामोशी ने इस अनुभूति को जन्म दिया है कि अन्धराष्ट्रवाद और अतिराष्ट्रवाद एक खतरनाक माहौल के उभार हैं। सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध साहा जैसे वैज्ञानिकों की गौरवशाली परम्परा को भुला दिये जाने के वे भी सह–अपराधी हैं।

2015 में 102वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस से हाल–फिलहाल तक के बहुत से अवसरों पर हमने वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संस्थाओं के इस प्रतिरोध की कमी को देखा है। अन्धराष्ट्रवाद और सड़े विज्ञान को इस प्रतिष्ठित सम्मेलन के एक सत्र में जगह कैसे मिल गयी ? कैसे देश के चोटी के वैज्ञानिकों की उच्च कमेटी ने इसे जाँचा और मान्यता दी ?

प्राचीन और मध्यकालीन भारत में विज्ञान द्वारा किये गये योगदान को पूरी तरह किनारे करके उसी मंच पर प्राचीन ‘भारत’ को तमाम आधुनिक ज्ञान का स्रोत बताने जैसे हास्यास्पद दावे किये गये। भारतीय वैज्ञानिकों में वैज्ञानिक नजरिये की कमी से हमेशा दु:खी रहे दिवंगत पुष्प भार्गव जैसे वैज्ञानिकों को छोड़कर, विज्ञान के हमारे अधिकतर पुरोधाओं ने प्रत्यक्ष रूप से गलत चीजों को नजरअन्दाज किया। जिम्मेदार राजनेताओं द्वारा दिये जाने वाले विज्ञान सम्बन्धी बेहूदा बयान तभी से लगातार प्रसिद्धी पा रहे हैं। यहाँ तक कि जब एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने डार्विन के सिद्धान्त को वैज्ञानिक रूप से गलत ढहराया तो भी कुछ को छोड़कर अधिकतर वैज्ञानिक खामोश रहे। पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख ने झूठी बात कही कि पिछले चालीस हजार सालों से भारत के सभी नागरिकों का डीएनए एक ही जैसा रहा है। उनका सन्देश साफ तौर पर उस प्रमाणित तथ्य के खिलाफ है जिसके अनुसार भारतीय लोग अफ्रीकी, भूमध्यसागरीय और यूरेशियाई मैदानों से उत्पन्न आनुवांशिक वंशों से मिलकर बने हैं। संशोधनवादी इतिहास लेखन के एक हिस्से के रूप में अब आईआईटी खडगपुर ने साल 2022 का कैलेण्डर जारी किया है। इसका उद्देश्य है–– सिन्धु घाटी सभ्यता को वैदिक संस्कृति की नींव के पक्ष में तर्क देना। यह एक ऐसा मत है जो तमाम तथ्यों के खिलाफ है। सिन्धु घाटी सभ्यता के एक सींग वाले बैल की मोहर को झूठमूठ में घोड़ा कह देने से तथ्यात्मक शून्यता का समाधान नहीं होगा।

इस अवैज्ञानिक माहौल में सड़े विज्ञान के प्रचारक भांड और नये जमाने के ‘गुरु’ चमक रहे हैं। ये अक्सर ऐसे मनगढ़न्त किस्सों का प्रचार करते रहते हैं, जैसे गौ उत्पादों से कोरोना का इलाज, और यहाँ तक कि समलैंगिकता का भी इलाज, मानो यह कोई बीमारी हो।

हमारा सामाजिक और राजनीतिक जीवन अप्राकृतिक रूप से 1930–40 के फासीवादी युग के साथ मेल खाता है, जब एडोल्फ हिटलर और बेनितो मुसोलिनी ने तर्क दिया था कि ‘अशुद्ध नस्लों’ की तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण ‘स्वेत नस्ल’ प्राणघातक जनसांख्यिकीय प्रतियोगिता में फँस गयी है। यह हमारे मौजूदा राजनीतिक माहौल में इस बात को दर्शाने के लिए शिक्षाप्रद हो सकता है कि कैसे विज्ञान इस तरह के प्रतिगामी नजरिये के खिलाफ दीवार खड़ी करने में विफल रहा। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में विज्ञान के इतिहासकार ममियो मुजोटो ने बताया कि कैसे इटली में फासीवादी शासन ने तरह–तरह की धमकियों और निगरानी की चालबाजियों से विद्वानों को शासकों की सोच का ताबेदार बनाया। एक वास्तविक फासीवाद विरोधी चुनाव तैयार न कर पाने के चलते विद्वानों ने ऐसा किया। विरोध के बजाय वे स्वार्थी होकर किनारे हट गये। इसकी वजह से इटली के स्वार्थी और कैरियरवादी वैज्ञानिक मूर्खों की तरह निजी तौर पर तो फासीवाद का मजाक उड़ाते थे, लेकिन उसे सार्वजनिक रूप से गलत कहने का जोखिम नहीं लेते थे। इटली की तरह ही नाजीवादी दौर में ‘दूसरे लोगों को अपने से हीन समझने’ की सोच और नस्लवाद राजनीतिक परिदृश्य का एक बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा था, जिसमें चोटी के वैज्ञानिकों को यहूदी होने के चलते देश छोड़ना पड़ा। 

ताबेदारी के कारण

सैद्धान्तिक भौतिकवादी नरेश दधीच ने अपने एक लेख में कहा था कि इस मौन सहमति का एक कारण है कि वैज्ञानिक अनुसन्धान लगभग पूरी तरह सरकारी अनुदान पर निर्भर होते हैं। इसलिए परिणाम का डर सामाजिक जुड़ाव के विचार के खिलाफ काम करता है। इसके साथ ही दूसरा वैध कारण है, हमारे सारे समकालीन वैज्ञानिक अनुसन्धानकर्ता उदार बौद्धिक विमर्श से कटे हुए हैं। यह आजादी के शुरुआती सालों से बिलकुल अलग तरह की स्थिति है। अधिकतर वैज्ञानिकों के लिए आज भी पद्धति के रूप में विज्ञान बाहरी चीज बना हुआ है। उनमें से अधिकतर का समाज–विज्ञानों का ज्ञान विश्वविद्यालय के न्यूनतम स्तर तक ही सीमित है। वैश्विक रूप से दूसरी शाखाओं की तुलना में विज्ञान के छात्रों ने परोपकारिता और तर्कशीलता के काम कम किये हैं, जो उनमें सामाजिक जिम्मेदारी की कमी को दिखाता है। यह आरोप सीधे हमारी वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति पर जाता है। विज्ञान और तकनीक आधारित अग्रिम संस्थान छात्रों को सीधे स्कूल से भर्ती करते हैं और अपने पाठ्यक्रम में सामाजिक विज्ञान के केवल एक दो ही पाठ्यक्रमों को शामिल करते हैं। इस तरह अधिकतर छात्र सामान्य उदार बौद्धिक विमर्श से अपरिचित रहते हैं। यह चिन्ता का बड़ा मसला है। 21वीं सदी भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फासीवादी प्रवृत्ति के साथ तानाशाही, असहिष्णुता और पलायन का गवाह बन रही है। हम उस समय में जी रहे हैं, जब प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से पर्यावरण पर प्रभाव की वैज्ञानिक सलाहें सार्वजनिक नीतियों पर बहस में हाशिये पर धकेल दी गयी हैं।

20वीं सदी की शुरुआत में बहुत से अगुआ वैज्ञानिकों को दर्शन की गहरी समझ थी। उन्होंने समाज पर विज्ञान के निहितार्थों के बारे में अलग नजरिया विकसित किया था। वे सामाजिक मुद्दों पर कहीं अधिक सक्रिय थे। उस विरासत की निरन्तरता टूटी हुई लगती है। एक डरा हुआ वैज्ञानिक अकादमिक खोज की पंथनिरपेक्ष स्वायत्तता को कायम रखने में सक्षम नहीं है। युवा शोधकर्ताओं के लिए इस सांस्कृतिक खालीपन को भरने के लिए विज्ञान की शिक्षा में शिक्षाशास्त्रीय चीजें जरूर डाली जानी चाहिए। यह छात्रों को सभ्य समाज और लोकतांत्रिक ढाँचे को कमजोर करने वाले सिद्धान्तों के खिलाफ विचारशील कदम उठाने में सहायता करेगा।

(द हिन्दू, 4 जनवरी 2022 से साभार , अनुवादक–– सत्येन्द्र)

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