जुलाई 2019, अंक 32 में प्रकाशित

सफाईकर्मियों की मौत : जिम्मेदार कौन?

–– 15 जून, गुजरात में वडोदरा के निकट एक गाँव में होटल के सीवर की सफाई के लिए मैन होल में उतरे 7 लोगों की जहरीली गैस से दम घुटने के कारण मौत हो गयी। मैन होल में सबसे पहले घुसे महेश के बाहर न निकलने पर उसको देखने के लिए मैन होल में एक–एक कर उतरे सभी सात लोगों की 15 मिनट में भीतर मौत हो गयी। इनमें 4 सफाई कर्मचारी और 3 होटल कर्मी थे।

–– 27 जून, हरियाणा के रोहतक में सेफ्टी टैंक साफ करने के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आने से चार कर्मचारियों की मौत हो गयी। इनमें से तीन कर्मचारियों को निजी तौर पर रखा गया था जबकि एक लोक स्वास्थ्य विभाग से था। चारों सफाईकर्मियों की उम्र 22 से 30 साल के बीच थी।

–– 1 मार्च, वाराणसी, कैंट थाना अन्तर्गत पांडेयपुर काली मंदिर के पास सीवर पाईप लाइन का चैम्बर साफ करने उतरे दो सफाईकर्मियों की मौत हो गयी। एनडीआरएफ और नगर निगम की टीम ने चैम्बर से शवों को बाहर निकाला।

–– 24 मार्च, वेस्ट दिल्ली के रजौरी गार्डन इलाके में सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आने से 2 कर्मचारियों की मौत हो गयी, जबकि 2 गम्भीर रूप से घायल हो गये। ये चारों राजौरी गार्डन स्थित पाइरेट्स ऑफ ग्रिल्स रेस्तरां में हाउस कीपिंग स्टॉफ का काम करते थे, जिनको सीवर सफाई का काम करने पर मजबूर किया गया था।

देश भर में आये दिन होनेवाले ये भयावह और दिल दहला देनेवाले हादसे थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। सफाईकर्मियों को बिना किसी सुरक्षा उपाय के ऐसे जानलेवा काम करने के लिए मजबूर करना तो अब आम बात हो गयी है। ऐसी हर घटना के बाद पक्ष–विपक्ष के नेता कुछ बयानबाजी करते हैं, हल्ला–गुल्ला होता है, दोषियों की गिरफ्तारी और मुआवजे की घोषणा जैसी रस्म निभायी जाती हैं। सामाजिक भेदभाव के शिकार और सबसे निचले पायदान पर जी रहे सफाईकर्मियों की हैसियत के मुताबिक ही मुआवजे की रकम तय होती है और जहाँ तक कानूनी प्रक्रिया की बात है, इन मजबूर और मासूम लोगों को क्रूरतापूर्वक मौत के मुँह में धकेलनेवालों के ऊपर या तो बहुत ही मामूली धाराओं में मुकदमा दर्ज होता है या आमतौर पर किसी को कसूरवार नहीं ठहराया जाता। और फिर कुछ ही दिनों बाद किसी दूसरी भयावह घटना की खबर आ जाती है।

हजारों सालों से अमानवीय जाति–प्रथा के सोपान क्रम में समाज के सबसे निचले स्तर पर जी रही जातियों से आने वाले सफाईकर्मियों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। हाथ से मैला साफ करने की प्रथा पर बड़ी–बड़ी बातें करनेवाले लोग दरअसल जिस विशेषाधिकार का पीढ़ी दर पीढ़ी सुख भोगते आ रहे हैं, उसे वे क्यों खोना चाहेंगे? यही कारण है कि आरक्षण समाप्त करने और साथ ही साथ अपनी–अपनी जातियों के लिए आरक्षण कि माँग करने वाली दबंग जातियों के नेता सफाई के काम में निचली जातियों के शत प्रतिशत आरक्षण का कभी विरोध नहीं करते। ये लोग इस पेशे पर कुछ खास जातियों के एकाधिकार को कभी चुनौती नहीं देते। आरक्षण की बहस का यहाँ कोई जोर नहीं चलता। यहाँ तक कि निजीकरण और ठेकेदारी व्यवस्था में, जहाँ दूसरे तमाम सम्मानजनक कामों में आरक्षण लागू नहीं है, वहाँ भी अपवादों को छोड़कर सबसे अपमानजनक समझा जाने वाला सफाई का काम परम्परा से इस पेशे में लगी जातियों के लिए पूरी तरह आरक्षित है। आज भी हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई, सभी धर्मों की कुछ खास जातियाँ ही मैला ढोने और सफाई करने के लिए निर्धारित कर दी गयी हैं जो नरक से भी बदतर हालात में जिन्दगी बसर करती हैं।

सिर पर मैला ढोनेवाले मेहनतकश लोगों के प्रति सरकार की उपेक्षा का हाल ये है कि देश के विभिन्न हिस्सों में उनकी कुल संख्या और सामाजिक–आर्थिक स्थिति के बारे में कोई सर्वे या अध्ययन नहीं कराया गया। 2015 में सरकार ने लोकसभा में यह जानकारी दी थी कि 2011 की जनगणना के आँकड़े के मुताबिक देश के ग्रामीण इलाकों में 1,80,657 परिवार मैला सफाई का काम कर रहे थे। इनमें से सबसे ज्यादा 63,713 परिवार महाराष्ट्र में थे। इसके बाद मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, त्रिपुरा और कर्नाटक का स्थान है। यह संख्या परिवारों द्वारा दी गयी जानकारी पर आधारित है। दूसरी ओर, 2011 की जनगणना के अनुसार देश में हाथ से मैला सफाई करनेवाले कर्मियों की कुल संख्या 7,94,000 थी। राज्य सरकारें सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों के बारे में केन्द्र को सही–सही सूचना नहीं देतीं। 2017 में 6 राज्यों ने केवल 268 मौतों की जानकारी दी। गजब तो यह कि एक सरकारी सर्वे के अनुसार 13 राज्यों में सिर्फ 13,657 सफाईकर्मी हैं। 19 सितम्बर 2018 को द गार्डियन की एक रिपोर्ट में बताया गया कि राज्य सरकारें हाथों से मैला सफाई करने वाले मजदूरों के अस्तित्व से ही इनकार करती हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार जब राज्य सरकारों से हाथों से मैला सफाई करने और ढोने वाले सफाईकर्मियों की संख्या पूछी गयी तो तत्कालीन छत्तीसगढ़ सरकार ने 3 और गुजरात सरकार ने 2 बतायी। उन राज्यों में सफाईकर्मियों की अक्सर होने वाली मौत की खबरें इस गलतबयानी का पर्दाफाश करती हैं, जिनमें से एक इस लेख की शुरुआत में ही दी गयी है।

राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अनुसार 2017 से हर पाँचवें दिन कोई न कोई अभागा सीवर या सेफ्टी टैंक की सफाई के दौरान मौत का शिकार बन जाता है। हैरत की बात यह कि इस तरह की मृत्यु के बारे में यह पहला आधिकारिक आँकड़ा था। सीवर सफाई के दौरान हुई मृत्यु के बारे में आयोग द्वारा दिये गये आँकड़े के मुताबिक देशभर में तामिलनाडु का पहला और गुजरात का दूसरा स्थान है। आयोग के अध्यक्ष ने स्वीकार किया था कि यह आँकड़ा अंतिम और पूर्ण नहीं है क्योंकि ज्यादातर राज्यों में इस तरह की मृत्यु की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं होती। इसलिए इनको हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों में छपी खबरों तथा 29 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों में से सिर्फ 13 द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर तैयार किया गया था। इनमें सफाई के काम में लगी जातियों के स्त्री–पुरुषों की विभिन्न रोगों से होनेवाली मौत के आँकड़े भी शामिल नहीं थे। सुरक्षा साधनों के बिना ही हाथ से मैला और गन्दगी उठाने के चलते उन्हें तरह–तरह के संक्रामक रोग हो जाते हैं और इनकी औसत आयु बेहद कम हो जाती है।

हमरे देश में जब कोई समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है और सरकार के लिए उस पर पर्दा डालना कठिन हो जाता है तो वह उस पर कोई आयोग बैठाकर या कानून बनाकर अपने कर्तव्यों का इतिश्री कर लेती है। इस समस्या पर भी सरकारों का यही रवैया रहा है। 1993 में 6 राज्यों ने केन्द्र सरकार से मैला ढोने की प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कानून का निर्माण करने का अनुरोध किया। तब “द एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993” नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पारित किया गया। इस कानून के बनने के बाद से सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैसों के कारण हुई 1800 सफाईकर्मियों की मौत की तथ्यपरक जानकारी सफाई कर्मचारी आन्दोलन के समन्वयक और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन और उनके साथियों के पास मौजूद हैं। यह संख्या केवल उन मामलों की है जिनके विषय में दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं। वास्तविक संख्या तो इससे कई गुना अधिक है क्योंकि इस तरह की अधिकांश मौतों के मामले दबा दिये जाते हैं। मृतक के परिजन अशिक्षा और गरीबी के कारण कानूनी लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं होते। मृत्यु के लिए जिम्मेदार ठेकेदार और अधिकारी अपने रसूख के बल पर अक्सर ऐसे मामले को रफा–दफा कर देते हैं।

सितम्बर 2013 में सरकार ने इस सम्बन्ध में एक और नया कानून बनाया—“प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन रूल्स 2013” जिसे दिसम्बर 2013 में लागू किया गया। लेकिन कानून बनाने से किसी समस्या का समाधान कैसे होगा, जब न तो समाज में उसे लागू किये जाने की परिस्थिति है और न ही शासन–प्रशासन उसे मुस्तैदी से लागू करने में कोई रुचि लेता हो। निजीकरण के मौजूदा दौर में ज्यादातर सफाईकर्मी निजी ठेकेदारों के अधीन काम करते हैं–– कोई सम्मानजनक वेतन नहीं, कोई सेवा शर्त नहीं, बीमा नहीं, पेन्शन नहीं। पुलिस, अधिकारी और ठेकेदार का गठजोड़ मृत्यु के कारण को बदलने का कार्य करता है। एक नाम मात्र की राशि मृतक के परिजनों को ठेकेदार द्वारा दे दी जाती है। सरकारी काम करने के बावजूद सरकारें इन्हें अपना कर्मचारी नहीं मानती हैं, इसीलिए इन्हें मुआवजा देने से भी इनकार कर देती हैं।

डॉ आशीष मित्तल (जानेमाने कामगार स्वास्थ्य विशेषज्ञ तथा इस विषय पर “होल टू हेल” और “डाउन द ड्रेन” जैसी चर्चित पुस्तकों के लेखक) के अनुसार सीवर सफाई से जुड़े अस्सी प्रतिशत सफाईकर्मी रिटायरमेंट की आयु तक जीवित नहीं रह पाते और श्वसन तंत्र के गम्भीर रोगों तथा अन्य संक्रमणों के कारण इनकी अकाल मौत हो जाती है। कानूनन पहले तो किसी व्यक्ति का सीवर सफाई के लिए मैनहोल में उतरने पर ही रोक है, लेकिन अगर किसी आपातस्थिति में किसी व्यक्ति को सीवर में उतरना जरूरी हो जाय, तो लगभग 25 तरह के सुरक्षा प्रबन्धों की एक चेक लिस्ट है जिसका पालन करना लाजिमी होता है।

सबसे पहले, जहरीली गैसों की जाँच के लिए एक विशेषज्ञ इंजीनियर की उपस्थिति जरूरी होती है। एम्बुलेंस की और डॉक्टर का मौजूद होना भी जरूरी होता है। सीवेज टैंक में उतरने वाले मजदूर को गैस मास्क, हेलमेट, गम बूट, ग्लव्स, सेफ्टी बेल्ट आदि से सुसज्जित पोशाक पहनना होता है। इसके बाद मौके पर मौजूद किसी जिम्मेदार अधिकारी द्वारा यह प्रमाणित करने पर कि सभी सुरक्षा नियमों का पूरी तरह पालन कर लिया गया है, मजदूर को सीवर में उतारा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 2014 में निर्णय दिया था कि आपातस्थितियों में भी बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर लाइन्स में प्रवेश अपराध की श्रेणी में आएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मृत्यु के ऐसे प्रत्येक मामले में 10 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाये। लेकिन तमाम कानूनी प्रावधानों के बाद भी सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतें थमने का नाम क्यों नहीं ले रही हैं?

जमीनी सच्चाई यह है कि सफाई कराने वाले ठेकेदार बिना किसी सुरक्षा उपकरण के 200–250 रुपये की दिहाड़ी पर काम कर रहे मजदूरों को रस्से के सहारे मैनहोल से नीचे उतार देते हैं। ये मौतें प्राय: सेफ्टी टैंक के भीतर मौजूद मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड आदि जहरीली गैसों के कारण होती हैं। इन गैसों की जाँच के लिए ठेकेदार के पास माचिस की तीली जलाकर देखना और जीवित कॉकरोच डालकर जाँच करने जैसे आदिम तरीके ही होते हैं।

एक तरफ प्रधानमंत्री कुम्भ के अवसर पर सफाईकर्मियों के चरण पखारते हैं तो दूसरी ओर सीवर की गन्दगी में गहरे डूब चुके अभागे सफाईकर्मियों की लाशें जेसीबी मशीन और हाइड्रोलिक कटर के उपयोग से मैन होल को बड़ा करके निकाली जाती हैं।

सच तो यह है कि सफाईकर्मियों की सामाजिक स्थिति, उनका समाज की तलछट में पड़ी जातियों का होना, उनकी आर्थिक स्थिति, सबसे घटिया काम और वह भी सबसे कम मजदूरी पर करना, उनके प्रति शासन–प्रशासन की ऐसी लापरवाही और निष्ठुरता की वजह है। वरना आज के आधुनिक युग में, जहाँ सफाई के लिए स्वचालित मशीनों से लेकर रोबोट तक की खोज हो चुकी है, इस बर्बर तौर–तरीके को बनाये रखने की क्या वजह हो सकती है? न्याय और समता पर आधारित, एक जन हितैषी समाज–व्यवस्था ही इस अमानवीय प्रथा को खत्म कर सकती है।

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